पटना के सदाकत आश्रम का सन्देश : कांग्रेस के दिन कब और कैसे बहुरेंगे 

केंद्र में चुनाव हारने का पहला अनुभव कांग्रेस को 1977 में जनता पार्टी की जीत के रूप हुआ। लेकिन कांग्रेस ने जल्दी ही सरकार में वापसी की। इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में 1980 में फिर से कांग्रेस की सरकार बन गई। ऐसा ही 1989 की हार के बाद भी हुआ। दो साल बाद ही चाहे जैसे भी गठबंधन की ही सही कांग्रेस की सरकार वजूद में आ गई।

बिहार विधानसभा के चुनाव भी हो गए, नतीजे भी आ गए और जैसे-तैसे नई सरकार भी वजूद में आ गई। नई सरकार के मुखिया तो वही पुराने ही हैं लेकिन इस बार काम करने की वैसी आजादी नहीं है जैसे पहले हुआ करती थी। साहब मुख्यमंत्री तो जरूर बने हैं पर हाथ बंधे हुए हैं। बहरहाल आज बात न तो सत्तारूढ़ पार्टी की और न सत्तारूढ़ गठबंधन की। यही नहीं, विपक्षी महागठबंधन की भी बात नहीं करना चाहते।

आज बात करनी है तो केवल कांग्रेस की। बिहार की राजधानी पटना में भारत की राजनीति का एक बड़ा केंद्र है जिसका नाम है सदाकत आश्रम। सदाकत आश्रम महात्मा गाँधी के समय से बिहार की कांग्रेस पार्टी का मुख्यालय रहा है। आजादी के आन्दोलनों के कई अध्याय यहाँ लिखे गए और कई अभूतपूर्व निर्णय भी कांग्रेस ने यहाँ लिए। आज यही सदाकत आश्रम कांग्रेस की बेबशी और इतिहास के बुरे दौर को लेकर परेशान है।

प्रसंगवश यह असलियत अब किसी से छिपी नहीं है कि आजकल संभवतः वक़्त के सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। राजनीति में हार जीत तो चलती ही रहती है। पार्टियां चुनाव जीत भी जाती हैं और हार भी जाती हैं। कांग्रेस के सन्दर्भ में बात केवल हार जीत की नहीं है।

कांग्रेस ने अतीत में भी कई बार हार का सामना किया है उसके बाद फिर से उठ कर खडी भी हुई है लेकिन बिहार चुनाव के खराब प्रदर्शन के बाद ऐसा लगता है कि कांग्रेस राजनीति के मैदान में ही नहीं नैतिकता के मैदान में भी खुद को हारा हुआ महसूस करने लगी है।

पार्टी के आला नेता इस कदर निरुत्साहित हो चुके हैं कि उनसे कुछ कहते नहीं बनता है। और अपनों से लेकर बेगानों तक हर कोई कांग्रेस के नेताओं से उनके मुंह सामने और पीठ पीछे कुछ न कुछ ऐसा कह कर चला जाता है जिसे शिष्टाचार की भाषा में सम्मानजनक तो किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता।

बिहार का चुनाव परिणाम सामने आने के बाद से आज तक राष्ट्रीय जनता दल के युवा नेता तेजस्वी यादव ने महागठबंधन में बुरे प्रदर्शन के बावजूद कांग्रेस को लेकर किसी तरह की प्रतिकूल टिपण्णी नहीं की जबकि राजद ने सीटों बंटवारे के को लेकर कांग्रेस के साथ किसी तरह का अन्याय नहीं किया था।

राज्य विधान सभा की 243 सीटों में से 70 पर चुनाव लड़ने का मौका भी कांग्रेस को दिया लेकिन अपने नेताओं की निष्क्रियता के चलते कांग्रेस केवल 19 सीटें ही जीत सकी। जबकि उससे बेहतर प्रदर्शन तो महागठबंधन के घटक दलों के रूप में वाम दालों ने किया जिनके बारे में कहा जाता है कि वो केरल, त्रिपुरा और बंगाल के साथ ही बिहार में भी बड़ी तेजी से अपना आधार खो रहे हैं।

जिस तरह की बातें वाम दलों के बारे में कही जाती हैं उसे देखते हुए और बिहार चुनाव कें कांग्रेस प्रदर्शन की उससे तुलना करने पर कहने को यही बाकी रहता है कि अगर ऐसा है तो कांग्रेस उत्तर प्रदेश के साथ ही बिहार में भी अपना आधार पूरी तरह खो चुकी है।

देश के इन दो बड़े राज्यों के अलावा दक्षिण और पूर्वोत्तर के राज्यों में उसकी कोई हैसियत नहीं रह गई है पश्चिम के महाराष्ट्र-गुजरात और इनसे लगे राजस्थान जैसे राज्यों में यह पार्टी मुकाबला कर पाने भर की स्थिति में ही रह गई है।ओडिशा पहले से ही उसके हाथ से निकल चुका है।

जम्मू-कश्मीर, हिमाचल और हरियाणा में भी सरकार बनाने की हालत में यह पार्टी नहीं है। ऐसी हालत में कहा तो यह भी जाने लगा है कि क्या आने वाले दिनों में भाजपा को टक्कर देने की गरज से देश की कोई भी गैर भाजपा पार्टी कांग्रेस को अपने साथ गठबंधन का हिस्सा भी बनाये रखना चाहेगी या नहीं।

कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी जिसने 6 से अधिक दशक तक इस देश की केन्द्रीय सत्ता और अनेक प्रादेशिक सत्ताओं पर एक छत्र राज किया हो और उसकी आज स्थिति ऐसी हो जाए कि देश की किसी छोटी पार्टी को भी यह सोचना पड़े कि चुनाव में कांग्रेस का साथ लिया भी जाए कि नहीं, यह स्थिति वास्तव में चिंतनीय है और यही उसकी गर्दिशी भी है।

गर्दिश के इसी दौर के चलते ही कांग्रेस ने न केवल बिहार विधानसभा के चुनाव में पहले से भी बुरा प्रदर्शन किया बल्कि उपचुनाव में भी शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। गुजरात और उत्तर प्रदेश समेत एक-दो राज्यों में तो यह उम्मीद की भी जा रही थी कि उपचुनाव कांग्रेस के अनुकूल नहीं रहेंगे लेकिन मध्य प्रदेश विधानसभा की 28 सीट के लिए हुए उपचुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ होने की उम्मीद किसी ने नहीं लगाईं थी।

इसकी एक बड़ी वजह यह भी बताई जा रही थी कि क्योंकि ये सीट पहले भी कांग्रेस के पास ही थीं और अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया नाराज होकर कांग्रेस छोड़ कर भाजपा का दामन नहीं थामते तो यह उप चुनाव होता ही नहीं और इस राज्य में 15 साल बाद सत्ता में वापसी करने वाली कांग्रेस आज भी राज ही कर रही होती।

अब जिस पार्टी में नेताओं को अपनी ही पार्टी की सत्ता रास न आती हो और उनकी ऐसे-वैसी हरकतों से पार्टी की सरकार ही गिर जाए तो इन नेताओं को क्या कहा जाएगा। मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य का कांग्रेस के साथ बगावत करने की वजह भी ऐसे ही पार्टी नेता ही हैं। गनीमत है यह सिलसिला मध्य प्रदेश तक ही सीमित होकर रह गया, कोशिश तो राजस्थान में भी हुई थी लेकिन बगावत करने वाले कांग्रेस नेता सचिन पायलट को जब लगा कि उनसे कहीं चूक हो गई है तो उन्होंने ही अपने बाहर निकले पैर वापस कर लिए। वर्ना आज राजस्थान भी मध्य प्रदेश की तरह एक बार फिर भाजपा के ही कब्जे में होता।

कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस की यह गर्दिश परिस्थितिजन्य नहीं बल्कि नेताकृत जन्य है। इस बात को इतिहास के घटनाक्रमों से आसानी से समझा जा सकता है। राज्यों के चुनाव हारने का अनुभव तो कांग्रेस को तभी से रहा है जबसे इस देश में केन्द्रीय और प्रादेशिक विधानमंडलों के लिए होने वाले चुनाव की लोकतांत्रिक परंपरा की शुरुआत हुई थी। यह सिलसिला आजादी के कुछ साल पहले से शुरू हो गया था। तब बंगाल समेत देश के कई राज्यों में गैर कांग्रेस सरकारों का गठन भी हुआ था और कई विधान मंडलों के चुनाव में कांग्रेस पराजित भी हुई थी।

आजादी के बाद देश के दक्षिण राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियों के उदय के साथ ही गैर कांग्रेस सरकारें वजूद में आईं, लिहाजा राज्यों के स्तर पर कांग्रेस को विपक्ष में बैठने का भी अनुभव भी पहले से रहा है। केंद्र में चुनाव हारने का पहला अनुभव कांग्रेस को 1977 में जनता पार्टी की जीत के रूप हुआ। लेकिन कांग्रेस ने जल्दी ही सरकार में वापसी की। इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में 1980 में फिर से कांग्रेस की सरकार बन गई। ऐसा ही 1989 की हार के बाद भी हुआ। दो साल बाद ही चाहे जैसे भी गठबंधन की ही सही कांग्रेस की सरकार वजूद में आ गई।

एक बार फिर 2004 में कांग्रेस 1996 की हार का बदला चुकता कर सत्ता में वापस आ गई थी लेकिन 2014 के संसदीय चुनाव की हार का जख्म इतना गहरा था कि 2019 तक भी भरा नहीं। इतना ही नहीं इस बीच हुए ज्यादातर विधानसभाओं के चुनाव में भी उसे वांछित सफलता नहीं मिली। किसी तरह मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधान सभाओं के चुनाव में 15 साल बाद कांग्रेस ने विजय हासिल कर सरकार में वापसी भी की।

लेकिन मध्य प्रदेश के कुछ पार्टी नेताओं को यह जीत नागवार गुज़री और उनकी हरकतों की वजह से कांग्रेस को अपनी सरकार का त्याग कर विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ा। किसी राजनीतिक पार्टी के लिए चुनाव हारना उतना बड़ा अपमान नहीं होता जितना बड़ा अपमान जनता का विश्वास खोने से होता है बिहार विधानसभा के ताजा चुनाव के बाद कांग्रेस की स्थिति कुछ-कुछ ऐसी ही हो गई है।

 

First Published on: November 18, 2020 5:56 PM
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