भारत छोड़ो आंदोलन डॉ राममनोहर लोहिया का आजादी के बाद के सालों में भी पीछा करता है। भारत छोड़ो आंदोलन में 21 महीने तक भूमिगत भूमिका निभाने के बाद लोहिया को बंबई में 10 मई 1944 को गिरफ्तार किया गया। पहले लाहौर किले में और फिर आगरा में उन्हें कैद रखा गया। दो साल कैद रखने के बाद जून 1946 में लोहिया को छोड़ा गया। इस बीच उनके पिता का निधन हुआ। लेकिन पिता की अन्त्येष्टि के लिए लोहिया ने पैरोल पर जेल से बाहर आना स्वीकार नहीं किया।
लोहिया भारत छोड़ो आंदोलन की पच्चीसवीं सालगिरह पर लिखते हैं, ‘‘नौ अगस्त का दिन जनता की महान घटना है और हमेशा बनी रहेगी। पंद्रह अगस्त राज्य की महान घटना थी। लेकिन अभी तक हम 15 अगस्त को धूमधाम से मनाते हैं क्योंकि उस दिन ब्रिटिश वायसराय माउंटबैटन ने भारत के प्रधानमंत्री के साथ हाथ मिलाया था और क्षतिग्रस्त आजादी देश को दी थी। नौ अगस्त जनता की इस इच्छा की अभिव्यक्ति थी – हमें आजादी चाहिए और हम आजादी लेंगे। हमारे लंबे इतिहास में पहली बार करोड़ों लोगों ने आजादी की अपनी इच्छा जाहिर की। कुछ जगहों पर इसे जोरदार ढंग से प्रकट किया गया।’’
लोहिया रूसी क्रांतिकारी चिंतक लियों ट्राटस्की के हवाले से बताते हैं कि रूस की क्रांति में वहां की एक प्रतिशत जनता ने हिस्सा लिया था, जबकि भारत की अगस्त क्रांति में देश के 20 प्रतिशत लोगों ने हिस्सेदारी की। जाहिर है, लोहिया भारत छोड़ो आंदोलन को सीधे भारतीय जनता की भूमिका, यानि भारतीय जनता की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना के नजरिए से देखते हैं। इस आंदोलन में जनता खुद अपनी नेता थी। आंदोलन में लोहिया की सक्रियता और आंदोलन पर व्यक्त उनके विचारों को इस नजरिए से पढ़ा जा सकता है। उनके उस लंबे पत्र को भी, जो उन्होंने 2 मार्च 1946 को जेल से भारत के वायसराय लार्ड लिनलिथगो को लिखा था।
लोहिया का वह पत्र भारतीय जनता के खिलाफ ब्रिटिश साम्राज्यवाद के क्रूर और षड़यंत्रकारी चरित्र को सामने लाता है। वायसराय ने कांग्रेस नेताओं पर सशस्त्र बगावत की योजना बनाने और आंदोलन में हिस्सा लेने वाली जनता पर हिंसक गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया था। लोहिया ने कहा कि आंदोलन का दमन करते वक्त देश में कई जलियांवाला बाग घटित हुए, लेकिन भारत की जनता ने दैवीय साहस का परिचय देते हुए अपनी आजादी का अहिंसक संघर्ष किया।
लोहिया ने वायसराय के उस बयान को भी गलत बताया जिसमें उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में एक हजार से भी कम लोगों के मारे जाने की बात कही। लोहिया ने वायसराय को कहा कि उन्होंने असलियत में पचास हजार देशभक्तों को मारा है। लोहिया ने पत्र में लिखा, ‘‘श्रीमान लिनलिथगो, मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि यदि हमने सशस्त्र बगावत की योजना बनाई होती, लोगों से हिंसा अपनाने के लिए कहा होता तो आज गांधीजी स्वतंत्र जनता और उसकी सरकार से आपके प्राणदंड को रुकवाने के लिए कोशिश कर रहे होते।” लोहिया जोर देकर वायसराय से कहते हैं, “निहत्थे आम आदमी के इतिहास की शुरुआत 9 अगस्त की भारतीय क्रांति से होती है।’’
भारत छोड़ो आंदोलन सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट टकराहट के लिए भी जाना जाता है। भूमिगत अवस्था के अंतिम महीनों में लोहिया ने अपना लंबा लेख ‘इकोनॉमिक्स आफ्टर मार्क्स’ (मार्क्सोत्तर अर्थशास्त्र) लिखा। लोहिया की जीवनीकार इंदुमति केलकर लिखती हैं, ‘‘भूमिगत जीवन की अस्थिरता, लगातार पीछे पड़ी पुलिस, आंदोलन के भविष्य की चिंता, संदर्भ साहित्य की कमी के बावजूद लोहिया का लिखा प्रस्तुत प्रबंध विश्व भर के आर्थिक विचार और समाजवादी आंदोलन को दी गई बहुत बड़ी देन समझी जाती रही है। अपने प्रबंध में लोहिया ने मार्क्स के अर्थशास्त्र और उसके निष्कर्षों की बहुत ही मौलिक और बिल्कुल नए सिरे से व्याख्या प्रस्तुत की है।’’
इस लेख में लोहिया किसी तरह की पोलेमिक्स में नहीं उलझते। न कम्युनिस्टों के साथ, न ही आंदोलन का विरोध करने वाले अन्य संगठनों और नेताओं के साथ। अलबत्ता, उन्होंने मार्क्सवाद पर एक नई नजर डालने का फैसला किया। उनके विचारों का यह सिलसिला आगे भी चला। 1952 में पचमढ़ी में दिया गया उनका प्रसिद्ध भाषण उनकी उसी चिंतन-प्रक्रिया का परिणाम है।
लोहिया लिखते हैं, ‘‘1942-43 की अवधि में ब्रिटिश सत्ता के विरोध में जो क्रांति आंदोलन चला उस समय समाजवादी जन या तो जेल में बंद थे या पुलिस पीछे पड़ी हुई थी। यह वह समय भी है जब कम्युनिस्टों ने अपने विदेशी मालिकों की हां में हां मिलाते हुए ‘लोकयुद्ध’ का ऐलान किया था। परस्पर विरोधी पड़ने वाली कई असंगतियों से ओतप्रोत मार्क्सवाद के प्रत्यक्ष अनुभवों और दर्शनों से मैं चकरा गया और इसी समय मैंने तय किया कि मार्क्सवाद के सत्यांश की तलाश करूंगा, असत्य को मार्क्सवाद से अलग करूंगा। अर्थशास्त्र, राज्यशास्त्र, इतिहास और दर्शनशास्त्र, मार्क्सवाद के चार प्रमुख आयाम रहे हैं। इनका विश्लेषण करना भी मैंने आवश्यक समझा। परंतु अर्थशास्त्र का विश्लेषण जारी ही था कि मुझे पुलिस पकड़ कर ले गई।’’
लोहिया के अन्य लेखन के साथ इस लेख को भी दमन से जूझने वाली और सतत साम्राज्यवाद विरोधी चेतना से लैस जनता के नजरिए से पढ़ा जा सकता है। दरअसल, लोहिया की समझ में भारत छोड़ो आंदोलन के गर्भ से भारत की स्वतंत्र जनता की सरकार का जन्म होना था।
पच्चीस साल की दूरी से देखने पर लोहिया ने उस आंदोलन की कमजोरी – सतत दृढ़ता की कमी – पर भी अंगुली रखी, ‘‘लेकिन यह इच्छा थोड़े समय तक ही रही लेकिन मजबूत रही। उसमें दीर्घकालिक तीव्रता नहीं थी। जिस दिन हमारा देश दृढ़ इच्छा प्राप्त कर लेगा उस दिन हम विश्व का सामना कर सकेंगे।”
वे आगे लिखते हैं, “बहरहाल, यह 9 अगस्त 1942 की पच्चीसवीं वर्षगांठ है। इसे अच्छे तरीके से मनाया जाना चाहिए। इसकी पचासवीं वर्षगांठ इस प्रकार मनाई जाएगी कि 15 अगस्त भूल जाए, बल्कि 26 जनवरी भी पृष्ठभूमि में चला जाए या उसकी समानता में आए। 26 जनवरी और 9 अगस्त एक ही श्रेणी की घटनाएं हैं। एक ने आजादी की इच्छा की अभिव्यक्ति की और दूसरी ने आजादी के लिए लड़ने का संकल्प दिखाया।’’
एक नेता और चिंतक के रूप में लोहिया आजाद भारत में स्वतंत्र जनता की सरकार के लिए जीवन भर संघर्ष करते रहे। लेकिन न उनके रहते, न उनकी मृत्यु के बाद 9 अगस्त को राष्ट्रीय दिवस का दर्जा मिल पाया। भारत छोड़ो आंदोलन की पचासवीं सालगिरह देखने के लिए लोहिया जिंदा नहीं रहे। पचासवीं सालगिरह 1992 में पड़ी। यह वह साल है जब नई आर्थिक नीतियों के तहत देश के दरवाजे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की लूट के लिए खोल दिए गए, और एक पांच सौ साल पुरानी मस्जिद को ‘राममंदिर आंदोलन’ चला कर ध्वस्त कर दिया गया। तब से लेकर नवउदारवाद और सांप्रदायिक फासीवाद की गिरोहबंदी के बूते भारत का शासक-वर्ग उस जनता का जानी दुश्मन बन गया है जिसने भारत छोड़ो आंदोलन में साम्राज्यवादी शासकों के दमन का सामना करते हुए आजादी का रास्ता प्रशस्त किया था।
(समाजवादी आंदोलन से जुड़े लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला के पूर्व फेलो हैं)