भारत में पंचायतों का इतिहास


मौर्य और गुप्त काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल माना जाता है। मध्यकाल में पंचायत प्रणाली ने गांव जीवन को खुशहाल बनाने का कार्य किया। चोल राजवंश के लेखों से तमिल देश में सभा और समिति के कार्यों का विस्तृत विवरण अग्रहार गांवों के बारे में मिलता है। मुगलकाल में भी गांव जीवन की संस्थाएं सुरक्षित रहीं। ब्रिटिश काल, भारत के गांवों की गुलामी और पंचायत प्रणाली के ह्रास का काल है।



डॉ. चंद्रशेखर प्राण 

भारत में प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय तक, पंचायतों का एक लम्बा इतिहास है, जो अलग-अलग कालों में, अलग-अलग रूपों में विद्यमान रहा है लेकिन उसके मूल्य और गुणधर्म, सभी कालों में समान रूप से व्यवहरित होते रहे हैं। वैदिक काल में पंचायत बहुत सुदृढ़ थी। प्रत्येक गांव एक छोटा स्वायत्त राज्य था। रामायण और महाभारत काल में राज्य, पंचायत की इस सामाजिक व्यवस्था का उपयोग, अपने हितों में भी करने लगा था। ईसा पूर्व छठी शताब्दी से सोलह महाजनपदों के कालखंड तक भारत में पंचायतों की व्यवस्था उत्कृष्ट रूप ले चुकी थी। गणराज्यों का विकास, पंचायत की ही कार्य प्रणाली के आधार पर हुआ था। 

मौर्य और गुप्त काल भारतीय इतिहास का स्वर्ण काल माना जाता है। मध्यकाल में पंचायत प्रणाली ने गांव जीवन को अधिक से अधिक खुशहाल बनाने का कार्य किया। चोल राजवंश के लेखों से तमिल देश में सभा और समिति के कार्यों का विस्तृत विवरण अग्रहार गांवों के बारे में मिलता है। भरहटा शासनकाल में पंचायत के फैसलों पर ब्राह्मण ही नहीं दलितों तक के हस्ताक्षर मिलते हैं।

मुगलकाल में भी गांव जीवन की संस्थाएं सुरक्षित रहीं। ब्रिटिश काल, भारत के गांवों की गुलामी और पंचायत प्रणाली के ह्रास का काल है। व्यापारी बनकर आये अंग्रेजों ने इस प्राचीन एवं लोकप्रिय व्यवस्था पर सबसे अधिक चोट की, जिससे गांव-समाज में टूटन और दरार पड़ गयी। इसका सबसे बड़ा खामियाजा उसकी समृद्धि और आत्मनिर्भरता पर पड़ा। गांव धीरे-धीरे परावलम्बी होने लगे। विपन्नता एवं संवादहीनता के कारण लोकमानस में व्यापक पैमाने पर असंतोष फैलने लगा। 

शोषण और अत्याचार से उपजे असंतोष के कारण ही 1857 की क्रांति हुई। इस क्रांति के बाद भारत की सत्ता ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ब्रिटिश सरकार के हाथ में चली गई। अपनी सत्ता की जड़ों को गहराई तक ले जाने तथा भारतीय के असंतोष को कम करने के लक्ष्य के साथ ब्रिटिश सरकार द्वारा स्थानीय स्वशासन की बात की जाने लगी थी। 

सन् 1870 में लार्ड मेयो का प्रस्ताव, सन 1880 में अकाल आयोग की रिपोर्ट तथा 1882 में लार्ड रिपन का प्रस्ताव, इन सभी में स्थानीय स्वशासन की पुरजोर वकालत की गई। इसके बाद सन 1907 में 5 सदस्यीय शाही विकेन्द्रीकरण आयोग का गठन किया गया। इस आयोग की रिपोर्ट के आधार पर ही अंतत: पूरे देश में पंचायतीराज की नये सिरे से पुनर्स्थापना प्रारम्भ हुई। स्थानीय स्वशासन और विकास के नाम पर, नये स्वशासन का ढांचा तैयार कर पंचायतों को सरकारी तंत्र के अधीन करने का प्रयास किया गया।

वर्ष 1919 में गवर्नमेंट आफ इंडिया एक्ट लागू हुआ, जो माण्टेग्यु- चेम्सफोर्ड के सुझाव पर आधारित था। इस एक्ट के लागू होने के साथ पंचायतों का विषय केन्द्रीय सरकार का न होकर राज्य सरकार का हो गया। इसका लाभ यह हुआ कि सभी प्रदेश सरकारों ने अपने पंचायतीराज एक्ट बनाना शुरू कर दिया। इस तरह 1920 के आसपास ब्रिटिश भारत के सभी प्रांतों में पंचायत सम्बन्धी कानून बन गये और कानूनी पंचायतों का गठन शुरू हो गया।

पंचायतों की पुनर्स्थापना का यह प्रयास प्रकारान्तर से उसकी परम्परा को और अधिक कमजोर करने का प्रयास सिद्ध हुआ। इस काल की यह पंचायत वस्तुत: नौकरशाही की एजेंसी बनकर रह गयी। इनमें न तो पंचायतीराज की मौलिक भावना विकसित हो पायी और न ही यह पंचायतें जन-समुदाय की सामूहिक अभिव्यक्ति का माध्यम बन सकी।

आजादी के बाद महात्मा गाँधी की दृष्टि में पंचायत को ही भारतीय संविधान का आधार बनाना चाहिए था, लेकिन उनकी परिकल्पना का सम्मान संविधान सभा नहीं कर सकी। गलती का अहसास होने पर, पंचायत की व्यवस्था को समयाभाव का बहाना बनाकर नीति निर्देशक तत्वों (अनुच्छेद 40) के मध्य, भारतीय राज्य के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया।

जन-सहभागिता और गांवों के विकास के लिए प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम शुरू किया। जिसके चलते पंचायत परम्परा उपेक्षित हो गई। किन्तु सामुदायिक विकास कार्यक्रम की कमजोर सफलता के कारण लगभग 9 वर्ष के बाद एक बार फिर से पंचायतों का सहारा लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। बलवन्तराय मेहता कमेटी का गठन हुआ, इसके सुझावों के आधार पर नये रूप में पंचायतीराज व्यवस्था की स्थापना हुई लेकिन यह कोशिश बहुत दूर तक नहीं चल पाई। राज्य सरकारों के रहमोकरम पर छोड़ी गई पंचायत मरणासन्न स्थिति में पहुंच गई।

इसके बाद करीब 20 वर्षों तक पंचायत व्यवस्था की चर्चा छिटपुट रूप में या दबे स्वर में कभी-कभार उठती रही। सरकारें तो बदलीं लेकिन व्यवस्थागत परिवर्तन अधूरा ही रहा। राजीव गांधी के आगमन के साथ पंचायतीराज व्यवस्था के पुनरुत्थान का नया अध्याय फिर से प्रारम्भ हुआ। संविधान संशोधन के माध्यम से व्यवस्थागत परिवर्तन करके नये पंचायतीराज का खाका तैयार किया गया। उनके कार्यकाल में तो वह नहीं हो पाया, लेकिन उनके बाद वर्ष 1992 में 73वें संविधान संशोधन के माध्यम से नये पंचायतीराज की स्थापना का प्रयास पुन: प्रारम्भ हो गया। धीरे-धीरे 1994 तक लगभग सभी राज्यों के अधिनियमों में संविधान की मंशा के अनुरूप परिवर्तन किये गये। इसी के साथ भारत के इतिहास में पंचायतीराज का एक नया दौर प्रारम्भ हो गया।

24 अप्रैल इसी नए पंचायतीराज का दिवस है। इसी दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना के ‘आत्मनिर्भरता’ संदेश को राष्ट्रके समक्ष प्रस्तुत किया। साथ ही लोकतंत्र की मजबूती को पंचायत व्यवस्था की मजबूती के साथ जोड़ा। वास्तव में इससे पूर्व देश के सभी राष्ट्र नायकों द्वारा राष्ट्र के निर्माण में ‘पंचायतों’ की भूमिका को ही सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। आजादी के बाद पंडित नेहरू द्वारा विकास के सबसे बड़े संवाहक के रूप में पंचायत की पहचान तो की ही गई साथ ही इसे जनता के लोकतांत्रिक प्रशिक्षण का सबसे बड़ा माध्यम भी माना गया। लोकनायक जयप्रकाश के लिए तो दुनिया में लोकतंत्र का बेहतर रूप ‘सहभागी लोकतंत्र’ का यही प्रत्यक्ष स्वरूप था। लोहिया के चौखंभा राज की परिकल्पना का आधार पंचायत ही थी। 

जब भी जहां भी देश की व्यवस्था लड़खड़ाई, समाधान के रूप में पंचायत ही नजर आई। पंडित दीनदयाल उपाध्याय की भी यही अभिलाषा थी कि यदि पंचायतें संविधान का हिस्सा बन जाएं और उनकी स्वयंभू सत्ता को स्वीकार कर लिया जाए तो इस राष्ट्र के नागरिकों को वास्तविक सत्ता प्राप्त हो जाएगी। जब किसी राष्ट्र नायक द्वारा कुछ नया सृजित करने की इच्छा जगी तब उसे पंचायत का ही सहारा दिखाई पड़ा। राजीव गांधी की दृष्टि में चाहे वह सत्ता को दलालों से मुक्त करना हो या फिर विकास को सही रूप और अर्थ में जमीन तक ले जाना हो, तब एक मात्र साधन पंचायत ही समझ में आई। इसी नाते इसके सही स्वरूप को बनाने और उसकी ताकत को बढ़ाने के लिए सब ने अपने-अपने स्तर से विचार और निर्णय की प्रक्रिया शुरू की थी। 

73वें संविधान संशोधन के द्वारा कमोवेश सबकी आकांक्षा और परिकल्पना का सम्मान तो मिला लेकिन उसका सार्थक और प्रभावी स्वरूप अभी रास्ते में ही अटका है। शायद इसी नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पंचायतों की सशक्तिकरण के साथ लोकतंत्र को सशक्त कर गांव की आत्मनिर्भरता के द्वारा आने वाली चुनौती का सामना करने के लिए देश को तैयार करना चाहते हैं। वैसे ‘राष्ट्रीय ग्राम स्वराज्य अभियान’ के माध्यम से विगत दो वर्षों से पंचायतों के सशक्तीकरण का एक राष्ट्रव्यापी प्रयास शुरु हुआ है। लेकिन गांव की आत्मनिर्भरता और स्वराज्य की दिशा में कुछ खास नहीं हो पाया है। इस नाते गांधी के ग्राम स्वराज्य के बुनियादी सिद्धांतों को एक बार फिर से बदली परिस्थितियों तथा आने वाली चुनौतियों के संदर्भ में नए सिरे से समझने और उसके आधार पर ईमानदार कोशिश के साथ व्यवहार में लाने का है। तभी भारत के जिसपुनर्जागरण की बात की जा रही है, उसका रास्ता आसान होगा। 

ग्राम स्वराज्य के अंतर्गत जिस राजनीतिक सत्ता तथा आर्थिक व्यवस्था के विकेंद्रीकरण की बात की गई है, उसकी प्राप्ति का रास्ता तथा तरीका संविधान सभा की बहसों से लेकर सभी विचारकों और नेताओं के चिंतन और कथन में समय-समय पर दिखाई और सुनाई पड़ता रहा है लेकिन उस दिशा में सार्थक और प्रभावी कदम बहुत कम उठा है। आज उसकी जरूरत सबसे अधिक है। 

संविधान सभा की बहस में गांधी का ग्राम स्वराज्य सिर्फ चर्चा का विषय ही नहीं था बल्कि श्रीमन नारायण अग्रवाल द्वारा 1946 के शुरुआती दौर में संविधान का गांधीवादी ड्राफ्ट भी प्रस्तुत किया गया था। यह अलग बात है कि विभिन्न कमेटियों द्वारा उसे पूरी तरह से नजरअंदाज किया गया। इस ड्राफ्ट में सत्ता और अर्थ दोनों के विकेंद्रीकरण को पूरी तरह ध्यान में रखते हुए भारत की राज्य व्यवस्था का एक लोकग्राही ढांचा ‘पंचायत सरकार’ के रूप में प्रस्तुत किया गया था। इसमें सत्ता का विकेंद्रीकरण नीचे से ऊपर की ओर प्रस्तावित थातथा शिक्षा, न्याय तथा उद्योग जैसे विषयों में गांधी जी के विचारों के अनुरूप नागरिकों की समुचित और संपूर्ण भागीदारी के साथ दायित्व और अधिकार के प्रावधान तय किए गए थे। लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। जयप्रकाश नारायण इसकी आवाज को अपने अंतिम प्रयास तक मुखर किए रहे। ‘राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना’ से लेकर संपूर्ण क्रांति के ‘बिहार घोषणा पत्र’ तक में वे इसी दिशा में अपने को समर्पित करते रहे। ‘सहभागी लोकतंत्र’ की इकाई के रूप में ग्राम पंचायतों को विकसित करने के प्रयास को वे व्यवस्था परिवर्तन के रूप में देखते थे। 

सहभागी लोकतंत्र के रूप में इस व्यवस्था परिवर्तन के लिए वे पंचायती राज को ही आधार बनाने के पक्ष में थे। लेकिन इसके लिए उनकी कुछ शर्ते थी। पहली शर्त व्यापकतम अर्थ में जनता का शिक्षण था तथा दूसरी शर्त संगठित राजनीतिक दलों द्वारा पंचायतों में हस्तक्षेप न करने की थी। इसकी तीसरी शर्त सत्ता का वास्तविक विकेंद्रीकरण था। उनका कहना था कि इसके अभाव में संभव है पंचायती राज का ढांचा खड़ा हो जाए परंतु उसको कोई वास्तविक अधिकार ना मिले। चौथी शर्त पंचायत के हाथ में अपने कुछ साधन अवश्य होने चाहिए। उनके अनुसार यदि राज्य सरकार के हाथ में ही साधनों का नियंत्रण रहेगा तो सत्ता का सही वितरण नहीं है। पांचवी शर्त पंचायतें अपने अधीनस्थ सेवकों पर वास्तविक सत्ता का उपयोग कर सकें तथा वे उसके प्रति पूरी तरह से जवाबदेह हों। छठी और अंतिम शर्त यह थी कि त्रिस्तरीय ढांचे में सबसे नीचे अथवा पहले ढांचे ‘ग्राम पंचायत’ को सबसे अधिक महत्व दिया जाय क्योंकि यही पंचायती राज की बुनियाद है। उनका मानना था कि यदि स्वशासन का कोई ऐसा स्तर है, जहां जनता का पूर्णतम योगदान व्यावहारिक रूप से संभव है तो वह ग्राम स्तर ही है। केवल उसी स्तर पर प्रत्यक्ष लोकतंत्र की प्रक्रिया पर्याप्त रूप से कार्य कर सकती है। 

जयप्रकाश नारायण को अच्छी तरह से यह अनुभव हो गया था कि ऊपर जो 6 शर्ते उन्होंने सच्चे पंचायती राज के लिए रखी हैं, वह केंद्र अथवा राज्य सरकारों के प्रशासनिक निर्णयों द्वारापूरी नहीं हो सकेंगी। इसीलिए वे इस हेतु संविधान में संशोधन की बात 1964 में ही उठाई थी। इसके लिए वे सभी संबंधित पक्षों से निवेदन भी किया था। “मैं यह निवेदन करना चाहूंगा कि यदि आप यह मानते हैं कि पंचायती राज की संस्थाएं अपने-अपने स्तर की सरकारें हैं, और तदनुरूप भारतीय राज्य के दो नहीं पांच अंग हैं तो हमारे संविधान विशेषज्ञों को इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक सोचना चाहिए कि संविधान को कैसे संशोधित किया जाए कि यह विचार उसमें समाविष्ट किया जा सके तथा पंचायती राज को उसमें योग्य स्थान और दर्जा मिले।“

उनके इस निवेदन पर उनके जीवन काल तक कोई सार्थक पहल नहीं हो सकी। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं, इस निवेदन के ठीक 25 साल बाद वर्ष 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा लगभग इन्हीं शर्तों के अनुसार संविधान संशोधन का प्रयास शुरू किया गया।यह प्रयास उनके कार्यकाल में तोपूरा नहीं हो सका,लेकिन बाद में 73वें संविधान संशोधन के द्वारा उसे आकार मिला।

(डॉ. चंद्रशेखर प्राण तीसरी सरकार अभियान के संस्थापक हैं और ग्राम स्वराज्य की स्थापना के लिए काम कर रहे हैं।)

(भाग-3, जारी…)