ग्रामयुग डायरी : मेरा भगवान कौन ?


जल्दी ही तिरहुतीपुर में ग्रामयुग का 3 एकड़ में एक परिसर बनने वाला है। यहां ग्रामीणों के शिक्षण, प्रशिक्षण और संस्कार से जुड़ी कई सुविधाएं होंगी। यह परिसर देश भर में ग्रामयुग के विस्तार का बेसकैम्प बनेगा। हमारी इच्छा है कि इसके निर्माण में आपका भी सहयोग हो।


नागरिक न्यूज नागरिक न्यूज
मत-विमत Updated On :

कोर ग्रुप में हुई बातचीत के आलोक में जब मैंने अपने व्यवहार का विश्लेषण किया तो मुझे एक बड़ी कमी के बारे में पता चला। मैंने देखा कि ग्रामयुग अभियान को मैं समाज का काम तो मानता हूं, लेकिन उसके लिए समाज से सीधे-सीधे आर्थिक सहयोग लेने से कतराता हूं। इस काम को बहुत जरूरी मानने के बावजूद अभी तक मैं इस दिशा में कोई ठोस प्रयास नहीं कर पाया हूं। पिछले साल अक्टूबर में इस संबंध में डायरी के माध्यम से कुछ बातें कही थीं, लेकिन उनका कोई फालोअप नहीं हो पाया।

ऐसा क्यों ? यह सोचते-सोचते मेरा ध्यान गांव के उस परिवेश पर चला गया जहां मेरा बचपन बीता है। वहां मैंने अपने बुजुर्गों को बार-बार यह कहते सुना कि भूखे मर जाना लेकिन किसी के आगे हाथ मत फैलाना। स्कूल में गया तो मास्टर जी ने पढ़ाया- रहिमन वे नर मर चुके जो कछु मांगन जाहिं। गांव के परिवेश में मैंने यह भी सीखा कि किसी का एहसान मत लो और ले लो तो उसे जी-जान देकर चुकाओ। इसी का एक दूसरा पहलू भी था। मैंने यह भी सुना था कि अपने अपमान को कभी भूलना नहीं चाहिए। उस समय हमारा हीरो वो होता था जो हर हाल में अपने और अपने परिवार के अपमान का बदला ले।

आज मेरा चेतन मन इन बातों को बहुत महत्व नहीं देता। लेकिन मैंने महसूस किया कि अवचेतन स्तर पर ये बातें कहीं न कहीं आज भी मुझे संचालित करती हैं। औपचारिक रूप से मेरी कार्ययोजना में मान-अपमान, एहसान और याचना आदि से जुड़े भावनात्मक पहलुओं का उल्लेख कहीं नहीं होता, लेकिन जाने-अनजाने वे अपना स्थान बना ही लेती हैं। अब जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो ऐसे कई प्रसंग याद आते हैं जहां बचपन के इन संस्कारों ने मेरे निर्णय को प्रभावित किया था और आज भी कर रहे हैं।

इस पहलू पर ध्यान जाने के बाद मैं अपने अवचेतन मन को समझा रहा था – सामाजिक काम के लिए समाज से मदद मांगना दीनता नहीं है। अगर हमने किसी से मांगा और उसने नहीं दिया तो उससे हमारा अपमान नहीं होता। जिसने दिया उसके प्रति एहसान से दब जाएं और जिसने नहीं दिया उसके प्रति नकारात्मक भाव लिए घूमते रहें, यह भी ठीक नहीं। जो बातें गांव के खास परिवेश में उचित थीं, वे अब ग्रामयुग अभियान के संदर्भ में अप्रासंगिक हो चुकी हैं।

सैद्धांतिक रूप से देखें तो ग्रामयुग अभियान की आर्थिक जरूरतें बिना चंदा मांगे भी पूरी की जा सकती हैं। गांव में उद्यम के द्वारा आवश्यक धन जुटाना बहुत मुश्किल नहीं है। वास्तव में अब तक मेरी सारी कोशिश इसी दिशा में रही है। यह कोशिश आगे भी जारी रहेगी। लेकिन यह सब करते हुए चंदा मांगने का काम भी होते रहना चाहिए। उसमें ढिलाई ठीक नहीं।

उद्यमिता से हमें धन प्राप्त हो जाएगा लेकिन जनता से वह जुड़ाव नहीं होगा जो ग्रामयुग जैसे सामाजिक अभियान के लिए बहुत जरूरी है। चंदा लेने से यह काम सहज रूप से हो जाता है। इससे हमारा अहंकार भी नियंत्रण में रहता है। जीवन में कुछ भी सार्थक करने के लिए इस अहंकार रूपी शत्रु से निपटना बहुत जरूरी है। Ryan Holiday ने अपनी किताब Ego is the Enemy में इस बात को बड़ी खूबसूरती से समझाया है।

इन सब बातों पर विचार करने के बाद मैंने धनसंग्रह की दृष्टि से ग्रामयुग अभियान का एक औपचारिक ब्रोशर तैयार किया। जून के प्रारंभ में ही ब्रोशर छप कर आ गया किंतु मैं उत्साहित नहीं था। मेरा मन अभी भी मान-अपमान के दलदल में फंसा हुआ था। बहुत माथापच्ची के बाद मुझे इससे बाहर निकलने का एक नया आइडिया सूझा।

बता दूं कि मैं आस्तिक व्यक्ति हूं। पूजा-पाठ मैं पूरी आस्था के साथ करता हूं। भगवान से यदा-कदा मांगता भी रहता हूं। मेरी हर विनती भगवान तुरंत मान लेते हों, ऐसा भी नहीं है। लेकिन उनके नहीं मानने से मैं स्वयं को अपमानित महसूस नहीं करता। इससे मन में कोई नाराजगी या निराशा भी पैदा नहीं होती।

भगवान से मांगने वाली बात को याद दिलाते हुए मैंने अपने मन को समझाया कि हमारी परंपरा में जनता को जनार्दन कहा गया है। इसलिए वह दे या न दे, हमें तो समाज के हित में उससे मांगते रहना चाहिए। अगर हमारी बात मान ली गई तो ईश्वर की कृपा और नहीं मानी गई तो उसके लिए कहीं न कहीं हम ही दोषी हैं, यह भाव होना चाहिए।

जनता को भगवान मानकर उससे मांगने की बात मुझे ठीक लगी, हालांकि अभी भी व्यक्ति विशेष से मिलकर मांगने में संकोच था। इसलिए मैंने व्हाट्सऐप के माध्यम से भेजने के लिए एक संदेश लिखा और उसे सुरेश अग्निहोत्री जी के कुछ परिचित लोगों को भेजा। इसके कुछ दिन बाद मैंने एक और संदेश तैयार किया और उसे कोर ग्रुप के सभी सदस्यों को भेजा। अंत में मैंने एक तीसरा संदेश लिखा जो सबके लिए था। यह संदेश इस प्रकार थाः

एक और हां की चाहत

“ मिशन तिरहुतीपुर और ग्रामयुग अभियान को आपने शुरू होते देखा है। आपने हमारे अभियान को हमेशा अपना भावनात्मक सहयोग दिया है। हमारे हर-एक काम में आपकी हां रही है। अब जबकि हमारा अभियान कुछ ही महीनों में दो वर्ष का होने वाला है, हम आपसे एक और हां चाहते हैं।

जल्दी ही तिरहुतीपुर में ग्रामयुग का 3 एकड़ में एक परिसर बनने वाला है। यहां ग्रामीणों के शिक्षण, प्रशिक्षण और संस्कार से जुड़ी कई सुविधाएं होंगी। यह परिसर देश भर में ग्रामयुग के विस्तार का बेसकैम्प बनेगा। हमारी इच्छा है कि इसके निर्माण में आपका भी सहयोग हो।

आपकी सहयोग राशि 11 रुपए होगी या उससे अधिक, यह हमारे लिए बड़ा विषय नहीं है। हमारे लिए बड़ा विषय यह है कि ग्रामयुग परिसर में आप जैसे हजारों नेक लोगों की गाढ़ी कमाई लगे ताकि हम पूरे विश्वास के साथ कह सकें कि यह कुछ गिने-चुने लोगों का नहीं बल्कि आम जनता का परिसर है।

कृपया इस संदेश के जवाब में हां लिखकर अपनी सहमति दें ताकि हम आपको अपना बैंक डिटेल भेज सकें।”

जनता मेरे लिए भगवान 

यह संदेश सबको भेजूं, इसके पहले विचार आया कि क्यों न इसे कुछ चुने हुए लोगों को ही भेजा जाए। शायद एक बार फिर से मैं टाल-मटोल की कोशिश कर रहा था, यह जानते हुए भी मैंने एक सूची तैयार की जिसमें केवल 139 लोग थे। ये सभी मेरे बहुत नजदीकी लोग थे। खूब हिम्मत जुटाकर मैंने 22 जून को इनको संदेश भेजना शुरू किया। लेकिन दो दिन में 30 लोगों को भेजने के बाद मेरी हिम्मत जवाब दे गई। बचपन के संस्कार फिर मेरे ऊपर हावी हो गए और उन्होंने आगे संदेश भेजने से मुझे रोक दिया। मैंने तय किया था कि जिनको संदेश भेजा है, उनसे फोन पर बात भी करूंगा, लेकिन ऐसा भी नहीं कर पाया। मन की उथल-पुथल जब बहुत बढ़ गई तो मैंने पूरे मामले को कुछ दिनों के लिए स्थगित कर दिया।

आज इस डायरी के माध्यम से मैंने एक बार फिर हिम्मत जुटाई है। धीरे-धीरे मैं यह मानने की कोशिश कर रहा हूं कि जनता मेरे लिए भगवान है और उससे आर्थिक सहयोग मांगना मेरा अधिकार और कर्तव्य दोनों है। ग्रामयुग अभियान और मेरी अपनी विश्वसनीयता को नापने और उसे सही दिशा में ले जाने का यह सबसे प्रभावी तरीका है।

मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं किआप सभी मेरे लिए भगवान हैं। आपकी हां हुई तो उसे मैं भगवान की कृपा मानूंगा। अगर हां नहीं हुई तो मैं अपने काम को और बेहतर करूंगा। यही मेरी भक्ति है। मेरी भक्ति में शक्ति हुई तो आप एक न एक दिन हां जरूर कहेंगे, इसका मुझे पूरा विश्वास है।

(विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान)