15 से 17 जुलाई के बीच मैं खजुराहो में था। यहां चंदेल राजाओं ने अतीव सुंदर मंदिरों का निर्माण करवाया है। आप कहेंगे कि इस स्थान का कौए और कान से क्या संबंध। लेकिन यह संबंध है। खजुराहो का संबंध तो मुझे डेनियल काह्नमैन से भी दिखता है जो हमारे मस्तिष्क को सिस्टम-1 और सिस्टम-2 में बांटकर देखता है। हम कैसे सोचते हैं और किस प्रकार बिना जांचे-परखे धारणाएं बना लेते हैं, यह समझने में खजुराहो बहुत ही प्रासंगिक है।
लगभग पांच-छः महीना पहले ही यह तय हो गया था कि भारत विकास संगम की वार्षिक बैठक खजुराहो में होगी। मुझे भी इसमें आने के लिए कहा गया था लेकिन मैं बहुत इच्छुक नहीं था। वर्ष 2022 के शुरुआती महीनों में मेरा मन तिरहुतीपुर नहीं लौट पाने के कारण व्यथित था। मुझे लगता था कि इन बैठकों में जाने से मेरा फोकस बिगड़ जाएगा और मैं फिर पुरानी चीजों में उलझ जाऊंगा। लेकिन बेंगलुरु से लौटने के बाद मेरी सोच बदल गई थी।
अब मैं लोगों से मिलने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहता था। राष्ट्रीय स्वाभिमान के लोगों से बेंगलुरु में मुलाकात हो गई थी, अब भारत विकास संगम के लोगों से मिलने की बारी थी। सच कहूं तो जुलाई में मेरी सोच दक्षिण भारत के उन तीर्थयात्रियों जैसी हो गई थी जो आज से सौ साल पहले केदारनाथ धाम की पैदल यात्रा पर निकलते थे। पता नहीं कब लौटें, लौटें भी या न लौटें, यह सोचते हुए वे अपने सभी सगे-संबंधियों से मिलकर निकलते थे। कुछ उसी तरह मुझे भी लग रहा था कि अपने सभी परिचित लोगों से मिल लूं क्योंकि एक बार तिरहुतीपुर पहुंचने के बाद वहां से जल्दी बाहर निकलना संभव नहीं होगा।
खजुराहो बैठक की मेजबानी हमारे युवा साथी श्री अनिल द्विवेदी जी कर रहे थे। वे मूलतः खजुराहो के ही रहने वाले हैं। दिल्ली में भी उनका निवास है। वे जर्मन भाषा के अच्छे जानकार हैं और अंतरराष्ट्रीय पर्यटन व्यवसाय पर उनकी अच्छी-खासी पकड़ है। हमारा परिचय एक साल पहले कानपुर में हुआ था लेकिन हमारी दोस्ती बहुत दूर सेडम (कर्नाटक) में हुई जहां वे भी मेरे साथ एक कार्यक्रम में गए थे।
अनिल जी के आग्रह पर मैं एक दिन पहले ही खजुराहो पहुंच गया था। साथ में श्रीमती जी भी थीं। सामान्यतः वह बैठकों वाली मेरी यात्राओं से दूर रहती हैं, लेकिन इस बार वे साथ चलने को तैयार हो गई थीं। उनके इस हृदय परिवर्तन से मैं खुश था। 15 जुलाई को जब हम सुबह-सुबह खजुराहो पहुंचे तो मेरे बनारस के मित्र अवधेश दीक्षित भी वहां मौजूद थे। धरोहर स्थलों में उनकी विशेष रुचि है, इसलिए वे एक दिन पहले आकर खजुराहो को अच्छे से देखना चाहते थे।
सुबह नाश्ते पर जब अनिल जी से चर्चा शुरू हुई तो उनका दर्द छलक उठा। उन्होंने बताया कि खजुराहो चंदेलों की धार्मिक राजधानी थी। यहां के मंदिर हिंदू धर्म की सनातन धारा को समझने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। लेकिन दुर्भाग्य वश विदेशी ही नहीं बल्कि भारतवासी भी खजुराहो को कामक्रीड़ा वाली मुर्तियों के कारण ही जानते हैं और इसीलिए वे यहां आने में संकोच करते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि खजुराहो के मंदिरों में कामक्रीड़ा वाली मूर्तियों के अलावा भी बहुत कुछ है।
जो समस्या खजुराहो की है, उसे समझने के लिए बनारस का उदाहरण उपयोगी है। एक किताब है जिसका नाम है, बनारस-सिटी आफ लाइट। इसकी लेखिका डायना एल एक ने अपनी किताब के शुरू में ही दो छोटे-छोटे अध्याय लिखे हैं। पहला है – सीइंग बनारस थ्रू वेस्टर्न आईज और दूसरा है- सीइंग बनारस थ्रू हिन्दू आईज। लेखिका बताती है कि बनारस में शिवलिंग की अवधारणा से कैसे इसाई लोग विचलित हो जाते थे। उन्हें सब अश्लील, अनैतिक और अटपटा लगता था। उनके पास न तो वह दर्शन था और न ही वह जीवन दृष्टि जिससे वे बनारस को समझ पाएं।
खजुराहो में भी यही हुआ। पश्चिम की दुनिया को जब पहली बार खजुराहो के बारे में पता चला तो उसे इन मूर्तियों का औचित्य समझ में नहीं आया। यहां कामक्रीड़ा वाली मूर्तियां मुश्किल से 10 प्रतिशत हैं। लेकिन जाने-अनजाने उन्हीं को खजुराहो की पहचान बना दिया गया। वही पहचान आज भी कायम है। इसी 15 अगस्त को भारत को आजाद हुए 75 साल हो जाएंगे लेकिन क्या वाकई हम मानसिक रूप से आजाद हो पाए हैं, यह सोचने की बात है। विदेशी कह गए कि कौआ कान ले गया तो हम आज भी कौए के पीछे भाग रहे हैं। हमने यह देखने की कोशिश नहीं की, कि क्या वाकई कौआ हमारा कान ले गया है।
हमें स्वयं को याद दिलाने की जरूरत है कि चंदेलों ने ये मंदिर पर्यटकों को लुभाने के लिए नहीं बनाए थे। उनके लिए ये मंदिर आस्था के केन्द्र थे। इन मंदिरों के माध्यम से वे अपनी प्रजा को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का सनातन हिंदू दर्शन समझा रहे थे। वे बता रहे थे कि आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति मनुष्य और पशु दोनों में है और इन मूल प्रवृत्तियों का नियमन करके ही मनुष्य चेतना के उच्चतर धरातल पर पहुंच सकता है। बातें और भी बहुत सारी हैं लेकिन कोई समझना चाहे तब तो…।
खजुराहो में मूल रूप से कुल 85 मंदिर थे जिसमें से अब केवल 25 ही बच पाए हैं। इनमें से मतंगेश्वर महादेव के मंदिर में आज भी पूजा होती है जबकि शेष में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के निर्देश पर पूजा प्रतिबंधित है। हालांकि आज भी कई मंदिरों के गर्भगृह में भगवान की प्रतिमा यथावत् स्थापित है। इन प्रतिमाओं को देखकर आपका सिर स्वयं ही श्रद्धा से झुक जाएगा। 15 तारीख की शाम को अवधेश जी के साथ कई मंदिरों में घूमते हुए मैंने स्वयं यह अनुभव किया।
16 जुलाई को बैठक प्रारंभ होने के पहले अनिल जी ने मतंगेश्वर महादेव के मंदिर में सार्वजनिक पूजा का कार्यक्रम रखा था। उस दिन सुबह-सुबह जब हम मंदिर की सीढ़ियों के पास पहुंचे तब कर्नाटक से आए अग्निहोत्री जी ने अचानक ऊंची आवाज में रुद्राष्टकम् का पाठ करना शुरू कर दिया। उनकी वाणी इतनी ओजस्वी थी कि सभी प्रतिनिधि कुछ पल के लिए वहीं रुक गए। सीढ़ियों के पास ही मंदिर के पुजारी जी भी मौजूद थे। उन्होंने तिलक लगाकर हम सभी को आशीर्वाद दिया। इसके बाद हमने गर्भगृह में जाकर शिवलिंग के दर्शन किए। समय कम था, इसलिए मैं खजुराहो के सभी मंदिरों का दर्शन नहीं कर पाया लेकिन जितना भी कर पाया, उसी में मैं धन्य हो गया।
मंदिरों में घूमने और बैठकों में भाग लेने के अलावा जो समय मिला, उसे मैंने लोगों से मिलने-जुलने में खर्च किया। राजस्थान के लक्ष्मण सिंह जी अपने सुपुत्र प्रताप के साथ मेरे कमरे में ही रुके थे, इसलिए उनसे जी भर कर बात हुई। लापोड़िया गांव में उन्होंने जो चमत्कार किया है, उसमें मुझे सीखने के लिए बहुत कुछ है। सच कहें तो भारत विकास संगम में जितने लोग आए थे, सभी के पास मुझे सिखाने के लिए कुछ न कुछ था।
भारत विकास संगम रचनाधर्मी लोगों का मंच है। इससे जुड़े लोग निःस्वार्थ भाव से देश भर में जल, जंगल, जमीन, जानवर और जनता का काम कर रहे हैं। गोविन्दजी ने ऐसे लोगों को नव देव कहा है और उनकी कर्मभूमि को नवतीर्थ की संज्ञा दी है। मेरी इच्छा है कि जैसे हिंदुओं के तमाम देवी-देवता और उनके तीर्थ अपने-अपने मूल धाम के साथ काशी में भी विराजते हैं, वैसे ही इन नवदेवों और नवतीर्थों की झांकी भी एक जगह दिखाई देनी चाहिए। ये जगह क्या तिरहुतीपुर हो सकती है, यही सोचते हुए 17 जुलाई को मैं अपने साथियों के साथ दिल्ली के लिए रवाना हो गया।
(विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान।)