पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को लिखे एक पत्र में कोरोना काल से कैसे बचा जाए, उस पर अपनी सोच जाहिर की गई थी। अपना तजुर्बा बांटा था। उन्होंने कहा था कि केवल कुल संख्या को नहीं देखना चाहिए, बल्कि कितने प्रतिशत आबादी को टीका लग चुका है, इसे देखा जाना चाहिए। उन्होंने ये सुझाव भी दिए कि दवा निर्माताओं के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग के प्रावधान लागू किए जाने चाहिए और राज्यों को टीकाकरण के लिए अग्रिम मोर्चे के लोगों की श्रेणी तय करने में छूट देनी चाहिए, ताकि 45 साल से कम उम्र के ऐसे लोगों को भी टीके लग सकें।
अब सोचने वाली बात यह है कि डॉ. हर्षवर्धन ने जवाब में अपने पत्र में लिखा कि डॉक्टर सिंह, यह दुख पहुंचाने वाली बात है कि एक ओर तो आप ये मानते हैं कि कोरोना से लड़ाई में टीका बहुत अहम है, लेकिन आपकी पार्टी और राज्यों में आपकी पार्टी की सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग ही आपकी राय से सहमत नहीं दिखते हैं।
डॉ. हर्षवर्धन के बोलवचन सुनने के बाद हम यह मान लेते हैं कि डॉ. मनमोहन सिंह और उनकी पार्टी गलत है। महत्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग एक दूसरे से सहमत नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि एक पूर्व प्रधानमंत्री ने एक वर्तमान प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। हम यह भी मान लेते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री को पत्र नहीं लिखना चाहिए था, क्योंकि अब कुर्सी जाने के बाद कौन उनकी बात पर ध्यान देगा और यह सच भी है, लेकिन सवाल यह नहीं कि कुर्सी जाने के बाद वह लिख नहीं सकते, अब चूंकि हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है, इसलिए यहां आम से खास लोगों तक सबको अपनी बात रखने का अधिकार है।
हम सब जानते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री न केवल बहुत पढ़े लिखे इंसान हैं, क्योंकि उनकी किताबें न केवल आक्सफोर्ड में पढ़ाई जाती है, बल्कि वहां के प्रोफेसर्स पढ़ाते वक्त मनमोहन सिंह की तारीफों में कसीदे भी गढ़ते हैं। देश का एक अति सम्माननीय व्यक्ति, जिनके नाम पर लोग कसमें खाते हैं कि वह एक अति ईमानदार इंसान हैं, क्या डॉ. हर्षवर्धन को उनके इस पत्र का जवाब देना चाहिए था। क्या हर्षवर्धन उस कद के हैं। क्या एक वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री को इस तरह से जवाब दिया जा सकता है।
अब देखिए, पूर्व प्रधानमंत्री ने केवल पांच उपाय सुझाये थे, और मेरी समझ से उन्होंने सही सुझाव दिये थे, लेकिन चूंकि राजनीति की पाठशाला में केवल एक दूसरे पर कीचड़ उछालना ही शायद सिखाया गया है, इसलिए उन्हें भला बुरा कहने में गुरेज क्यों? यहां कोई मान, सम्मान का खयाल नहीं करता। मनमोहन ने अपने सुझाव में लिखा था कि महामारी से मुकाबले के लिए टीकाकरण और दवाओं की आपूर्ति बढ़ाना महत्वपूर्ण होगा। मुझे तो नहीं लगता कि इसमें उन्होंने कोई गलत बात कही थी। खैर, सच तो ये ही है कि इस पत्र के जवाब से सियासी घमासान शुरू हो गया है।
दरअसल, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने इस पत्र का जवाब देते हुए कांग्रेस पर निशाना साधा और कांग्रेस द्वारा कोरोना के टीके के बारे में संदेह उठाकर वायरस की दूसरी लहर को बढ़ावा देने के लिए कांग्रेस को ही दोषी ठहरा दिया। हालांकि डॉ. मनमोहन सिंह ने विश्वास जताया कि सही नीति के साथ ही हम इस दिशा में बेहतर तरीके से और बहुत तेजी से बढ़कर देश की जनता को स्वस्थ कर सकते हैं।
यह सब कुछ देखने और समझने के बाद मुझे ये ही लगता है कि राजनीति में अब आत्मचिंतन का समय आ गया है, क्योंकि यह भी एक सच है कि राजनीति राष्ट्रनिर्माण की दीर्घकालीन तप साधना है, आरोप-प्रत्यारोप, प्रपंच और दोषारोप करने का खेल नहीं। विपक्ष को भी सरकार की आलोचना का अधिकार है। हां, इस बात का ध्यान जरूर रखना होगा कि आलोचना तथ्यगत और लोकहित से प्रेरित हो, क्योंकि तथ्यहीन आलोचना माहौल को बहुत ज्यादा दूषित कर देती है।
हम सब जानते हैं कि अच्छे संस्कारों की बदौलत ही हम अपने गुणों से पहचाने जाते हैं और यही संस्कार हमारी संस्कृति को बचाए रखते हैं। आज हमारे देश की संस्कृति यहां के अच्छे संस्कारों के कारण ही विश्व भर में प्रसिद्ध है। बचपन में माता-पिता और स्कूल में हमें टीचर अच्छे संस्कार देते हैं। बड़ों की भूमिका भी अच्छे संस्कार देने में अहम होती है। लेकिन राजनीति में ऐसा नहीं होता। यहां झूठ के सहारे ही कुर्सी बचाने की कोशिश होती रहती है।
राजनीति के अखाड़े में झूठ की सेल लगी होती है। जो जितना झूठ बोलेगा, वह उतना ही नंबर पायेगा। बस झूठ बेचो, फूट डालो, दबंगई करो, दूसरों को झूठा कहकर राज करो की नीति ही यहां चलती है, जबकि हम लिखते और पढ़ते वक्त बार बार ये ही दोहराते हैं कि वरिष्ठ नागरिक हमारे समाज की रीढ़ हैं। उन्हें मजबूती देना हमारी जिम्मेदारी है। उन्हें वक्त के साथ अधिक सम्मान और देखभाल की जरूरत होती है, लेकिन अफसोस! ये सारी बातें हमारे नेता भाषण देते वक्त भूल जाते हैं कि वे क्या बोल रहे हैं, किसे बोल रहे हैं और जो बोल रहे हैं वह सब कुछ सही बोल रहे हैं या नहीं। एक तरफ प्रभु श्री राम को ये नेता कैश करते हैं, उनके नक्शे कदम पर चलने की कसमे खाते हैं, तो वहीं दूसरी ओर श्री राम के किसी भी आचरण को फॉलो नहीं करते।
अयोध्या में मंदिर बनाने से लेकर अपने भाषणों के माध्यम से बीजेपी हमेशा ये ही कहती रहती है कि समग्र मानव जाति के लिए श्री राम का जीवन आदर्श है और इसीलिए अगर हमें रामनवमी का उत्सव मनाना है, तो हमें श्री राम के गुणों को अपने जीवन में साकारित करने की कोशिश करनी पड़ेगी, लेकिन आश्चर्य की बात तो यह है कि राम के गुणों की बात तो दूर, वे एक सामान्य मनुष्य होने का प्रमाण भी नहीं दे पाते, क्योंकि कहां कितना बोलना है, कितना नहीं बोलना है, किसे सम्मान देना है, किसे नहीं देना है, वे यह भी नहीं जानते।
मन व्यक्ति का मंदिर होता है, उसमें राम को बसा कर रखने से कोई पाप निकट नहीं आता। विपत्ति उस व्यक्ति को दूर से देखकर मुख मोड़ लेती है। लेकिन देश के ये तथाकथित नेता क्या कर रहे हैं, मुंह में राम बगल में छुरी वाली कहावत दोहरा रहे हैं। राम के ही एक और वचन के बारे में हम यहां यह समझाना चाहते हैं कि राम नाम से भवसागर तो व्यक्ति का पार हो जाता है, लेकिन राम के हृदय में बैठना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि हृदय में बैठने के लिए राम जैसा बनना पड़ेगा।
राम राष्ट्र की न केवल संस्कृति है, बल्कि राम राष्ट्र का प्राण है, उनके मन में निवास करना है, तो हमें छल, कपट, प्रपंच, ढोंग, झूठ और नीचता से अपने आपको मुक्ति दिलानी होगी, तभी राम के नाम की सार्थकता होगी। दरअसल, हम सब कुछ बदल सकते हैं, लेकिन पूर्वज या बुजुर्गों को नहीं। हम अपने बुजुर्गों को छोड़कर इतिहास बोध से कट जाते हैं और इतिहास बोध से कटे समाज जड़ों से टूटे पेड़ जैसे सूख जाते हैं।
जिस देश में बड़े बुजुर्गों का सम्मान नहीं होता, उस देश में सुख, संतुष्टि और स्वाभिमान नहीं बचा रह सकता। हमारे बड़े बुजुर्ग व वरिष्ठ नेता न केवल हमारा स्वाभिमान हैं, बल्कि हमारी धरोहर हैं। इसलिए उन्हें सहेजने की जरूरत है। यदि हम देश में स्थायी सुख, शांति, अमन और समृद्धि चाहते हैं, तो हमें बुजुर्ग एवं वरिष्ठ नेताओं का सम्मान करना ही होगा।