ग्रामयुग डायरी: अदृश्य गोरिल्ला


बहुत पहले कभी द्रोणाचार्य ने भी इसी तरह का प्रयोग किया था जब उन्होंने धनुष बाण देकर अपने शिष्यों को चिड़िया की आंख भेदने के लिए कहा था। लक्ष्य भेदन के समय अर्जुन को केवल चिड़िया की आंख दिखी थी जबकि शेष राजुकमारों को आंख के साथ-साथ पेड़, पत्ती, चिड़िया का रंग, उसकी शक्ल सूरत और न जाने क्या-क्या दिखा था।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

मार्च का महीना आडिटिंग का महीना होता है। बिजनेस की दुनिया में लोग इस समय अपना हिसाब-किताब फाइनल करते हैं। पिछले एक साल में क्या कमाया क्या गंवाया, इसे लेकर खूब कसरत होती है। वर्ष 2022 के मार्च महीने में मुझे भी एक आडिटिंग करनी थी, वह भी एक साल की नहीं, बल्कि पूरे पचास साल की। इसी महीने मैंने अपने जीवन का अर्धशतक पूरा किया था। न चाहते हुए भी मन अब तक की बैलेन्स शीट बनाने में लग गया। इस बैलेन्स शीट को बनाने के लिए एकाउन्टैन्सी के किस नियम का प्रयोग करूं, इस पर सोचते-सोचते मेरा ध्यान अनायास ही एक मनोवैज्ञानिक प्रयोग पर चला गया जिसका नाम था- अदृश्य गोरिल्ला।

वर्ष 2010 में एक किताब आई थी जिसका नाम है “द इनविजिबल गोरिल्ला”। इसे Christopher Chabris and Daniel Simons नामक दो लेखकों ने लिखा है। यह किताब एक रिसर्च प्रोजेक्ट पर आधारित है जिसमें दोनों लेखकों ने साबित किया है कि जब हमारा फोकस किसी एक चीज पर बहुत अधिक होता है तब हम उसके साथ चल रही बहुत सी अन्य चीजों को नहीं देख पाते। यह तथ्य अपने आप में नया नहीं है। इसे सभी जानते हैं। लेकिन इसे जिस शानदार तरीके से साबित किया गया, उसकी दुनिया में बड़ी तारीफ हुई। इस प्रयोग के लिए Chabris और Simons को Ignoble Prize दिया गया। यह पुरस्कार किसी ऐसे काम के लिए दिया जाता है जिसे जानकर आदमी पहले हंसे और फिर सोचने के लिए मजबूर हो जाए।

इस प्रयोग में दर्शकों को एक वीडियो दिखाई जाती है जिसमें 6 खिलाड़ी हैं। तीन खिलाड़ी सफेद ड्रेस में हैं और 3 काली ड्रेस में। ये खिलाड़ी स्टेज पर घूमते हुए एक-दूसरे के बीच दो बास्केट बाल पास करते हैं। वीडियो शुरू होने के पहले ही दर्शकों से कहा जाता है कि उन्हें गिनकर यह बताना है कि सफेद ड्रेस वाले खिलाड़ियों ने कितनी बार काली ड्रेस वालों को गेंद पास की। वीडियो खत्म होने पर लोगों को सही उत्तर बताने के साथ-साथ एक सवाल भी पूछा जाता है। प्रयोगकर्ता पूछता है कि क्या खिलाड़ियों के बीच कोई गोरिल्ला की पोशाक पहने हुए आया था? यह सवाल लोगों को अटपटा लगता है और वे पूरे विश्वास के साथ कहते हैं कि नहीं ऐसा कोई नहीं आया था।

हम जिस वीडियो की बात कर रहे हें, वह मात्र 1 मिनट 21 सेकंड की है। इसमें खिलाड़ियों के खेलने का दृश्य 25 सेकंड का है जिसमें से 10 सेकंड तक एक व्यक्ति गोरिल्ला की पोशाक पहन कर उनके बीच चलता है। वह बीच में कुछ समय रुककर स्टेज के बीचो-बीच अपनी छाती ठोंकता है और फिर आराम से चहलकदमी करते हुए बाहर चला जाता है। जब लोगों को वीडियो का रिप्ले दिखाया जाता है तो उन्हें विश्वास ही नहीं होता कि वह इतनी स्पष्ट चीज को भला कैसे देख नहीं पाए।

इस प्रयोग के निष्कर्ष को मनोवैज्ञानिकों ने नाम दिया ‘इनअटेन्शनल ब्लाइंडनेस’। यह प्रयोग कितना प्रभावी है इसे आप अपने कुछ दोस्तों को दिखाकर आजमा सकते हैं। अगर कोई इस प्रयोग से अनजान है तो उसे गोरिल्ला नहीं दिखाई देगा और दिखाई दिया तो वह गेंद पास होने की सही संख्या नहीं गिन पाएगा। आपको आजमाने के लिए इस विडियो का लिंक डायरी के अंत में दिया हुआ है।

बहुत पहले कभी द्रोणाचार्य ने भी इसी तरह का प्रयोग किया था जब उन्होंने धनुष बाण देकर अपने शिष्यों को चिड़िया की आंख भेदने के लिए कहा था। लक्ष्य भेदन के समय अर्जुन को केवल चिड़िया की आंख दिखी थी जबकि शेष राजुकमारों को आंख के साथ-साथ पेड़, पत्ती, चिड़िया का रंग, उसकी शक्ल सूरत और न जाने क्या-क्या दिखा था। इस ‘सलेक्टिव ब्लाइंडनेस’ के लिए द्रोणाचार्य ने अर्जुन की पीठ थपथपाई थी जबकि अन्य राजकुमारों को ऐसा न कर पाने के लिए उलाहना दी थी। इस कहानी का एक और पहलू है। लक्ष्यभेदन के समय अर्जुन को केवल चिड़िया की आंख दिखाई दी लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि चिड़िया की आंख के अलावा किसी और चीज का अस्तित्व ही नहीं है। अगर वे ऐसा करते तो शायद द्रोणाचार्य उनकी पीठ नहीं थपथपाते।

जीवन में हमें जिस चीज की लालसा होती है, कई बार हम उसके पीछे इतने दीवाने होते हैं कि हमें उसके अलावा कुछ दिखाई ही नहीं देता। यहां तक तो ठीक है। ऐसा होना भी चाहिए। दिक्कत तब पैदा होती है जब हम पूरी दुनिया को अपनी दृष्टि में समेट लेते हैं। हम भूल जाते हैं कि हमें जो दिख रहा है, हम जो महसूस कर रहे हैं, हमारी जो मान्यताएं हैं, वे सब एक बहुत बड़ी तस्वीर में एक बिंदु से अधिक नहीं। हम नहीं जानते कि हम कितना नहीं जानते हैं। हमारे गोविन्दजी इसी बात को दूसरे तरीके से कहते हैं। वे कहते हैं कि हमारे हाथ में सच का एक टुकड़ा ही होता है। अगर हमें सच को पूरा देखना है तो दूसरों के पास जो सच है, उसे भी देखना और समझना होगा।

जीवन के शुरूआती 10-15 वर्ष हम अपनी सहज वृत्ति के अनुसार जीते हैं। उसमें विवेक या ‘फ्री विल’ का अंश बहुत कम होता है। हमें एहसास ही नहीं होता कि हमारी दृष्टि के परे भी कोई दुनिया है। धीरे-धीरे हमारा मष्तिष्क विकसित होता है। शिक्षा और संस्कारमय वातावरण से वह और परिष्कृत होता जाता है। हमारा चेतन मन यह जान जाता है कि उसकी दृष्टि और समझ के परे भी दुनिया है। लेकिन अवचेतन स्तर पर अधिकतर लोगों का मन यह मान ही नहीं पाता कि दुनिया उसकी धारणा और समझ से बहुत बड़ी है। अवचेतन मन की इस कमी को ठीक करने के लिए हमारे पुरखों ने योग-जप-ध्यान और सत्संग जैसी कई आध्यात्मिक विधाएं विकसित की थीं। लेकिन दुर्भाग्यवश आज की व्यवस्था में इन्हें लोग भूलते जा रहे हैं।

जब मैं एक पल रुककर अपने अब तक के जीवन की विवेचना करता हूं तो पाता हूं कि मैंने अतीत में कुछ चीजों को इतनी तन्मयता से देखा और जीया है कि उस प्रक्रिया में मुझसे बहुत कुछ छूट गया है। दो-तीन साल पहले तक मुझे यह पता भी नहीं था कि मैं जीवन को समग्रता में नहीं देख पा रहा हूं। लेकिन अब यह एहसास बढ़ रहा है। इसके चलते दूसरे जो देख पा रहे हैं, उसे जानने समझने की ललक बढ़ी है, उसके प्रति सम्मान भी बढ़ा है। इस दृष्टिकोण के कारण मुझे गांव में काम करने में बहुत आसानी हुई है। मुझे अब कोई जाहिल या गंवार नहीं लगता। मुझे लगता है कि उसके पास भी सच का एक टुकड़ा है जो मेरे पास नहीं है।

नवंबर से फरवरी के बीच मैंने देश के कई स्थानों की यात्रा की लेकिन इस दौरान मैं मोटे तौर पर दिल्ली ही रहा। मेरा फ्लैट वसुंधरा गाजियाबाद में है जिसे प्रायः दिल्ली ही मान लिया जाता है। इन चार महीनों में मैं शायद चार बार भी ‘’असली दिल्ली’’ नहीं गया था। दिल्ली के अपने सर्कल में मैंने किसी को बताया भी नहीं था कि मैं उनके पास ही हूं। फोन पर जब लोग पूछते कहां हो तो बोलता कि उत्तर प्रदेश में हूं। लोग सोचते कि मैं तिरहुतीपुर में हूं।

इस गोल-मोल जवाब से मेरा एकांतवास संभव हो पा रहा था। लेकिन मार्च में 50 साल की आडिटिंग करते हुए मुझे लगा कि इस एकांतवास को और खींचना ठीक नहीं क्योंकि इस अवस्था में मुझे सच का वह टुकड़ा नहीं दिखाई देगा जो दूसरों के पास है। इस एहसास के बाद मैंने एक बार फिर दिल्ली से जुड़ने का मन बना लिया – कुछ महीनों के लिए ही सही।

 (विमल कुमार सिंह पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)