छब्बीस जनवरी 1950 का दिन हमारे देश की यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। इसने हमें आजादी, बराबरी, भाईचारे और इंसाफ के अमूल्य मूल्य दिए। सिवाय हिन्दू राष्ट्रवादियों के, सभी ने नए संविधान का स्वागत किया। हिन्दू राष्ट्रवादियों का मानना था कि भारत के संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है, उसमें उन मूल्यों का समावेश नहीं है जो हमें हमारी पवित्र मनुस्मृति ने हमें दिए हैं। सावरकर का कहना था कि मनुस्मृति ही देश का कानून है।
यह हमारा सौभाग्य है कि उस समय भारत का नेतृत्व प्रगतिशील नेहरु और प्रजातान्त्रिक मूल्यों के पैरोकार अम्बेडकर के हाथों में था और वे हमारे देश को सही दिशा में आगे ले गए। आधुनिक भारत के निर्माता पंडित नेहरु ने यह सुनिश्चित किया कि नए भारत की नीतियां और कार्यक्रम सार्वजनिक क्षेत्र, शिक्षा, वैज्ञानिक शोध और सिंचाई व स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी पर केन्द्रित हों।
हमारे संविधान में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत शामिल हैं और वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना इनका हिस्सा है। भले ही कई कमियों के साथ, मगर वैज्ञानिक सोच को कुछ हद तक बढ़ावा दिया जा रहा था। भारत ने बंटवारे और लाखों हिन्दुओं और मुसलमानों के एक देश से दूसरे देश में पलायन के रूप में एक भयावह त्रासदी भोगी। मगर इसके बावजूद विभाजित भारत ने मूलभूत ज़रूरतों जैसे भोजन, स्वास्थ्य सुविधाओं, शिक्षा और रोज़गार लोगों को मुहैय्या करवाने के लिए काम शुरू किया।
यह भारत के विकास की बुनियाद थी। उस दौर में भी सांप्रदायिक संगठन परदे के पीछे सक्रिय थे और वे समय-समय पर हिंसा भी भड़काते रहते थे। मगर 1980 तक वे देश के सामाजिक-राजनैतिक जीवन के हाशिये पर ही रहे। सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए बेशक प्रयास किये गए। मगर न तो जाति व्यवस्था ख़त्म हुई और ना ही दलितों के खिलाफ पूर्वाग्रह समाप्त हुए।
इसके अलावा, धार्मिक अल्पसंख्यकों, मुख्यतः मुसलमानों और बाद में ईसाईयों के खिलाफ भी दुष्प्रचार किया गया। उनके खिलाफ नफरत फैलाई गई और उन्हें हिंसा का शिकार भी बनाया गया। इन ताकतों ने शाहबानो मामले में लिए गए गलत निर्णय का भरपूर फायदा उठाया। उन्होंने कहा कि सरकार मुसलमानों का तुष्टिकरण कर रही है। मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर पिछड़े वर्गों (ओबीसी) को 26 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इसके बाद हिन्दू राष्ट्रवादियों के असली मंसूबे सामने आए। उन्होंने जोर देकर यह कहना शुरू कर दिया कि बाबरी मस्जिद, राममंदिर को गिरा कर बनाई गई थी अतः उस स्थल पर एक भव्य राममंदिर का निर्माण किया जाना चाहिए।
इस मुद्दे पर बड़े पैमाने पर हिन्दुओं को गोलबंद किया गया। आरएसएस की शाखाओं और उसके साथी संगठनों ने बाबरी मस्जिद के नीचे राममंदिर के गड़े होने की बात इतने जम कर प्रचारित की कि लोगों को उस पर विश्वास हो गया। नतीजे में बाबरी मस्जिद को ढहा दिया गया और फिर मुंबई, भोपाल और सूरत सहित देश के कई हिस्सों में मुसलमानों के खिलाफ जबरदस्त हिंसा भड़काई गई।
इसके बाद गुजरात कत्लेआम (2002) हुआ और फिर कंधमाल (2008), उत्तर प्रदेश (2013) और दिल्ली (2019) में व्यापक सांप्रदायिक हिंसा हुई। ओडिशा के केओंझार में बजरंग दल के राजेंद्र पाल (दारा सिंह) ने ईसाई पादरी फादर ग्राहम स्टेंस को जिंदा जला दिया और फिर कंधामल में बड़े पैमाने पर ईसाई-विरोधी हिंसा भड़काई गई।
अब पवित्र गाय, गौमांस, लव जिहाद और अन्य दर्जनों प्रकार के जिहादों के बहाने से मुसलमानों को डराया-धमकाया जा रहा है। वे डर के साए में जीने पर मजबूर हैं। कई शहरों में मुसलमान अपने-अपने मोहल्लों में सिमट गए हैं। जिन भी इलाकों में सांप्रदायिक हिंसा हुई, वहां अगले चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन पहले से बेहतर रहा। अब ईसाई समुदाय के कुछ तबके भी आतंकित महसूस कर रहे हैं।
एक लम्बे समय से प्रजातान्त्रिक मूल्यों और बहुवाद को कमज़ोर किया जा रहा है। ये हमारे देश की मूल आत्मा हैं। पिछले दस वर्षों के भाजपा के शासन में हालात और ख़राब हुए हैं। इस अवधि में कहने को सरकार एनडीए की थी मगर भाजपा और हिन्दू राष्ट्र का उसका एजेंडा सर्वोपरि रहा। इसी अवधि में सरकारी एजेंसीयों जैसे ईडी, इनकम टैक्स और गुप्तचर संस्थाओं सहित चुनाव आयोग और न्यायपालिका जैसी संवैधानिक संस्थाएं भी हिन्दू दक्षिणपंथ के प्रभाव में आ गईं हैं और इससे हमारे संवैधानिक मूल्यों को अत्यंत गंभीर क्षति पहुंची है।
बढ़ती हुई गरीबी और गहराती आर्थिक असमानता और शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र की बदहाली अत्यंत चिंताजनक है। अल्पसंख्यकों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। मुसलमानों के राजनैतिक प्रतिनिधित्व में ज़बरदस्त गिरावट आयी है। सत्ताधारी भाजपा का एक भी सांसद मुसलमान नहीं है और ना ही केन्द्रीय मंत्रिमंडल में एक भी मुसलमान है। वैज्ञानिक सोच – जो कि संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धांतों का हिस्सा है, को दरकिनार कर दिया गया है। शीर्ष संस्थान एक ‘मास्टर रेस’ बनाने की जुगत में हैं और इसके लिए गर्भ संस्कार आयोजित हो रहे हैं। आईआईटी मद्रास के निदेशक ने गौमूत्र को कई रोगों के लिए रामबाण औषधि बताया है। बाबा, जिनमें से कई राज्य पोषित हैं, हर तरह का ज्ञान बाँट रहे हैं।
अब हमें यह बताया जा रहा है कि भारत को आज़ादी 15 अगस्त 1947 को नहीं बल्कि अयोध्या के राममंदिर में प्राणप्रतिष्ठा के दिन 22 जनवरी 2024 को हासिल हुई थी। यह कहा जा रहा है कि संविधान हमारे सभ्ग्यतागत मूल्यों के अनुरूप नहीं है और पूजा स्थल अधिनियम 1991 जैसे कानूनों को रद्दी की टोकरी में फेंकने की मांग हो रही है। यह अधिनियम कहता है कि पूजा स्थलों का वही स्वरुप बरक़रार रखा जाएगा जो 15 अगस्त 1947 को था।
इस अन्धकार में आशा की किरण कहा हैं? भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा ने हमें कुछ सांत्वना दी है। हमारे देशवासियों के एक बड़े तबके को यह समझ आ रहा है कि जो पार्टी धर्म का इस्तेमाल अपने राजनैतिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए करती है, वह हमारे प्रजातंत्र और हमारे संविधान की दुश्मन है। इसके साथ ही, कई राजनैतिक दल इंडिया गठबंधन बनाने का प्रयास कर रहे हैं।
कुछ सामाजिक समूह सद्भाव और शांति को बढ़ावा देने के लिए अभियान चला रहे हैं। कई सामाजिक समूह। जो आमजनों को उनके अधिकार दिलाने के अभियान में शामिल रहे हैं, एक मंच पर आकर सांप्रदायिक पार्टी और उसके पितृ संगठन द्वारा किये जा रहे दुष्प्रचार के बारे में लोगों को जागरूक कर रहे हैं। वे संवैधानिक नैतिकता के असली अर्थ से लोगों को परिचित करवा रहे हैं। इस बारे में समाज में बढ़ती जागरूकता, संतोष का विषय है। भाईचारे और संविधान के अन्य मूलभूत मूल्यों को बढ़ावा देने के ये अनूहे प्रयास सकारात्मक हैं।
हमारे पड़ोसी देशों ने साम्प्रदायिकता और कट्टरता का सहारा लिया और आज उनकी बुरी गत बन चुकी है। सांप्रदायिक ताकतें हमें उसी दिशा में ले जा रही हैं। आज हमें नए उत्साह के साथ संवैधानिक मूल्यों को मजबूत करते की ज़रुरत है।
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)