भारत में किसान क़ानून, आन्दोलन और आम जन


इस क़ानून के प्रति अविश्वास और आशंका की वजह यह बताई जा रही है कि इससे अनुबंधित कृषि समझौते में किसानों का पक्ष कमजोर होगा। वे मोलभाव नहीं कर पाएंगे। बड़ी कंपनियां, निर्यातक, थोक विक्रेता व प्रसंस्करण इकाइयां किसी भी प्रकार के विवाद का लाभ उठाना चाहेंगी। कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा।



किसान आंदोलित है। विगत 26 नवम्बर से दिल्ली के बॉर्डर पर धरना दिए बैठा है। धरने पर किसान अकेला नहीं बैठा है, उसका परिवार भी उसके साथ है। किसान कई दिन के खाने-पीने और सोने के इंतजाम के साथ देश की राजधानी दिल्ली के बॉर्डर पर बैठे हैं। ये किसान केंद्र सरकार से नाराज हैं। नाराजगी की वजह वो तीन कृषि क़ानून हैं जो सितम्बर के महीने में संसद के दोनों सदनों से पास किये गए थे।

इन कानूनों के बारे में सरकार की दलील यह है कि ये क़ानून किसान को फायदा पहुंचाने की गरज से बनाए गए हैं और लम्बे समय से इन कानूनों की जरूरत महसूस की जा रही थी। उधर किसानों का कहना है कि देश के किसी इलाके के किसी भी किसान संगठन ने कभी भी अपने लिए ऐसे किसी क़ानून को बनाने की मांग कभी भी और किसी सरकार से नहीं की थी जो खुद किसान के दमन का कारण बने।

लिहाजा किसान वर्ग की नजर में सितम्बर 2020 में केंद्र सरकार द्वारा बनाए गए किसान क़ानून किसान के लिए अलाभकारी ही नहीं बल्कि घातक भी हैं। किसान नेताओं की बातों पर ही यकीन करें तो ये क़ानून इतने घातक हैं कि एक दिन इन कानूनों की वजह से छोटी जोत के किसानों को अपनी जमीन से ही हाथ भी धोने पड़ सकते हैं ।

किसान और सरकार दोनों ही नए कृषि कानूनों को लेकर परस्पर विरोधी राय रखते हैं, ऐसे यह जान लेना उचित ही होगा कि वास्तव में ये क़ानून हैं क्या और इनसे किसानों को कितना फायदा या नुक्सान है ।इस सम्बन्ध में सबसे पहले बात करते हैं कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य ( संवर्धन व सरलीकरण ) नामक नए क़ानून 2020 की। इस क़ानून के मुताबिक़ किसानों और व्यापारियों को राज्यों में स्थित कृषि उत्पाद बाजार समिति से बाहर भी कृषि उत्पादों की खरीद- बिक्री के अधिकार दिए गए हैं।

इसका उद्देश्य व्यापार व परिवहन लागत को कम करके किसानों के उत्पाद को अधिक मूल्य दिलवाना और ई – ट्रेडिंग के लिए सुविधाजनक तंत्र विकसित करना है। सरकार की बात अपनी जगह है लेकिन किसानों को इस बाबत यह आशंका है कि अगर किसान इस क़ानून के मुताबिक़ अपना उत्पाद सरकारी मंडियों के बाहर बेचेंगे तो राज्यों को राजस्व का नुक्सान होगा । कमीशन एजेंट बेरोजगार हो जायेंगे और न्यूनतम समर्थन मूल्य ( एमएसपी ) आधारित खरीद प्रणाली ख़त्म हो जायेगी। और इसके साथ ही ई-ट्रेडिंग भी बंद हो जायेगी।

किसानों की इस आशंका के विपरीत केंद्र सरकार का स्पष्ट मानना है कि न तो मंडियां बंद होंगी , न ही एमएसपी प्रणाली खत्म होने जा रही है। सरकार की माने तो इस कानून केमाध्यम से किसानों को पुरानी व्यवस्था के साथ ही नए विकल्प भी उपलब्ध कराये जा रहे हैं। ऐसा करने पर किसानों को बिचौलियों से निजात मिलेगी और प्रतिस्पर्धी डिजिटल व्यापार को बढ़ावा मिलने के साथ ही किसानों को अपने उप्पादों की बेहतर कीमत भी मिल पायेगी ।किसान सरकार की इस दलील को व्यावहारिक नहीं मानते उन्हें लगता है कि इससे उनको कम खरीदारों को ही फायदा होगा ।

किसान आन्दोलन का दूसरा बड़ा कारण केंद्र का वह क़ानून है जिसे, “आवश्यक वस्तु (संशोधन) क़ानून-2020 नाम दिया गया है। इस क़ानून के मुताबिक़ अनाज, दलहन, तिलहन, प्याज और आलू आदि वस्तुओं को आवश्यक वस्तुओं की सूची से अलग कर दिया जाना चाहिए। इसके साथ ही इस क़ानून के मुताबिक़ युद्ध जैसी अपवाद स्थितियों को छोड़ कर इन उत्पादों के संग्रह की सीमा तय नहीं की जायेगी।

इस क़ानून को लेकर किसान और आम आदमी के मन में यह आशंका घर कर गई है कि असामान्य परिस्थितियों के लिए तय की गई कीमत की सीमा इतनी अधिक होगी कि उसे हासिल करना आम आदमी के वश में नहीं होगा। बड़ी कंपनियां आवश्यक वस्तुओं का भंडारण करेंगी। यानी कंपनियां किसानों पर शर्तें थोपेंगी, जिससे उत्पादकों को कम कीमत मिलेगी।

इसके विपरीत इस क़ानून का समर्थन करने वालों को ऐसा लगता है कि इस क़ानून के लागू होने से कोल्ड स्टोर व खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में निवेश बढ़ेगा, क्योंकि वे अपनी क्षमता के अनुरूप उत्पादों का भंडारण कर सकेंगे। इससे किसानों की फसल बर्बाद नहीं होगी। फसलों को लेकर किसानों की अनिश्चितता खत्म हो जाएगी।

व्यापारी आलू व प्याज जैसी फसलों की भी ज्यादा खरीद करके उनका कोल्ड स्टोर में भंडारण कर सकेंगे। इससे फसलों की खरीद के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी और किसानों को उनके उत्पादों की उचित कीमत मिल पाएगी। यही नहीं इस क़ानून के समर्थकों की माने तो इसके लागू होने पर कृषि क्षेत्र में निजी व प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा मिलेगा।

कोल्ड स्टोर व खद्यान्न आपूर्ति शृंखला के आधुनिकीकरण में निवेश को प्रोत्साहन मिलेगा। किसानों की फसल बर्बाद नहीं होगी और उन्हें समुचित कीमत मिलेगी। जब सब्जियों की कीमत दोगुनी हो जाएगी या खराब न होने वाले अनाज का मूल्य 50 फीसद बढ़ जाएगा तो सरकार भंडारण की सीमा तय कर देगी। इस प्रकार किसान व खरीदार दोनों को फायदा होगा।

कानूनों की यह नईव्यवस्था लागू होने से पहले किसान अपने उत्पाद की बिक्री कैसे किया करते थे। इस बाबत यह तथ्य भी किसी से छिपा नहीं है कि इससे पहले किसान राज्य सरकार की कृषि उत्पाद बाजार समितियों यानी मंडियों में अपनी फसल बेचा करते थे। इन मंडियों में किसान अपने उत्पाद अधिकृत कमीशन एजेंट के माध्यम से बेचने के लिए मजबूर होते थे । पंजाब व हरियाणा समेत पूरे उत्तर भारत में उन्हें आढ़ती कहा जाता है। सिर्फ बिहार, केरल, मणिपुर, लक्षद्वीप, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह तथा दमन एवं दीव में मंडियां नहीं हैं।

इन मंडियों में कमीशन एजेंट किसानों को उत्पाद बिक्री से मिलने वाली कुल रकम में से 1.5-3 फीसद की कटौती कर लेते हैं । यह कटौती उत्पाद की सफाई, छंटाई व अनाज का ठेका आदि के नाम पर होती है। मंडियां एजेंटों से फीस वसूलती हैं। एफसीआइ समेत अन्य सरकारी एजेंसियां 60 से 90 दिनों यानी दो से तीन महीने तक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के आधार पर किसानों से फसलों की खरीद करती हैं। हालांकि, इस दौरान फसलों की गुणवत्ता भी देखी जाती है। इसके बाद व्यापारी बाजार मूल्य के अनुरूप किसानों से फसलों की खरीद करते हैं।

इस सन्दर्भ में तीसरा और महत्वपूर्ण किसान क़ानून है , कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर करार क़ानून 2020 । इस क़ानून में किये गए प्रावधान के मुताबिक किसानों को कृषि कारोबार करने वाली कंपनियों, प्रसंस्करण इकाइयों, थोक विक्रेताओं, निर्यातकों व संगठित खुदरा विक्रेताओं से सीधे जोड़ना सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। इस व्यवस्था के तहत कृषि उत्पादों का पूर्व में ही दाम तय करके कारोबारियों के साथ करार की सुविधा प्रदान कराने की व्यवस्था की गई है।

इसके साथ ही पांच हेक्टेयर से कम भूमि वाले सीमांत व छोटे किसानों को समूह व अनुबंधित कृषि का लाभ देने की व्यवस्था भी इस नए क़ानून के तहत की गई है। आंकड़ों के मुताबिक़ देश के 86 फीसद किसानों के पास पांच हेक्टेयर से कम जमीन है।इस लिहाज से देखें तो यह क़ानून देश के अधिक तादाद वाले छोटे किसानों के लिए बड़ा फायदेमंद है, लेकिन किसान आन्दोलन से जुड़े नेता ऐसा नहीं मानते।

इस क़ानून के प्रति अविश्वास और आशंका की वजह यह बताई जा रही है कि इससे अनुबंधित कृषि समझौते में किसानों का पक्ष कमजोर होगा। वे मोलभाव नहीं कर पाएंगे। प्रायोजक शायद छोटे व सीमांत किसानों की बड़ी संख्या को देखते हुए उनसे परहेज करें। बड़ी कंपनियां, निर्यातक, थोक विक्रेता व प्रसंस्करण इकाइयां किसी भी प्रकार के विवाद का लाभ उठाना चाहेंगी। कृषि क्षेत्र भी पूंजीपतियों या कॉरपोरेट घरानों के हाथों में चला जाएगा। गौरतलब है कि इस बाबत सरकार पहले भी यह स्पष्ट कर चुकी है कि इस कानून का लाभ देश के 86 फीसद किसानों को मिलेगा।

किसान जब चाहें अनुबंध तोड़ सकते हैं, लेकिन कंपनियां अनुबंध तोड़ती हैं तो उन्हें जुर्माना अदा करना होगा। तय समय सीमा में विवादों का निपटारा होगा। खेत और फसल दोनों का मालिक हर स्थिति में किसान ही रहेगा। इतना ही नहीं सरकार के मुताबिक़ इस क़ानून के लागू होने पर अनुबंधित किसानों को सभी प्रकार के आधुनिक कृषि उपकरण मिल पाएंगे। उत्पाद बेचने के लिए मंडियों या व्यापारियों के चक्कर नहीं लगाने होंगे। खेत में ही उपज की गुणवत्ता जांच, ग्रेडिंग, बैगिंग व परिवहन जैसी सुविधाएं उपलब्ध होंगी। किसान को नियमित और समय पर भुगतान मिल सकेगा।

कृषि क्षेत्र में अनुबंध की व्यवस्था तो पहले भी हुआ करती थी लेकिन अनुबंध की यह नई व्यवस्था से थोड़ा अलग हुआ करती थी। अनुबंध की पुरानी व्यवस्था के तहत यह सब कुछ अलिखित हुआ करता था। तब निर्यात होने लायक आलू, गन्ना, कपास, चाय, कॉफी व फूलों के उत्पादन के लिए ही अनुबंध किया जाता था। कुछ राज्यों ने पहले के कृषि कानून के तहत अनुबंध कृषि के लिए नियम भी बनाए थे।