ग्रामयुग डायरी: जिंदगी की रफ्तार और भावनाओं की जंजीर


22 से 23 मार्च के बीच संजय जी ने बोधगया में निरंजना-फल्गू पर्व का आयोजन किया था। इसमें बोधगया के बौद्ध मठों के साथ-साथ वहां का प्रबुद्ध समाज मेजबान की भूमिका में था।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

सोलह से बीस मार्च के बीच मैंने जो अनुभव किया, वह अपने आप में विशेष है। इस दौरान मोबाइल फोन न होने के कारण हालात कुछ ऐसे हो गए थे जैसे गाड़ी स्टार्ट करते ही रेडलाइट हो जाए और वह भी एक लंबी रेडलाइट। दिल्ली में रहते हुए मैंने सीखा था कि जब रेडलाइट लंबी हो तो इंजन बंद कर के गाड़ी और शरीर दोनों को रिलैक्स होने का मौका देना चाहिए। मुझे लगा कि जिस शरीर और मन को मैं पिछले तीन महीनों से तेज रफ्तार में दौड़ा रहा हूं, उसे अब कुछ दिन के लिए आराम देना चाहिए। कनेरी की थकान मिटाने का मेरे लिए यह एक सुनहरा मौका था।

बनारस में मैं अपने चाचा जी के यहां रुकता हूं। बदले हुए हालात में मैंने 16 से 20 मार्च के बीच अपना सारा काम-धाम रोक कर परिवार के साथ समय बिताया। अपनी भतीजी श्रीजा के साथ खेलना मेरे लिए एक अलौकिक अनुभव था। सच कहूं तो इस तरह के पल सौभाग्य से मिलते हैं। इससे शरीर और मन दोनों में एक नई स्फूर्ति आती है। मुझे बहुत लंबे समय से इसकी जरूरत थी। मोबाइल फोन गुम होने के बहाने मुझे यह मौका अनायास ही मिल गया था।

पांच दिन की इस बिन मांगी छुट्टी का आनंद उठाने के बाद मैं 21 मार्च को बोधगया के लिए रवाना हो गया। मेरा यह कार्यक्रम बहुत पहले से तय था। यहां मेरे पुराने मित्र संजय सज्जन निरंजना अर्थात फल्गू नदी पर पिछले तीन वर्षों से काम कर रहे हैं। गंगा जी से मिलने वाली यह नदी कभी सदानीरा हुआ करती थी लेकिन अब यह सूख चुकी है। जिस नदी में कुछ दशक पहले तक थोड़ी सी रेत हटाने के बाद पानी निकल आता था, वहां अब जेसीबी से कई फीट खोदने के बाद भी पानी नहीं निकलता है।

यह वही नदी है जिसके तट पर गौतम बुद्ध को बुद्धत्व की प्राप्ति हुई थी। इसी नदी के जल से हिंदू हजारों वर्षों से अपने पितरों का तर्पण करते आए हैं। यह नदी बौद्धों और हिन्दुओं दोनों के लिए पवित्र है। लेकिन आज यह जिस हालत में है, उसे देख तीर्थयात्री निराश होते हैं। सभी नदी में फिर से जल चाहते हैं, लेकिन इसके लिए क्या किया जाए, यह किसी को समझ में नहीं आता।

तीर्थयात्रियों की इस समस्या का समाधान बिहार सरकार ने अपने अंदाज में किया है। उसकी ओर से  312 करोड़ रुपए खर्च करके गया शहर में एक रबर डैम बनवाया गया है। वास्तव में यह नदी में बना एक तालाब है। इसकी लंबाई 411 मीटर और चौड़ाई 95 मीटर है। कंक्रीट की बुनियाद पर बने इस डैम में बरसात और बोरिंग का पानी जमा किया जा रहा है। इस पानी की मदद से अब तीर्थयात्री पितृपक्ष के दौरान आसानी से पिंडदान कर सकते हैं।  बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने जिस रफ्तार के साथ तीर्थयात्रियों की समस्या का का ‘समाधान’ ढूंढा है, उससे लोग ‘अचंभित’ हैं।

लोग ‘अचंभित’ तो संजय सज्जन के संकल्प से भी हैं। जिस निरंजना-फल्गू नदी पर बिहार सरकार ने सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च करके उसके कुछ मीटर इलाके में किसी तरह ठहरा हुआ पानी उपलब्ध करवाया है, संजय उसी नदी के पूरे 235 किमी लंबे प्रवाह क्षेत्र में बहता हुआ पानी उपलब्ध कराना चाहते हैं। इसके लिए संजय के पास न तो आर्थिक संसाधन हैं और न ही तकनीकी विशेषज्ञता। ऐसे में भला वह निरंजना को सदानीरा कैसे बना पाएंगे, यह सवाल कई लोगों के मन में है। लेकिन मेरे मन में ऐसा कोई सवाल नहीं है। मैं जानता हूं कि संजय जी की रफ्तार बड़ी धीमी है किंतु वे सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

22 से 23 मार्च के बीच संजय जी ने बोधगया में निरंजना-फल्गू पर्व का आयोजन किया था। इसमें बोधगया के बौद्ध मठों के साथ-साथ वहां का प्रबुद्ध समाज मेजबान की भूमिका में था। संजय जी ने बड़ी खूबसूरती से सबको निरंजना-फल्गू रीवर रीचार्ज मिशन के मंच पर इकट्ठा कर लिया है। पिछले तीन वर्षों में यह मिशन धीरे-धीरे लेकिन बड़े सधे हुए कदमों से आगे बढ़ रहा है। देश भर से कई समाजसेवी, तकनीकी विशेषज्ञ, उद्यमी और सरकारी अधिकारी इस मिशन से जुड़कर काम कर रहे हैं। संजय जी ने इन सभी को एक धागा बनकर सुंदर सी माला का रूप दे दिया है।

दो दिन के निरंजना-फल्गू पर्व में संजय जी और अन्य वक्ताओं ने कुल मिलाकर वही बात कही जो कनेरी के पंचमहाभूत लोकोत्सव में स्वामी अदृश्य काडसिद्धेश्वर जी ने कही थी। अर्थात जीवनशैली ठीक तो सब ठीक। हमें धीरे-धीरे उस जीवनशैली की ओर बढ़ना होगा जिसमें भूजल के न्यूनतम दोहन और वर्षा जल के अधिकतम संचयन के साथ-साथ प्राकृतिक खेती और सघन वनसंपदा पर खूब जोर दिया जाए। मुझे लगता है कि यदि इस दिशा में सरकार और समाज मिलकर काम करेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब निरंजना-फल्गू फिर से सदानीरा हो जाएगी।

बोधगया के इस कार्यक्रम में तिरहुतीपुर के ग्राम प्रधान शरद सिंह भी आए थे। मिशन तिरहुतीपुर को आगे बढ़ाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है और आगे भी रहेगी। गांव के हालात पर उनसे विस्तार से चर्चा हुई। मेरा मन तो उन्हीं के साथ गांव जाने के लिए कह रहा था लेकिन कुछ कारणवश मैं ऐसा नहीं कर पाय़ा। बोधगया से मुझे एक दिन के लिए बनारस आना पड़ा और फिर वहीं से 25 मार्च को अपने गांव अर्थात तिरहुतीपुर ग्राम पंचायत पहुंचा। वहां मैंने महसूस किया कि ग्रामयुग अभियान के संदर्भ में मेरी रफ्तार धीमी जरूर है किंतु उससे परेशान या निराश होने की जरूरत नहीं।

ग्रामयुग अभियान की रफ्तार के बारे में सोचते हुए मेरा ध्यान एक बार फिर कनेरी चला गया। मुझे लगता है कि इस अभियान में स्वामी जी की बड़ी भूमिका हो सकती है लेकिन कैसे, यह अभी स्पष्ट नहीं है। अभी इस विषय पर मैं बहुत अधिक सोचना भी नहीं चाहता क्योंकि फिलहाल मेरी प्राथमिकता में काशी के धरोहर स्थलों का काम है। 27 मार्च को जब मैं गांव से वापस काशी पहुंचा तो मेरा फोन चालू हो गया था लेकिन धरोहर स्थलों का काम शुरू करने के लिए अभी भी परिस्थितियां अनुकूल नहीं थीं।

बोधगया की तरह मेरा एक और कार्यक्रम बहुत पहले से तय था। इसमें भाग लेने के लिए मुझे 28 और 29 मार्च के बीच बनारस के समीप चुनार (रामबाग) में रहना था। यहां भारत विकास संगम की एक चिंतन बैठक रखी गई थी। देशभर में रचनात्मक क्षेत्र में काम कर रहे जितने लोगों को मैं जानता हूं, उनमें से अधिकतर से मेरा संपर्क भारत विकास संगम के माध्यम से ही हुआ है। के.एन. गोविन्दाचार्य के मार्गदर्शन में देश भर में जो कई संगठन काम कर रहे हैं, उनमें भारत विकास संगम एक बड़ा नाम है।

भारत विकास संगम की बैठक में हिस्सा लेने के बाद मैंने काशी के अपने उन सहयोगियों से संपर्क करना प्रारंभ किया जो धरोहर स्थलों के काम में मेरी मदद करने वाले हैं। मेरी इच्छा है कि अप्रैल बीतते-बीतते यह काम पूरा कर लूं। अप्रैल में मैं बनारस छोड़ कर कहीं नहीं जाना चाहता और न ही किसी कार्यक्रम में हिस्सा लेना चाहता हूं। हालांकि यह सब मेरी इच्छा है, संकल्प या प्रतीज्ञा नहीं। अपने अब तक के अनुभव से मैं सीख चुका हूं कि भविष्य को किसी प्रकार की जंजीर में बांधने से हमें बचना चाहिए। कई बार इसके चलते हमारी रफ्तार बहुत कम हो जाती है और हम जिंदगी की दौड़ में पिछड़ जाते हैं। महाभारत के भीष्म इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं।

(विमल कुमार सिंह ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)