जब मीडिया अपना धर्म भूल जाए, तब सोशल मीडिया कैसे निभाए!


लेकिन जो मास है और जिसने चलते-चलते खबर देखने की आदत डाल ली है, वह जाने-अजाने लोकतंत्र से भीड़तंत्र की ओर जा रहा है।



जब मीडिया अपना धर्म भूल जाती है तो जिम्मेदार अराजक हो जाते हैं। मास मीडिया इसमें बहुत उपयोगी साबित हुआ है। इसके जरिए सच या झूठ को बड़ी सहजता से लाखों लोगों के सामने परोसा जा सकता है।

अच्छा इसकी पहुंच के लिए साक्षर होना पहली शर्त नहीं है। जबकि प्रिंट के लिए यह जरूरी है। प्रिंट को रूककर पढ़ना भी कम ही लोग पसंद करते हैं। इस दौर में तो सब चलते-चलते चाहिए।

इस कारण लोगों के सोचने-समझने की क्षमता खत्म हो गई है। वे सही गलत का फैसला नहीं कर पाते। उन्हें जो दिखता है वही सही मान लेते हैं। जो जिम्मेदार है, इसे बखूबी समझते हैं। तभी तो वे जिम्मेदार है। उन्हें जन की नब्ज पता है। बस उसे छेड़ने की देर रहती है। उसका बीपी बढ़ जाता है।

तो उसे कब बढ़ाना है, यह जिम्मेदार तय करते हैं। लेकिन उसके लिए घर-घर नहीं जाते। उसको पकड़ते हैं जिसकी घर-घर तक पहुंच है और फिर ब्रेन वाश का खेल शुरू होता है।

इसमें मीडिया, मास को दिखाने के लिए वही फुटेज चुनती है जिसमें जिम्मेदार नायक दिखे और जो अपने लोकतांत्रिक अधिकार का उपयोग कर रहा है, वह खलनायक दिखे। उसी में जो जिम्मेदार है उनकी जीत है।

लेकिन जो मास है और जिसने चलते-चलते खबर देखने की आदत डाल ली है, वह जाने-अजाने लोकतंत्र से भीड़तंत्र की ओर जा रहा है।

इसलिए उसे रूकना होगा और समझना होगा कि जो मीडिया के विभिन्न मंचों के जरिए मास को परोसा जा रहा है, उसमें सत्यता कितनी है।

वह इसलिए क्योंकि मीडिया, खबर का माध्यम है, ओपिनियन मेकर नहीं। मगर हो उल्टा रहा है, वह खबर बताने के बजाए राय बनाने में जुट गया है।

मीडिया में आए इस बदलाव को समझना होगा। खासकर इसके दर्शको को। पाठकों के लिए भी जरूरी है कि वे जो पढ़ रहे हैं, उसे तोलमोल कर जेहन में उतारे क्योंकि अखबारों में भी बहुत कूड़ा उडेला जा रहा है।

इसलिए उसमें से मोती तलाशने की जिम्मेदारी पाठकों पर ही है। उन्हें इस बात का पता होना चाहिए कि यह जरूरी नहीं कि जो वे देख रहे हैं या सुन रहे हैं या पढ़ रहे हैं, सब सही ही हो।

वह अलग दौर था जब मीडिया मास नहीं था और जिम्मेदार गैर-जिम्मेदार नहीं हुए थे। उस कालखंड में मीडिया अपना धर्म निभाता था। उसमें वही लिखा जाता था जो लोकतंत्र के लिए जरूरी था। तब मीडिया जो ओपिनियन भी बनाती थी, उससे लोकतांत्रिक परंपराओं को बल मिलता था।

अब वह दौर नहीं है। वैसे लोग नहीं है यह तो नहीं कहा जा सकता है, हां कम जरूर हुई है। इसलिए मास को चाहिए कि वह मीडिया में परोसे जाने वाले कंटेट को लेकर सजग रहे। उसकी सजगता ही लोकतंत्र को बजाए रख सकती है।