MSP की राजनीति और पंजाब के किसान


2005 आते आते पंजाब किसान आयोग ने खतरे की घंटी बजा दी। किसान आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष गुरुचरण सिंह ने कैप्टन अमरिन्दर से धान की अग्रिम बुवाई पर रोक लगाने के लिए कहा तो कैप्टन अमरिन्दर ने राजनीतिक आत्महत्या का हवाला देकर किनारा कर लिया। अगले दो तीन सालों में स्थिति और भयावह हो गयी।


संजय तिवारी
मत-विमत Updated On :

2004-05 तक पंजाब में भूजल स्तर खतरनाक स्तर पर गिरने लगा। उस समय भी पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिन्दर थे। पंजाब किसान आयोग ने कैप्टन अमरिन्दर को एक रिपोर्ट दिया कि वो पंजाब में धान की दोहरी रोपाई पर रोक लगा दें। लेकिन कैप्टन अमरिन्दर ने इस प्रस्ताव को मानने से मना कर दिया।

भारत के सबसे असंगठित किसान पंजाब में सबसे अधिक संगठित हैं। कैप्टन अमरिन्दर ने कहा कि पंजाब किसान आयोग की संस्तुति को मानकर मैं राजनीतिक आत्महत्या नहीं कर सकता। हालांकि इसके बाद चुनाव हुए और कैप्टन अमरिन्दर दस साल के लिए सत्ता से बाहर हो गये लेकिन वह प्रस्ताव क्या था जिसे कैप्टन अमरिन्दर अपने लिए राजनीतिक आत्महत्या मान रहे थे?

पंजाब में 2000 से 2005 के बीच भूजल का जो आंकड़ा था वो पंजाब के विनाश की आहट दे रहा था। इस पांच साल की अवधि में भूजल 88 सेन्टीमीटर प्रति वर्ष की दर से नीचे गिर रहा था। भूजल में गिरावट की ये खतरनाक दर पंजाब में खेती के पैटर्न में आये बदलाव के कारण था। नब्बे के दशक में पंजाब में गोविन्दा किस्म की धान रोपाई का चलन बढ़ा जो साठ दिन में तैयार हो जाता था। साठ दिन के कारण इसका बोलचाल में नाम साठा चावल हो गया।

चावल की इस किस्म के साठ दिन में तैयार होने के कारण पंजाब के किसानों ने एक सीजन में दो फसलें पैदा करना शुरु कर दिया। आमतौर पर उत्तर भारत में धान की रोपाई जून/जुलाई में होती है। लेकिन पंजाब के किसान अप्रैल के महीने में ही धान की रोपाई कर देते थे। इसके कारण मध्य गर्मी में धान की फसल लेने के लिए भीषण भूजल का दोहन शुरु हो गया।

2005 आते आते पंजाब किसान आयोग ने खतरे की घंटी बजा दी। किसान आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष गुरुचरण सिंह ने कैप्टन अमरिन्दर से धान की अग्रिम बुवाई पर रोक लगाने के लिए कहा तो कैप्टन अमरिन्दर ने राजनीतिक आत्महत्या का हवाला देकर किनारा कर लिया। अगले दो तीन सालों में स्थिति और भयावह हो गयी।

आखिरकार गुरुचरण सिंह ने एक बार फिर कमर कसी और प्रकाश सिंह बादल को संपर्क किया। प्रकाश सिंह बादल ने तत्काल कानून बनाने से तो मना कर दिया लेकिन उन्होंने कहा कि फिलहाल एक सीजन के लिए वो अध्यादेश लायेंगे। अगर ज्यादा तीव्र प्रतिक्रिया हुई तो वो अध्यादेश निरस्त कर देंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 2008 में धान की अग्रिम बुवाई पर रोक लगा दिया। अब पंजाब में धान की बुवाई कानूनी रूप से दस जून के बाद ही की जा सकती है।

यहां एक महत्वपूर्ण सवाल ये पैदा होता है कि पंजाब के लोग चावल तो खाते नहीं, फिर वो चावल की खेती पर इतना जोर क्यों देते हैं? जवाब है, न्यूनतम समर्थन मूल्य की अर्थनीति। पंजाब का किसान अपने खाने के लिए कुछ भी पैदा नहीं करता। वो अपने लिए गेहूं मध्य प्रदेश से और थोड़ा बहुत अन्य अनाज झारखंड, बिहार, बंगाल से मंगवाता है।

पंजाब के किसान धान की फसल के लिए प्रति एकड़ 75 से 100 किलो फर्टिलाइजर इस्तेमाल करते हैं जो कि राष्ट्रीय औसत 10 किलो से दस गुना अधिक है। इसी तरह आलू की फसल के लिए प्रति एकड़ औसत फर्टिलाइजर उपयोग 15 से 20 किलो है तो पंजाब में 200 किलो है।

2013 में भाभा एटॉमिक रिसर्च सेन्टर ने पंजाब के मालवा रीजन में फर्टिलाइजर के उपयोग पर एक अध्ययन किया था और अध्ययन में पाया गया कि यहां की मिट्टी में यूरेनियम की मात्रा तय सीमा से बहुत ज्यादा है। ऐसा अत्यधिक डीएपी खाद के प्रयोग के कारण पाया गया था।

पंजाब में जहरीली खेती का ये चलन हरित क्रांति और एमएसपी की नीति लेकर आयी। पंजाब परपंरागत रूप से न तो गेहूं पैदा करता था और न ही चावल। मक्का, ज्वार, बाजरा, चना आदि पंजाब की परंपरागत खेती थी लेकिन हरित क्रांति का सबसे ज्यादा जोर पंजाब में चला जहां खेती को नकदी से जोड़ दिया गया।

पंजाब के अलावा हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गेंहू, चावल, गन्ने की खेती का जोर इसलिए बढा क्योंकि इन्हे कैश क्रॉप के तौर पर किया जाता था। सरकार यहां के उत्पादन को खरीदती है और फिर उसी गेहूं चावल को जन वितरण प्रणाली के माध्यम से पूरे देश में वितरित करती है।

मिनिमम सपोर्ट प्राइज (एमएसपी) इसी व्यवस्था से जुड़ी हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए लंबे समय तक महेन्द्र सिंह टिकैत इसलिए नेता बने रहे क्योंकि धरना, आंदोलन और प्रदर्शन करवाकर वो लगातार फसलों की एमएसपी बढ़वाते रहते थे।

अब पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एमएसपी आर्थिक और राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल होता है। इसका दोहरा नुकसान है। एक, इन इलाकों में खेत और पानी पूरी तरह से प्रदूषित हो गये हैं जिसके कारण फसलों के साथ साथ कैंसर की पैदावार भी बढी है तो दूसरा नुकसान ये है कि यही दूषित अन्न राशन कार्ड व्यवस्था के तहत पूरे देश में वितरित किया जाता है।

ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या अगर कोई भूखा है तो अपनी भूख मिटाने के लिए उसे जहर खिला देना चाहिए? नहीं। बिल्कुल नहीं। लेकिन भारत सरकार यही काम करती आयी है। खेत में कंपनियों को घुसाने के लिए ही सही नरेन्द्र मोदी सरकार ने इस व्यवस्था में छेड़छाड़ कर दिया है।

सरकारी तौर पर एमएसपी तो अभी भी जारी रहेगी लेकिन किसान इस दायरे से बाहर जाकर भी अपना अनाज निजी कंपनी, आढ़ती को बेच सकते हैं। पंजाब के किसान मांग कर रहे हैं कि उनका उत्पादन सिर्फ एमएसपी पद्धति से ही खरीदा जाए, इसलिए लांग मार्च करके दिल्ली तक पहुंच गये हैं।

राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के इतर इस मामले का एक पक्ष ये भी है कि संभवत: वहां के किसान समझ गये हैं कि अगर निजी कंपनियों के लिए खेती करेंगे तो फिर वो अत्यधिक उत्पादन नहीं कर पायेंगे क्योंकि कंपनियां ऐसा अनाज क्यों खरीदेंगी जिसकी बाजार में मांग ही न हो?

इसलिए वो सरकारी एमएसपी पर ही जोर दे रही हैं। लेकिन समय आ गया है कि जब पंजाब की खेती को बचाने के लिए पहल किया जाए ताकि पंजाब भी बचे और उसका अनाज खाकर लोगों की जान पर भी न बन आये।

इसके लिए जैविक खेती को भी पंजाब में बढावा देना पड़ेगा और फर्टिलाइजर के उपयोग को हतोत्साहित करना पड़ेगा। तभी पांच नदियों का पंजाब बचेगा और पंजाब की खेती भी, वरना एमएसपी की राजनीति अबोहर से चलनेवाली कैंसर एक्सप्रेस को पंजाब के जिले जिले तक पहुंचा देगा।