देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान!


अगर आपस में हमें लड़ना ही है, तो बेरोजगारी, बीमारी, गरीबी और पिछड़ेपन से लड़ना चाहिए, क्योंकि एक सच ये भी है कि छोटे मन से कोई बड़ा नहीं होता और टूटे मन से कोई खड़ा नहीं होता और ये ही जीवन की सच्चाई है, गुढ़ार्थ है। इसीलिए डॉ. अम्बेडकर कह गये हैं कि मेहनत इतनी खामोशी से करो कि सफलता शोर मचा दे। हम यह क्यों कह रहे हैं, चलिए समझने की कोशिश करते हैं।


निर्मलेंदु साहा
मत-विमत Updated On :

कहते हैं कि समय और शब्द दोनों का उपयोग लापरवाही से ना करें, क्योंकि ये दोनों न दोबारा आते हैं, और न ही मौका देते हैं …यहां सीएम योगी के ऑर्डर को लापरवाही से एग्जिक्यूट करने की कोशिश की गई …पुलिस को मौका मिलते ही वे हरकत में आ गये … लेकिन नतीजा यह हुआ कि किसान नेता ने आत्महत्या करने की धमकी दे दी … जी हां किसान नेता ने कहा …

किसानों को मारने की साजिश रची जा रही है। राकेश टिकैत के आंसुओं के बाद किसान आंदोलन पर राजनीति गरमा गई है। विपक्ष के नेता समर्थन में उतर चुके हैं। टिकैत ने जम कर विरोध किया कि हम यहां से नहीं हटेंगे। 26 जनवरी को हुई घटना के बाद कमजोर लग रहा किसान आंदोलन एक बार फिर जोर पकड़ चुका है। कल किसान नेता राकेश टिकैत की आंखों से गिरे आंसुओं के बाद आंदोलन में यू टर्न आता दिख रहा है।

कितना बदल गया इन्सान?

जीते जी दुनिया को जलाया मर के आप जला

पूछो जाने वाले से क्या कोई तेरे साथ चला।

ये दुनिया नहीं जागीर किसी की

राजा हो या रंक यहाँ तो सब हैं चैकीदार

कुछ तो आ कर चले गये कुछ जाने को तैयार।

जी हां, कुछ नेता आकर चले गये और कुछ जाने को तैयार। आजादी के बाद गांधी जी, पटेल, जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी से लेकर राजीव गांधी तक आये और अपना अपना कर्म करके चले गये। जहां एक ओर इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और लाल बहादुर शास्त्री ने देश के लिए कुर्बानी दी, देश के प्रति अपनी वफादारी निभाई, तो वहीं अस्तित्व में रह रही सरकार ने अन्नदाताओं को सड़कों पर लाकर छोड़ दिया। नोटबंदी से शुरू हुई सरकार की यह दमन, प्रेम और वाक चातुर्य सियासी यात्रा अभी खत्म नहीं हुई है। कारवां गुजर गया, गुबार देखते ही रह गये।

हम सब जानते हैं कि किसान हमारे अन्नदाता हैं। जाड़ा, गर्मी और बरसात में तरह-तरह की मुसीबतें झेलकर वे फसल उगाते हैं, लेकिन उन्हीं अन्नदाताओं को आज सरकार ने रोड पर लाकर खड़ा कर दिया है। वे बारिश और ठंड में अपना हक पाने के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन सरकार कुंभकर्णी नींद में सो रही है। जिनके वोट से आज वे राज कर रहे हैं, उन्हीं को कुचलने की एक शर्मनाक कोशिश चल रही है। वोट मांगते वक्त याचना करते हैं, लाॅलीपाॅप देते हैं, चिकनी चुपड़ी बातों में वोटरों को लुभाते हैं, वादे करते हैं, तो कहीं कहीं शराब भी बांटी जाती है, कहीं पर नोटों की बरसात होती है, तो कहीं पर गुंडों के बल पर वोट मांगे जाते हैं, लेकिन आश्चर्य! कुर्सी मिलते ही जनता को छोड़ देते हैं।

नेता और कुर्सी का मोह। चिपके रहते हैं कुर्सी से और उड़ के आते हैं नोट खिड़की से।

आश्चर्य की बात तो ये है कि एक ओर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण घोषणा करती हैं कि प्रधानमंत्री कृषि ऊर्जा सुरक्षा उत्थान महाभियान (पीएम कुसुम) योजना के तहत 20 लाख किसानों को सोलर पंप लगाने में मदद दी जाएगी, तो वहीं दूसरी ओर देश का अन्नदाता कड़क ठंड में इस बात से उम्मीद लगाये बैठे हैं कि उनकी बातें सुनी जाएंगी, ये तीनों कानून आपस लिये जाएंगे, वे फिर अपने अपने घर लौट जाएंगे।

दरअसल, भारतीय संविधान में हमें ये सात मौलिक अधिकार दिये गये हैं। 1. समता का अधिकार (समानता का अधिकार), 2. स्वतंत्रता का अधिकार, 3. शोषण के विरुद्ध अधिकार, 4. धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, 5. संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार, 6. कुछ विधियों की व्यावृत्ति, 7. संवैधानिक उपचारों का अधिकार।

तो ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या हमें समता का अधिकार मिला हुआ है। क्या सरकार हमारी बात सुनती है, समझती है, हमारी संवेदानाओं को समझने की कोशिश करती है, हमारे नफे और नुकसान पर ध्यान देती है। अब ऐसे में यदि यह कहें कि सरकार ध्यान नहीं देती है, तो शायद गलत नहीं होगा, क्योंकि अगर ध्यान देती होती, तो सरकार यह हठधर्मिता नहीं करती और जिद पर अड़ी नहीं रहती।

किसानों का विरोध करने पर उन्हें एक माह तक सड़कों पर इस कड़ाहती ठंड और बेमौसम बारिश में नहीं छोड़ती। किसानों के हित में कोई न कोई वैकल्पिक रास्ता जरूर अपनाती। अपनी बात को मनवाने और अपनी जिद कायम रखने के लिए सरकार किसानों के साथ सियासी दाव पेंच नहीं खेलती।

एक तरफ सरकार लोकतंत्र की दुहाई देती है, तो वहीं दूसरी ओर सरकार लोगों से उनका हक छीनने में बिंदुमात्र देर नहीं करती, जबकि हम सब यह जानते हैं कि अपनी बात कहने का सभी को अधिकार है। यहां मुझे एक गीत की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं …

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान

कितना बदल गया इंसान … कितना बदल गया इंसान

सूरज ना बदला, चाँद ना बदला, ना बदला रे आसमान

कितना बदल गया इंसान … कितना बदल गया इंसान।।

जी हां, बाप की दुकान बंद हो गई, माँ की गैस सब्सिडी खत्म हो गई, भाई की नौकरी चली गई, बेटी की अस्मत लुट गई और बेटा फेसबुक पर लिख रहा है … मोदी है तो मुमकिन है। वाह भाई भाई … अब देखिए संसद द्वारा किसानों की हत्या हो रही है, किसान कृषि कानून नहीं चाहता, फिर भी उसे फायदे गिनाए जा रहे हैं। फेसबुक पर लोग निर्लज्ज और बेहया हो कर लिख रहे हैं कि मोदी है, तो मुमकिन है।

सच तो ये ही है कि किसान ही इस देश के सबसे बड़े वोट बैंक हैं, लेकिन किसानों की समस्या को ठीक से समझने और उन्हें दूर करने का किसी भी सरकार ने ईमानदारी से प्रयास नहीं किया है। जाड़ा, गर्मी और बरसात में तरह-तरह की मुसीबतें झेलकर वे फसल उगाते हैं। फसल में कभी रोग लग जाता है, तो कभी आग और सालभर की मेहनत पल भर में बरबाद हो जाती है। सोचने वाली बात तो ये ही है कि जाड़े के दिनों में जब कड़ाके की सर्दी से बचने के लिए हम ब्लोअर के सामने बैठे होते हैं, तब वे अपनी गेहूं की फसल सींचने के लिए ठंडे-ठंडे पानी को खेत के हर हिस्से में पहुंचाने का प्रयास कर रहे होते हैं। हैरानी की बात तो ये ही है कि उन्हीं को आज डराया, धमकाया और पीटा जा रहा है और हमारे जैसे लोग टीवी पर तमाशा देख कर बस ये ही कहते हैं कि उनके साथ अन्याय हो रहा है, तो वहीं मोदी के भक्त कहते हैं कि विपक्ष उन्हें बहका रहा है। बिना बात के हो हल्ला मचा रहा है।

दरअसल, किसानों का ये आंदोलन सिर्फ किसानों का ही नहीं, हर भारतीय का है। ये आंदोलन किसान भारतीय मूल के अम्बानी अडानी का है। ये आंदोलन संविधान वर्सेज मनुवाद का है। पहले नोट बंदी से जनता को परेशान किया, तो जीएसटी से व्यापारियों का नुकसान करने के बाद अब किसानों का नुकसान करने पर उतारू है यह सरकार। ऐसे में अब कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। बिचैलियों और राजनीति से मुक्त क्यों नहीं हो पा रहा है किसान? अन्नदाता की फसल का वाजिब मूल्य क्यों नहीं मिल पा रहा है? अन्नदाता आत्महत्या क्यों कर रहा है? एक सच ये भी है कि केन्द्र और राज्य सरकार की कितनी योजनाएं किसानों के हित में चल रही हैं, इसकी भी सम्यक जानकारी हमें नहीं मिल पाती है। इतना सब होते हुए भी किसान अपने खेतों से सोना उगाता रहता है और कभी-कभी खुद की परेशानियों से इतना घिर जाता है कि उसे आत्महत्या तक करनी पड़ती है।

लेकिन बावजूद इसके किसान अपने कर्म और कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ते। डंटे रहते हैं गेहूं, चावल, हरी सब्जी, आलू, टमाटर, जैसी फसल लोगों तक पहुंचाने में। किसान अपना सब कुछ न्योछावर कर देते हैं ओैर जब वाजिब दाम नहीं मिल पाता, तो आत्महत्या तक कर बैठते हैं। ऐसे में सवाल ये ही उठ रहे हैं कि उनके इस कृत्य के लिए जिम्मेदार कौन हैं सरकार या आम इंसान?

दरअसल, काग्रेस हो या भाजपा, सच तो ये ही है कि सभी सरकार की नीतियां एक ही हैं। बाहर से अलग जरूर लगते हैं, लेकिन विचार, आचार, कर्म और कर्तव्य का निष्पादन करने में एक जैसे ही हैं। बस 19 और 20 का फर्क है। इसलिए किसानों को उम्मीद है कि उनके आंदोलन को ब्रेक लगेगा और उनकी ही जीत होगी। सरकार झुकेगी। ऐसे में यदि यह कहें कि जय जवान जय किसान नारे को मोदी सरकार ने सार्थक कर दिया है … किसानों को जवानों से लड़ा कर, तो शायद गलत नहीं होगा। कितना बदल गया है इन्सान।

देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान। हां, कलयुग में सचमुच बदल गया इंसान।

(लेखक दैनिक भास्कर के रेजिडेंट एडिटर हैं।)