गाँधी की जीवन यात्रा ही उनकी विचारधारा बन गयी जो बाद में ‘गांधीवाद’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। गाँधी उस तरह के व्यक्ति रहे है जिनके आदर्श और कार्यप्रणाली में एकात्म दिखता है। वे उपदेश न देकर उसे जी कर प्रत्यक्ष अनुभव करते थे और उस आधार पर ही अपनी राय बनाते थे। यही कारण है कि उनकी सोच में समय के साथ कुछ बदलाव भी दिखते हैं परंतु, उनकी मूल विचारधारा में जैसे सत्य, अहिंसा, नैतिकता, धर्म, ईश्वर में अटूट विश्वास आदि में कभी कोई परिवर्तन नहीं दिखा।
समय के साथ विश्वास और भी दृढ़ होता दिखता है। उनका स्पष्ट मानना रहा कि जीवन के मूल-तत्व में कभी परिवर्तन नहीं होना चाहिए जबकि, आवश्यकतानुसार उसके प्रयोग के लिए स्वरूप को कुछ परिवर्तित भी किया जा सकता है अगर, वह समाज के लिए अधिक हितकारी लगे। किसी भी व्यक्ति कि सोच उसकी व्यक्तिगत परिस्थिति और सामाजिक परिस्थिति से निर्धारित होती है गाँधी भी इससे अछूते नहीं रहे। जिस काल-खंड में गाँधी का आविर्भाव हुआ उस दौर में न सिर्फ भारत बल्कि वैश्विक स्तर पर भी जो घटनाएँ हो रही थी उसका प्रभाव उनपर न पड़े यह संभव नहीं था।
भारत उस समय रूढ़िवाद की पाश में जकड़ा हुआ एक गुलाम देश था जबकि वैश्विक स्तर पर प्रगतिशील विचारधारा का प्रसार हो रहा था। एक तरफ सनातनी हिन्दू परिवार में जन्म और परवरिश के कारण कुछ हद तक वे रूढ़िवादी थे तो लंदन और अफ्रीका प्रवास के दौरान यूरोपियन सभ्यता को करीब से जीने का अनुभव था। साथ ही विदेशी लेखकों का प्रभाव उन्हें प्रगतिशील भी बना दिया। यही कारण है कि कभी-कभी उनकी बातों में विरोधाभास भी दिख जाता है।
गाँधी का दर्शन जितना राजनैतिक, धार्मिक और नैतिक रहा है उतना ही पारंपरिक और आधुनिक भी, क्योंकि इस दर्शन का विकास सनातनी संस्कृति, भगवतगीता, जैन धर्म, बोद्ध धर्म, बाइबिल, गोपाल कृशन गोखले, टालस्टोय, जॉन रस्किन आदि के प्रभाव से हुआ। टलस्टोय की पुस्तक “द किंगडम ऑफ गोद इज विदीन यू” और रस्किन की पुस्तक “अंटू द लास्ट” (जिससे उन्होने सर्वोदय के सिद्धान्त को लिया) का भी काफी प्रभाव पड़ा।
गांधीजी ने आजादी की लड़ाई के साथ-साथ ही हिन्दू मुस्लिम एकता, छुआछूत उन्मूलन, चरखा एवं खादी को बढ़ावा, ग्राम स्वराज, प्राथमिक शिक्षा एवं पारंपरिक उद्योगों और चिकित्सा-पद्धति पर अत्यधिक बल देते हुए विश्व बंधुत्व के बड़े पक्षधर रहे। उन्होने वैश्विक अशांति के परिणामों को देखा था जो मानवतावाद की प्रगति में बड़ी बाधा बन रही थी। सत्य के साथ प्रयोग करते-करते उनका यह विश्वास अटल हो गया था कि मानवता की मुक्ति का रास्ता सत्य में है और अगर मनुष्य का संघर्ष सत्य के लिए है तो हिंसा का उपयोग किए बिना भी उसकी विजय सुनिश्चित है।
वर्तमान परिदृश्य में अगर हम देखें तो एक ओर जहां कोविड-19 कि गंभीरता ने सम्पूर्ण विश्व को हताश और बेहाल कर रखा है, जो न सिर्फ आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ा रहा है बल्कि, व्यक्तिगत तौर पर समाज की सुरक्षा और भविष्य पर प्रश्न खड़ा कर दिया है। दूसरी तरफ बढ़त बाजारवाद के प्रभाव ने पूरे विश्व को अपने गिरफ्त में ले रखा है। स्वभावतः लालच की परिणति युद्ध के रूप में ही होती है फलतः विश्व शांति और बंधुत्व को अक्षुण्य रखान कठिन हो चला है।
आर्थिक आधार समाज में इतने अंदर तक पैठ जमा चुका है कि मानवता और इंसानियत लगभग खो सी गयी है। माहिलाओं और अल्पसंख्यकों पर बढ़ती अपराध की घटनाएँ मानवीय मूल्यों का दिन-प्रतिदिन क्षरण कर रही है। आज समाज में कल्याणकारी आदर्शों का स्थान असत्य, अवसरवाद, धोखा, चालाकी, लालच, स्वार्थपरता जैसे संकीर्ण विचारों ने ले लिया है जबकि प्रेम, भाईचारा, मानवता और सहिष्णुता जैसे उच्च आदर्श विश्मृत होते जा रहे हैं। इस दौर में हमें गाँधी की बातें अनायास ही अधिक प्रासंगिक लगने लगी हैं क्योंकि, उसमें भविष्य कि उज्ज्वल संभावनाएँ प्रतिबिम्बित होती दिख रही है।
गाँधी सदैव सत्य के पालन पर ज़ोर दिया करते थे अगर हम और हमारे नेतागण अपने कार्यों के पालन में सत्य का पालन करें, बुरे, अनैतिक और गलत कर्मों को त्यागने प्रयास करें जो आज सर्वव्याप्त है तो स्वाभाविक है कि समाज नवनिर्माण कि ओर अग्रसर हो जाएगा। अहिंसा उनका प्रिय हथियार रहा है वे मन, वचन, कर्म तीनों तरह कि हिंसा का विरोध करते आए हैं क्योंकि, उनका उद्देश्य अहिंसा से हृदय परिवर्तन करना रहा है। आज जिस तरह चीन, अमेरिका, उत्तर कोरिया, रूस इत्यादि देश विश्व शक्ति बनने के और अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए युद्धोन्मादी हो चुके हैं, इस वक्त ऐसी विचारधारा को पोषित-पल्लववित किया जाए जिससे विश्व बंधुत्व और मानवतावाद कि भी रक्षा हो सके।
गांधीजी सत्याग्रही रहे हैं उनका सदैव मानना रहा है कि आत्मिक शक्ति का प्रभाव शारीरिक शक्ति से अधिक होता है। वे सभी तरह के अन्याय, शोषण एवं उत्पीड़न का विरोध करते रहे हैं। यह व्यक्तिगत पीड़ा सह कर दूसरों के अधिकारों को सुरक्षित रखने एवं दूसरों को चोट न पहुँचाने की विधि है। आज के समय में व्यक्तिगत, राजनैतिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय नीतियों और आदेशों के मतभेद कि स्थिति में विरोध का यह एक बेहतर विकल्प बन सकता है।
आज के दौर में पूरा विश्व एक ऐसे समाज कि खोज में है जहां जाती, धर्म, वर्ग आदि का कोई स्थान न हो। कहीं शिया-सुन्नी तो कहीं रोहिङ्ग्या,कही दलित, महिला, अल्पसंख्यक उत्पीड़न जैसी घटना आम चुकी है। इन सबसे मुक्त होने के लिए उनकी “सर्वोदय” की विचारधारा को समाज में अपनाए जाने की अधिक आवश्यकता है जो इसी तरह कि संकल्पना पर आधारित है। जिससे एक धर्मविहीन और शोषणविहीन समाज का निर्माण किया जा सके जो सिर्फ मानवता से युक्त हो।
अमीरी और गरीबी के बढ़ते अंतर के दुष्चक्र में फंसा ये समाज जहां कुछ ही अमीरों के पास अधिकतम दौलत आ गयी और गरीब और भी गरीब होते जा रहे हैं, ऐसी स्थिति में उनका “ट्रस्टिशिप” का सिद्धान्त अत्यंत प्रभावी हो सकता है, जिसमे अमीरों से कुछ भाग लेकर उसे गरीबों को दे दिया जाए जिससे न तो अमीर ही दुखी हों न गरीब ही दुखी रहें। आज हम देख रहे हैं कि अनेक चाइरिटेबल संस्थाएँ बड़े-बड़े उद्योगपतियों के द्वारा चलायी जा रहीं है और ये अच्छा काम भी कर रही है इन्हें और व्यापक रूप में बढ़ाए जाने की आवश्यकता है। गाँधी सदैव ही ग्राम-स्वराज की बात करते थे जिससे सत्ता का विकेन्द्रीकरण हो साथ ही वे ‘लघु एवं कुटीर उद्योग’ के भी पुरजोर हिमायती रहे हैं। आज “कौशल विकास योजना” और “आत्मनिर्भर भारत” जैसी योजनाएँ और इनका उल्लेखनीय प्रभाव उनकी बातों को सही सिद्ध कर रहा है। सत्ता के विकेन्द्रीकरण का पंचायती-राज की स्थापना जैसे कदम साबित कर रहे हैं कि उनमें आने वाले कल को देखने की क्षमता अधिक रही थी।
गाँधी का राष्ट्रवाद अत्यंत प्रगतिशील था जो “वसुधेव कुटुंबकम” के विचार से प्रेरित था, आज के राष्ट्रवाद के अतिवादी स्वरूप को देखते हुए कहा जा सकता है कि गाँधी का राष्ट्रवाद ज्यादा सटीक है। हम पाते हैं कि गाँधी के विचार शाश्वत है, इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह था कि वे जमीनी तौर पर अपने विचारों का परीक्षण करते रहते थे और उसमें जो कठिनाई आती थी उसका व्यावहारिक हल दिया करते थे। उनकी विचारधारा कोरी-किताबी आदर्शवादी न होकर यथार्थवादी और व्यावहारिक रही है। यही कारण है कि समय का चाहे कोई भी दौर क्यों न रहे गाँधी कि प्रासंगिकता समय के साथ और भी बढ़ती जाएगी।