
आज से करीब डेढ़ दशक पहले 12 अक्टूबर 2005 को देश की संसद ने एक ऐतिहासिक क़ानून बनाया था जिसका नाम था सूचना का अधिकार क़ानून। अपने नाम के अनुरूप भारत का यह क़ानून अपने देश के नागरिकों को यह अधिकार देता है कि वो सरकार से उसके कामकाज, देश की आर्थिक-सामाजिक प्रगति, विकास और वैश्विक परिदृश्य की गतिविधियों पर सवाल कर सके और सरकार नागरिक के हर ऐसे सवाल का एक निश्चित सीमा अवधि में जवाब देने को बाध्य भी हो। इस क़ानून की जरूरत इसलिए भी महसूस की गई कि किसी भी देश के नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देने के साथ ही सूचना और पारदर्शिता का अधिकार देना भी बहुत जरूरी है इसके के अभाव में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।
भारत में सूचना के अधिकार क़ानून को अमल में लाने के पीछे 1948 में संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा पारित किया गया वह प्रस्ताव भी एक वजह बना जिसमें सूचना के अधिकार को वैश्विक स्तर पर पहचान मिली थी। इस प्रस्ताव के माध्यम से संयुक्त राष्ट्र महासभा ने यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स (Universal Declaration of Human Rights) को अपनाया था। और इसके माध्यम से सभी को मीडिया या किसी अन्य माध्यम से सूचना मांगने एवं प्राप्त करने का अधिकार दिया गया गया था। इसी आधार पर भारत ने भी सूचना के अधिकार क़ानून को मान्यता दी थी।
इस तरह के क़ानून दुनिया के कई देशों में मौजूद हैं। अमेरिका में तो एक एक सदी से पहले ही ऐसी व्यवस्था थी, शायद इसीलिए अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति थॉमस जैफरसन ने यह कहा भी था, “सूचना लोकतंत्र की मुद्रा होती है एवं किसी भी जीवंत सभ्य समाज के उद्भव और विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।” इसी भूमिका को अदा करने के उद्देश्य से ही भारतीय संसद ने सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 लागू किया था। दुर्भाग्य से इस क़ानून में समय-समय पर किये गए संवैधानिक बदलावों (संशोधनों) के चलते इस क़ानून की धार एक बगैर दांत वाले शेर की तरह अशक्त और भौंथरी हो गई है।
शुरू के एक दशक तक यह एक प्रभावशाली क़ानून माना जाता था और इस क़ानून के तहत माँगी गई सूचना का जवाब देने में सरकारी अधिकारियों के पसीने छूट जाया करते थे। अब ऐसा नहीं है इसकी एक वजह यह है कि सेना, सैन्य गुप्तचरी और सिविल इंटेलिजेंस जैसे कई विभागों के साथ ही केंद्र और राज्य सरकारों के अनेक विभागों को इसकी जड़ से हटा दिया गया है। कोशिश तो इस बात की भी की जा रही है कि किसी तरह यह क़ानून समाप्त ही हो जाए लेकिन जन विरोध के चलते ऐसा कर पाना संभव नहीं हो सका है।
इस क़ानून (अधिनियम) के प्रावधानों के तहत भारत का कोई भी नागरिक किसी भी सरकारी प्राधिकरण से सूचना प्राप्त करने हेतु अनुरोध कर सकता है, यह सूचना 30 दिनों के अंदर उपलब्ध कराई जाने की व्यवस्था की गई है। यदि मांगी गई सूचना जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से संबंधित है तो ऐसी सूचना को 48 घंटे के भीतर ही उपलब्ध कराने का प्रावधान है। इस क़ानून में यह व्यवस्था भी है कि सभी सार्वजनिक प्राधिकरण अपने दस्तावेज़ों का संरक्षण करते हुए उन्हें कंप्यूटर में सुरक्षित रखेंगे।
यही नहीं प्राप्त सूचना की विषयवस्तु के संदर्भ में असंतुष्टि, निर्धारित अवधि में सूचना प्राप्त न होने आदि जैसी स्थिति में स्थानीय से लेकर राज्य एवं केंद्रीय सूचना आयोग में अपील करने का प्रावधान भी इस अधिनियम में स्पष्ट है। इस अधिनियम के माध्यम से राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद व राज्य विधानमंडल के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) और निर्वाचन आयोग (Election Commission) जैसे संवैधानिक निकायों व उनसे संबंधित पदों को भी सूचना का अधिकार अधिनियम के दायरे में लाया गया है।
इस अधिनियम के अंतर्गत केंद्र स्तर पर एक मुख्य सूचना आयुक्त और 10 या 10 से कम सूचना आयुक्तों की सदस्यता वाले एक केंद्रीय सूचना आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है। इसी के आधार पर राज्य में भी एक राज्य सूचना आयोग का गठन किया जाएगा। अधिनियम के तहत राष्ट्र की संप्रभुता, एकता-अखण्डता, सामरिक हितों आदि पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाली सूचनाएं प्रकट करने की बाध्यता से मुक्ति प्रदान की गई है। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने, जवाबदेही तय करने, नागरिकों को सशक्त नागरिक बनाने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने और लोकतंत्र की प्रक्रिया में नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करने के उद्देश्य से यह अधिनियम लागू किया गया था और इसके सार्थक परिणाम भी सामने आये थे।
चर्चित 2G घोटाला भी इस क़ानून के कारण ही उजागर हो सका था। उच्च पदों पर बैठे अधिकारियों द्वारा शक्तियों के दुरुपयोग का सबसे प्रमुख उदाहरण समझे जाने वाले इस घोटाले के कारण भारत सरकार को 1,76,645 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ था। इसी तरह एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा दायर एक आरटीआई से पता चला था कि दिल्ली सरकार ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिये दलित समुदाय के कल्याण हेतु रखे गए फंड से 744 करोड़ रुपए निकाले थे।
इस मामले में यह भी पता चला था कि निकाले गए पैसों का प्रयोग जिन सुविधाओं पर किया गया वे सभी मात्र कागज़ों पर ही थीं। कुछ समय पहले सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 में संशोधन किया था, इसका विरोध करते हुए यह तर्क दिया गया था कि इस कदम से सूचना का अधिकार कानून की मूल भावना ही खतरे में आ जाएगी। संशोधन के विरोध की वजह यह थी कि इसमें यह प्रावधान किया गया कि मुख्य सूचना आयुक्त एवं सूचना आयुक्तों तथा राज्य मुख्य सूचना आयुक्त एवं राज्य सूचना आयुक्तों के वेतन, भत्ते और सेवा की अन्य शर्ते केंद्र सरकार द्वारा तय की जाएंगी।