विगत 8 गुरुवार अक्टूबर 2020 को यह दुनिया छोड़ कर गए पूर्व केन्द्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी के संस्थापक नेता रामविलास पासवान का शानिवर 10 अक्टूबर को पटना में पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार कर दिया गया। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि जिस व्यक्ति को विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों का प्रचार करने के लिए जनसभाओं को संबोधित करना चाहिए था, वो इस बार चुनाव मैदान ही नहीं दुनिया से ही बाहर हो गया, आम इंसान की पहुंच से इतना दूर चला गया कि वहाँ से अब कभी भी वापसी संभव नहीं है।
भारत की राजनीति में रामविलास पासवान को एक ऐसे अजूबे राजनीतिज्ञ के रूप में देखा जाता है जो बात तो सामाजिक न्याय की करता था लेकिन सामाजिक न्याय की बात करते-करते इस व्यक्ति ने राजनीति का एक ऐसा ताना-बाना भी बुन लिया कि वो विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में बनी पहली गैर कांग्रेस जनता दल सरकार से लेकर राष्ट्रीय मोर्चा, भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के बाद एक बार फिर राजग सरकार में मंत्री बने रहे। 1989 और उसके बाद हर सरकार में मंत्री बने रहने की उनकी इस प्रवृत्ति के चलते उन्हें अवसरवादी राजनेता भी कहा गया और यह भी कहा गया कि वो राजनीति के एक ऐसे मौसम वैज्ञानिक थे जो समय से पहले ही हवा का रुख भांप लेते थे और इसी के अनुरूप फैसला लेते थे।
रामविलास पासवान के बारे में इस तरह की तमाम बातें उनके निधन के बाद भी कही जा रही हैं कि अब रामविलास पासवान नहीं हैं तो राजनीति का पूर्वानुमान कौन लगाएगा, कोई कह रहा है अब राजनीति मौसम विहीन हो जायेगी, किसी ने यह भी कहा कि रामविलास पासवान बहुत साल पहले ही सामाजिक न्याय की राजनीति को अलविदा कह चुके थे, किसी के बारे में भी कई बातें उसकी मौजूदगी में नहीं कही जाती लेकिन जब वह इंसान दुनियादारी से बहुत दूर जा चुका होता है उसके बारे में बहुत कुछ ऐसा भी कहा जाता है जो पहले न कहा गया हो।
इसी पृष्ठभूमि में पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान के बारे में भी उनके निधन के बाद यह भी सुनने को मिल रहा है कि पिछले तीन से अधिक दशक से उनकी राजनीति का एजेंडा अपने घर-परिवार और अपनी पार्टी तक सीमित होकर रह गया था और सामाजिक न्याय के नारे के सहारे वो केवल अपनी और अपनी पार्टी के हित की ही राजनीति कर रहे थे और कुछ नहीं। पर इस तरह की सोच रखने वालों के इतर रामविलास पासवान के बारे में सोचने वालों का एक तबका ऐसा भी है जो इस तर्क से बिलकुल भी सहमत नहीं है कि राम विलास पासवान केवल अपने लिए सोचते थे।
इस तरह की सोच रखने वाले देश के बुद्धिजीवियों में एक नाम वरिष्ठ पत्रकार वीरेन्द्र सेंगर का भी है। वीरेंद्र सेंगर ने उनके निधान के बाद सोशल मीडिया के माध्यम से प्रसारित अपनी एक टिपण्णी में कहा है कि रामविलास पासवान ने अलग-अलग राजनीतिक विचारधारा वाले देश के छह प्रधानमंत्रियों के साथ उनकी सर्काओं में बने रहने का जो काम किया है उससे सामाजिक न्याय का नारा दबा या ख़त्म नहीं हुआ बल्कि इस बहाने रामविलास पासवान समाज के वंचित और दबे-कुचले तबके के लिए कुछ न कुछ सार्थक कर रहे थे।
वरिष्ठ पत्रकार ने इस बाबत खुद्द रामविलास पासवान को कोट करते हुए कहा कि लोग समझते हैं कि उन्होंने हर सरकार में बने रह कर सामाजिक न्याय को नुक्सान पहुचाया है, लोगों को यह कैसे समझाया जाए कि देश के दलित, वंचित और शोषित तबके ने अतीत में इतने अन्याय का सामना किया है कि उसकी भरपाई किसी भी तरह नहीं की जा सकती, वो (रामविलास पासवान) हर सरकार में मंत्री बने रह कर इस तबके के लिए हर बार कुछ नान कुछ नया करते रहने की कोशिश में लगे रहते हैं और इसका फायदा भी इस तबके को कई रूपों में मिला।
वरिष्ठ पत्रकार वीरेन्द्र सेंगर के सन्दर्भ से रामविलास पासवान के इस कथन को हवा में नहीं उड़ाया जा सकता। राजनीति के प्रसंग में यह बात एकदम साफ़ है कि अगर रामविलास पासवान ने अपनी ही बिरादरी के समाज के दलित और वंचित तबकों के लिए कुछ किया नहीं होता तो उनकी अपने समाज और वोट बैंक में इतनी मजबूत पकड़ कभी नहीं होती जितने अंतिम समय तक बनी हुई थी।
ख़ास तौर पर बिहार के पासवान समुदाय के मतदाताओं पर उनका जबरदस्त प्रभाव था इसे कोई नकार नहीं सकता। अपने मतदाताओं पर उनके इस जबरदस्त प्रभाव का ही असर था कि दक्षिण पंथी भाजपा से लेकर वामपंथी और मध्यमार्गी कांग्रेस तक देश के सभी वैचारिक दलों और गठबन्धनों के नेता रामविलास पासवान को अपने साथ बनाए रखना चाहते थे। यह सिलसिला एकतरफा भी नहीं था। रामविलास पासवान को भी शायद यही ठीक लगता था कि सरकार में रह कर वो अपने समाज का जितना भला कर पायेंगे उतना भला सरकार के बाहर रह कर कर पाना किसी भी तरह से संभव नहीं होगा। इसलिए दोनों पक्षों की परस्पर सहमति से पासवान हर सरकार में मंत्री बने रहे और इस वजह से अपने वोट बैंक को अपने पक्ष में टिका कर रखने में भी उनको मदद मिली।
बिहार विधान सभा चुनाव में उनकी कमी को शिद्दत से महसूस किया जाएगा। गौरतलब है कि लोजपा संस्थापक रामविलास पासवान लंबे समय से बीमार चल रहे थे और अंततः बिहार विधानसभा चुनाव में प्रचार से पहले ही उनका निधन हो गया। बीमारी के दौरान ही रामविलास पासवान ने लोजपा की पूरी जिम्मेदारी बेटे चिराग पासवान को सौंप दी थी और चुनाव में गठबंधन की सदस्यता से लेकर उम्मीदवारों को टिकट देने तक तमाम काम चिराग खुद ही कर भी रहे थे, इससे पहले ही राम विलास पासवान का निधन होने से पूरी जिम्मेदारी चिराग के कन्धों पर ही आ गई। ऐसे में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि उनकी अनुपस्थिति में उनकी पार्टी लोजपा और उनके बेटे का राजनीतिक प्रदर्शन इस चुनाव में कैसा रहेगा?