क्या यह भारतीय विदेश नीति का पराभव काल है ?

अगर पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की चीन नीति से नरेंद्र मोदी की चीन नीति की तुलना करे तो मोदी की चीन नीति पूरी तरह से विफल नजर आती है। हालांकि चीन को लेकर कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कूटनीति भी बहुत स्पष्ट नहीं थी। मनमोहन सरकार भी कहीं न कहीं चीन से भय खाती थी। लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार भविष्य में चीन से आने वाले खतरों को लेकर सावधान थी।

भारतीय विदेश नीति का यह पराभव काल है। चीन तो क्या अब नेपाल भी आंख दिखा रहा है। नेपाल जहां अपने नए राजनीतिक मानचित्र को लेकर भारत से अड़ गया है, वहीं चीन अभी भी लददाख इलाके से निकलने को तैयार नहीं है। पहले सूचना आयी थी कि चीनी सैनिक पीछे हट रहे है। अब खबर आ रही है कि कुछ भारतीय इलाकों में चीनी सैनिक अभी भी मौजूद है। हालांकि भारतीय विदेश नीति को लेकर तमाम अच्छे दावे है। अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शानदार स्वागत पिछले कुछ सालों में हुआ है। 

मुस्लिम देश सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश भारत के नजदीकी दोस्त मोदी काल मे बने है। लेकिन इन बढ़ती नजदीकियों का एक महत्वपूर्ण कारण भारतीय बाजार है। भारत तेल उत्पादों और रक्षा उपकरणों का बड़ा खरीदार है। भारत तेल का बड़ा आयातक देश है जो वर्तमान में प्रति वर्ष लगभग 100 अरब डालर का तेल खरीदता है। आखिर इतने बड़े बाजार को कोई क्यों खोना चाहेगा? वहीं भारत  दुनिया का दूसरा ब़ड़ा हथियार आयातक देश बन चुका है। अमेरिका की नजर इस हथियार बाजार पर है। लेकिन मोदी के कार्यकाल की बड़ी विफलता यह है कि दक्षिण एशिया के देशों में भारत का कद घटा है। इसका ताजा उदाहरण नेपाल के साथ विवाद है। भारत का चीन से तो विवाद लंबे समय से है। लेकिन भारत के प़डोसी बांग्लादेश और श्रीलंका भी चीन के प्रभाव में चले गए है।   

अगर पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी की चीन नीति से नरेंद्र मोदी की चीन नीति की तुलना करे तो मोदी की चीन नीति पूरी तरह से विफल नजर आती है। हालांकि चीन को लेकर कांग्रेसी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की कूटनीति भी बहुत स्पष्ट नहीं थी। मनमोहन सरकार भी कहीं न कहीं चीन से भय खाती थी। लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार भविष्य में चीन से आने वाले खतरों को लेकर सावधान थी। यही कारण था कि मनमोहन सिंह की सरकार ने चीन सीमा के लिए भारतीय सेना में विशेष माउंटेन कार्पस के गठन की मंजूरी दी थी। माउंटेन कार्पस में 90 हजार नए सैनिक भर्ती करने की योजना मनमोहन सिंह ने बनायी थी। इस पर 60 हजार करोड़ रुपए खर्च करने की योजना थी। लेकिन मोदी के कार्यकाल में इस योजना को लेकर सक्रियता नहीं रही। 

पंडित जवाहर लाल नेहरू ने गुटनिरपेक्ष  आंदोलन का नेतृत्व कर भारत की छवि पूरी दुनिया में अलग बनायी थी। नेहरू के कार्यकाल में चीन से बेशक भारत का युद हुआ, लेकिन नेहरू चीन से डरे नहीं। 1962 के युद के बाद ही सिक्किम को भारत में पूरी तरह से शामिल करने की योजना बनायी गई। इंदिरा गांधी की विदेश नीति आक्रमक थी। उनकी चीन नीति की चर्चा भी जरूरी है। 

इंदिरा गांधी की चीन नीति को दो घटनाओं से समझा जा सकता है। सितंबर 1967 में सिक्किम के नाथूला सीमा पर चीनी सैनिकों ने हमला किया। भारत ने जोरदार जवाब दिया। सैकड़ों चीनी सैनिक मारे गए। फिर 1967 में ही सिक्किम सीमा पर एक बाऱ फिर चीनी सैनिकों ने भारतीय इलाके पर हमला किया। लेकिन बुरी तरह से हारे। इसके बाद चीन ने इंदिरा गांधी के कार्यकाल में सीमा पर कोई हंगामा नहीं किया। इंदिरा गांधी ने चीन के परवाह किए बिना सिक्किम को भारत के अधीन कर लिया। इंदिरा गांधी की इस कार्रवाई को पूरी दुनिया ने देखा। चीन देखता रह गया। सिक्किम के राजा को इंदिरा गांधी के सामने सरेंडर करना पड़ा।

आज क्या स्थिति है? चीनी सैनिक लद्दाख इलाके में घुसे हुए है। कुछ भारतीय इलाके से अभी भी हटने का नाम नहीं ले रहे है। खबरें आ रही है कि कुछ इलाकों से चीन हट गया है। कुछ इलाकों में अभी भी बैठा है। चीन लद्दाख में अपनी घुसपैठ को जायज बता रहा है। लद्दाख की कार्रवाई को धारा-370 से जोड़ने की कोशिश कर रहा है। वैसे मोदी सरकार से पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार भी चीन के दबाव में रही। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की विदेश नीति में कई विफलताएं थी। वाजपेयी शांतिदूत बनना चाहते थे। पाकिस्तान से दोस्ती की इच्छा जतायी। बस लेकर लाहौर चले गए। लेकिन पाकिस्तान ने कारगिल वार शुरु कर दिया। अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ही कंधार अपहरण कांड हो गया। तालिबान का अफगानिस्तान में शासन था। भारत को खतरनाक आतंकी छोड़ने पड़े। 

लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार की एक बड़ी गलती चीन की कूटनीति में भी हुई। अटल बिहारी वाजपेयी ने तिब्बत को चीन के अधीन स्वायत क्षेत्र मान लिया। जून-2003 में अटल बिहारी वाजपेयी बतौर प्रधानमंत्री चीन यात्रा पर गए थे। वाजपेयी ने इस यात्रा में तिब्बत ऑटोनोमस रीजन को सिर्फ मान्यता ही नहीं दी, बल्कि चीन को आश्वासन दिया कि भारत की धरती पर तिब्बती लोगों को चीन विरोधी आदोंलन चलाने की अनुमति नहीं मिलेगी। लेकिन वाजपेयी के उदारता के बदले चीन ने भारत को क्या दिया? 

भारत-चीन के बीच वर्षों से चल रहे सीमा विवाद का हल निकालने को चीन आज भी तैयार नहीं है। मोदी वाजपेयी से एक कदम आगे गए। चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत आए। प्रोटोकॉल तोडकर चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग को अहमदाबाद ले जाया गया। उनका शानदार स्वागत अहमदाबाद में हुआ। इसके बाद मोदी और जिनपिंग के बीच वूहान और महाबलिपुरम में दो शिखर वार्ता हुई। लेकिन चीन ने इस शानदार स्वागत का जवाब पहले डोकलाम और अब लद्दाख में दिया है। जब चीनी राष्ट्रपति का अहमदाबाद में शानदार स्वागत हुआ था, उस समय भी चीनी सैनिकों ने भारतीय इलाके में घुसपैठ की थी।

सीतामढ़ी जिले में भारत नेपाल सीमा पर नेपाल आर्मड पुलिस की फायरिंग पहली अप्रिय घटना नहीं है। बिहार नेपाल सीमा पर पिछले कुछ समय से लगातार तनाव है। सीतामढ़ी के अलावा बिहार के मधुबनी, पूर्वी चंपारण और किशनगंज जिले में सीमा पर नेपाली आर्मड पुलिस और भारतीयों के बीच टकराव हुआ है। 16 मई को किशनगंज जिले में सीमा पर फायरिंग की घटना हुई। इसके बाद 17 मई तो रक्सौल के एक ग्रामीण फर नेपाली आर्मड पुलिस ने फायर किया। जिस भारतीय ग्रामीण पर गोली चलायी गई वो सीमा पार कर एलपीजी सिलेंडर लेने गया था। ये घटनाएं साफ बताती है कि नेपाल योजनागत तरीके से सीमा पर तनाव फैला रहा है। वो काफी हद तक भारत को उकसा रहा है। ये घटनाएं साफ संकेत देती है कि नेपाल अब भारत की ताकत की परवाह किए बिना अपनी कार्रवाई को अंजाम दे रहा है। ये भारतीय विदेश नीति की जबरजस्त विफलता है।

वैसे नेपाल से भारत का तनाव समय-समय पर होता रहा है। सच्चाई यह भी है कि चीन की ताकत बढ़ने के बाद नेपाल ने अपनी भारत नीति में बदलाव किया है। नेपाल को लगता है कि दक्षिण एशिया के इलाके में चीन की ताकत काफी बढ़ी है। भारत चीन से टकराव लेने की स्थिति में नहीं है। वैसे में नेपाल आर्थिक लाभ लेने के चक्कर में चीन के साथ नजदीकी बढ़ा रहा है। फिर नेपाल को यह लगता है कि जब भारत खुद ही चीन से सीमा विवाद के बावजूद चीनी राष्ट्रपति के आवाभगत में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है तो फिर नेपाल चीन से क्यों दूरी क्यों बनाए? लगभग यही तर्क श्रीलंका का भी है। 

भारत ने जब श्रीलंका में चीन के निवेश को लेकर चिंता जतायी तो श्रीलंका ने संदेश दिया कि भारत और चीन के बीच गंभीर सीमा विवाद है। इसके बावजूद चीन का निवेश भारत में हो रहा है। चीन के साथ लगातार भारत का व्यापार लगातार बढ रहा है। फिर भारत किस हैसियत से श्रीलंका को  चीन के निवेश को लेकर हिदायतें दे रहा है? दरअसल भारत की विदेश नीति की गंभीर गलतियों ने पड़ोस के मोर्चे पर भारत को कमजोर साबित किया है। नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका चीन के पाले में है। हो सकता है समय बीतने के साथ भूटान भी चीन के पाले में चला जाए।

First Published on: June 15, 2020 10:50 AM
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