ग्रामयुग डायरी: संन्यासी का संसार


कोल्हापुर पहुंचकर जब मैंने अपने फ्लैट का दरवाजा खोला तो उसी सुख की अनुभूति हुई जो लंबी यात्रा के बाद अपने घर पहुंचने पर होती है। सच कहूं तो मेरे अब तीन घर हैं। एक तिरहुतीपुर, उत्तर प्रदेश में, दूसरा दिल्ली में और तीसरा कोल्हापुर के इस कनेरी गांव में।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

यह बात 2015 की है, उस समय मैं भारतीय संस्कृति उत्सव की तैयारी के लिए कोल्हापुर में कनेरी मठ पर आया हुआ था। आज की ही तरह पहले भी स्वामी जी मैदान में खड़े होकर काम करवाते थे और साथ ही लोगों से मिलते भी रहते थे। उसी दौरान उनसे मिलने कोई एक पुराना परिचित आया हुआ था। चूंकि वह बहुत दिनों बाद मठ आया था, इसलिए स्वामी जी ने उससे पूछा कि अरे कहां हो, दिखाई नहीं देते आजकल। उत्तर में उस व्यक्ति ने कहा कि स्वामी जी आप ठहरे संन्यासी, लेकिन मैं तो संसारी व्यक्ति हूं। मेरे जिम्मे बहुत काम रहता है। भक्त की इस बात पर टिप्पणी करते हुए स्वामी जी ने उस समय कहा था, “यह बात सही है कि मैं संन्यासी हूं, लेकिन संसार तो मेरा भी है और वह तुम्हारे संसार से छोटा नहीं है।”

निश्चित रूप से स्वामी जी का संसार छोटा नहीं है। आज मठ के अनुयायी देश-दुनिया में हर जगह फैले हुए हैं किंतु इसकी जड़ें मुख्यतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोआ और आंध्र प्रदेश में हैं। इन राज्यों में मठ के लगभग साढ़े तीन सौ उपमठ हैं। यहां ऐसे लाखों परिवार हैं जो कई पीढ़ियों से मठ से जुड़े हुए हैं। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के कई जिलों, जैसे रायगढ़, रत्नागिरि, सिंधुदर्ग में तो लगभग हर गांव में मठ के अनुयायी हैं।

मठ से कई पीढ़ियों से जुड़े लोग स्वामी जी के अनुयायी तो हैं ही, साथ ही वे एक तरह से उनके विस्तृत परिवार के सदस्य भी हैं। स्वामी जी को इस परिवार का मुखिया कहा जा सकता है। लोग हर सुख-दुख में स्वामी जी को शामिल करते हैं और स्वामी जी भी उसमें पूरे मनोयोग से शामिल होते हैं। मुझे 2015 की एक और घटना याद है जब स्वामी जी की कार को रास्ते में एक किसान ने रोक लिया था। स्वामी जी के पूछने पर उसने कहा कि मैंने एक नया ट्रैक्टर लिया है, उसका आपके हाथ से उद्घाटन करवाना है। स्वामी जी तुरंत कार से उतरे, ट्रैक्टर की चाभी ली, उसे स्टार्ट किया, कुछ दूर चलाया और फिर उसे आशीर्वाद देते हुए आगे बढ़ गए।

सिद्धगिरि मठ की एक बड़ी अच्छी परंपरा रही है। यहां के मठाधिपति अपने मठ में बहुत कम रहते थे। साल भर वे दूर-दूर के इलाकों में भ्रमण करते थे। तब न सड़कें थीं और न ही गाड़ियां। उस समय पूरा प्रवास पैदल और बैलगाड़ी से ही होता था। अब स्वामी जी पैदल प्रवास नहीं करते, लेकिन वो जितनी दूरी और जिस आवृत्ति में प्रवास करते हैं, अतीत में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। इसका प्रत्यक्ष अनुभव मुझे इसी महीने एक बार फिर से हुआ। 21 जनवरी की शाम को मैं उनके साथ कोल्हापुर से पुणे के लिए रवाना हुआ। वहां मठ की एक छोटी पीठ है। रात को जब हम 10.30 बजे पुणे पहुंचे तो वहां के कई परिवार स्वामी जी के दर्शन के लिए उपस्थित थे। सबके साथ करीब एक घंटे सत्संग हुआ और फिर अगले दिन सुबह 4 बजे ही हम मुंबई के लिए रवाना हो गए।

हम मुंबई में बाणगंगा नामक स्थान पर जा रहे थे जिसके बारे में मुझे पहले से कोई जानकारी नहीं थी। सुबह 7 बजे जब हमारी कार वहां पहुंची तो मैंने देखा कि यह स्थान एक श्मशान भूमि है जहां कई संतों की समाधियां बनी हैं। मालाबार हिल्स जो मुंबई के सबसे मंहगे इलाकों में शामिल है, उसे समुद्र से बचाने के लिए जो दीवार बनाई गई है, ये समाधियां उस दीवार के पार एकदम समुद्रतट पर बनी हैं। इन्हीं में से एक समाधि है सिद्ध रामेश्वर महाराज की जो स्वामी जी के पितामह गुरु थे। उन्हीं की स्मृति में यहां प्रत्येक वर्ष 22 जनवरी को एक कार्यक्रम होता है जिसमें स्वामी जी हर हालत में शामिल होते हैं।

सिद्ध रामेश्वर महाराज की समाधि के साथ ही उनके एक प्रमुख शिष्य निसर्गदत्त महाराज की भी समाधि है। इनकी एक किताब है जिसका नाम है अहं ब्रह्मस्मि जिसका अंग्रेजी संस्करण ‘आई ऐम दैट’ के नाम से उपलब्ध है। इस किताब ने आध्यात्म की दुनिया को कुछ हद तक समझने में मेरी बहुत मदद की है। अपने इस प्रिय संत और उनके गुरु की समाधि पर अचानक पहुंचकर मुझे बहुत अच्छा लग रहा था।

समाधि वाला कार्यक्रम लगभग दो घंटे चला होगा। उसके बाद हम कनेरी मठ के प्रबंधन में चल रहे एक मंदिर की ओर चल दिए जो मुंबई के उपनगर गोरेगांव में स्थित है। यहां एक मीटिंग होनी थी जिसमें शामलि होना मेरा मुख्य एजेंडा था। मुंबई में मठ से जुड़े परिवारों के 100 से अधिक विभाग बने हैं। इस मीटिंग में सभी विभाग प्रमुखों को मेरी पहल पर बुलाया गया था। प्रथम दृष्टि में इस मीटिंग का उद्देश्य आगामी पंचमहाभूत सम्मेलन के लिए कार्यकर्ता ढूंढना था किंतु दीर्घकालीन दृष्टि से कहूं तो मैं यहां स्वामी जी के स्टाफ आफिस की संभावना भी तलाश रहा था।

मेरी मीटिंग दोपहर 3 बजे समाप्त हो गई। उसके बाद शाम को 7 से 9 बजे तक स्वामी जी का प्रवचन था जिसमें हजारों लोग शामिल हुए। इनमें से अधिकतर वही लोग थे जो कई पीढ़ियों से मठ से जुड़े हैं। 22 जनवरी को रविवार होने के कारण लोगों की संख्या सामान्य से अधिक थी। इस कार्यक्रम का स्वरूप धार्मिक था लेकिन वास्तव में मुझे यह एक सामाजिक या पारिवारिक कार्यक्रम दिखा। यह एक तरह से सिद्धगिरि परिवार का स्नेह मिलन भी था। इसे देखकर मुझे प्राचीन ऋषियों की गोत्र परंपरा की याद आ गई जहां समाज के विविध वर्गों के लोग एक साथ मिलते थे। गोत्र व्यवस्था की तरह मठ के भक्तों में आज समाज का हर छोटा-बड़ा आदमी शामिल है। आर्थिक-सामाजिक विषमता के बावजूद यहां लोगों में कोई दूरी नहीं बल्कि एक सुखद भाईचारा है।

इस भाईचारे को बनाए रखने में स्वामी जी की केन्द्रीय भूमिका रहती है। प्रवचन के पहले और बाद में वह सभी से मिलते और हाल-चाल पूछते हैं। इसी क्रम में उन्हें पता चला कि रत्नागिरि जिले में उनके एक परिवार में सड़क दुर्घटना से कई सदस्यों की मृत्यु हो गई है। 23 जनवरी को स्वामी जी को सुबह-सुबह कोल्हापुर लौटना बहुत जरूरी था, लेकिन यह दुखद समाचार सुनने के बाद उन्होंने तय किया कि वे अब सीधे उस परिवार के लोगों से मिलने जाएंगे।

तय कार्यक्रम के अनुसार हम सुबह साढ़े पांच बजे ही तैयार होकर रत्नागिरी के उस सुदूर गांव के लिए रवाना हो गए। रत्नागिरि जिले के किसी गांव में मैं पहली बार जा रहा था। यात्रा का कारण दुखद था लेकिन कोंकण की समृद्ध वनसंपदा और प्राकृतिक सौंदर्य ने एक तरह से हमारे दुख पर मरहम लगाने का काम किया। कई बार तो ऐसा लगा जैसे मैं महाराष्ट्र में नहीं बल्कि हिमालय के किसी सुरम्य क्षेत्र में यात्रा कर रहा हूं।

मुंबई से रत्नागिरि के उस गांव की यात्रा करते हुए जब शाम को पांच बजे के आसपास मैं कोल्हापुर पहुंचा तो मेरा सिर घूम रहा था। पहाड़ी रास्तों पर ग्यारह घंटे की यात्रा चालक के लिए ही नहीं बल्कि कार में बैठे यात्रियों के लिए भी आसान नहीं होती। दो रात से ड्राइवर सहित हम सभी यात्रियों की कायदे से नींद भी नहीं हुई थी। रास्ते में सभी लोग झपकी ले रहे थे लेकिन हमारे ड्राइवर की प्रशंशा करनी होगी कि उसने बिना झपकी लिए हमें सुरक्षित कोल्हापुर पहुंचा दिया।

कोल्हापुर पहुंचकर जब मैंने अपने फ्लैट का दरवाजा खोला तो उसी सुख की अनुभूति हुई जो लंबी यात्रा के बाद अपने घर पहुंचने पर होती है। सच कहूं तो मेरे अब तीन घर हैं। एक तिरहुतीपुर, उत्तर प्रदेश में, दूसरा दिल्ली में और तीसरा कोल्हापुर के इस कनेरी गांव में। मेरे पहले दो घर गृहस्थों के संसार में हैं जबकि तीसरा घर एक संन्यासी के संसार में है। इसमें किस संसार का मेरे ऊपर कितना प्रभाव होगा, यह तो समय ही बताएगा।

(विमल कुमार सिंह ग्रामयुग अभियान के संयोजक हैं।)