हमारे समाज में अभी तक ‘काम’ की कोई ठोस परिभाषा नहीं है । आज भी उसी श्रम को ‘काम’ की श्रेणी में रखा जाता है जिसे करने से ‘अर्थ’ अर्थात ‘धन’ की प्राप्ति होती है । यदि कोई पुरुष घर से बाहर श्रम करके ‘अर्थ प्राप्ति’ करता है तो उसे ‘काम’ की श्रेणी में रख लिया जाता है पर, महिलाएं चाहे जितना भी घरेलू-श्रम करे उसे ‘काम’ की श्रेणी में नहीं रखा जाता और इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण वजह यह है कि महिलाओं को घरेलू श्रम करने से ’अर्थ-प्राप्ति’ नहीं होती। वास्तव में देखा जाए तो महिलाओं द्वारा किया जाने वाला ‘घरेलू श्रम’ पुरुषों द्वारा घर से बाहर किए जाने वाले श्रम की तुलना में कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है। ‘सकल घरेलू उत्पाद’ (GDP) के आंकड़े इसका सबसे प्रत्यक्ष प्रमाण है।
वैसे भी महिलाएं यदि घरेलू श्रम नहीं करें तो शायद पुरुष के लिए कार्यस्थल पर जाकर श्रम करना उतना आसान नहीं होगा। अधिकांश मामलों में महिलाएं ही अपने परिवार के पुरुष सदस्यों को कार्यस्थल पर जाने के लिए वे तमाम सुविधाएं जैसे, समय पर भोजन, कपड़े तथा अन्य मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करती है। कामकाजी महिलाओं की भी लगभग यही स्थिति है। वह भी अपने परिवार के पुरुष सदस्यों को तमाम सुविधाएं मुहैया करा कर उनके कार्यस्थल/स्कूल/कालेज जाने के बाद ही अपने कार्यस्थल पर जाने के विषय में सोचती हैं।
1990 के दशक में सरकार ने उदारीकरण तथा भूमंडलीकरण के तहत नई-आर्थिक-नीतियाँ लागू कीं । बाजार को खुली छूट दी जाने लगी जिसके कारण विदेशी वस्तुओं का बाजार में भरमार होने लगी। देशी और घरेलू/कुटीर उद्योग का महत्व कम होने लगा और इस तरह के उद्योगों का अस्तित्व संकट में आ गया। मजदूर वर्ग को भी जो भी थोड़ी बहुत सुविधा मिली हुई थी उसपर भी अन्य संकट छा गए थे और कामगारों की दशा अब और ज्यादा खराब हो गई क्योंकि, विश्व-बैंक और ‘अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष’ से लिए गए कर्ज की शर्तों की वजह से ये नीतियां अब सिर्फ बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हितों को ही देखती हैं । १९९० के दशक से मुद्रास्फीति में बहुत तेजी आई है और धन एवं व्यापार अब कुछ लोगों तक ही सिमट कर रह गया है । ऐसी स्थिति में स्वाभाविक है कि चाहे कामगार होने के नाते, उपभोक्ता होने के नाते महिलाएं सबसे अधिक प्रभावित हुई हैं।
घर के खर्च के बजट को भी कम या नियंत्रित रखने की ज़िम्मेदारी ज़्यादातर महिलाओं को सौंप दी जाती है । महिलाओं को इस ज़िम्मेदारी को निभाने में किस तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है इसे नजरंदाज कर दिया जाता है । ऐसी ही स्थिति में कई बार मध्यमवर्गीय-गृहणियों को अपनी तरफ से भी प्रयास कर कुछ साधन जुटाने पड़ते हैं । आज बहुत सारी मध्यमवर्गीय महिलाएं अपने घर ही बैठकर ‘खाली समय में’ काम करती हैं जिससे उसे कुछ आय भी हो जाता है और उनका समय भी कट जाता है। जैसे, बटन लगाना, कपड़े का कोई भाग सिलना, पैकिंग करना आदि शामिल है । इस तरह से तैयार माल की संख्या के आधार पर भुगतान किया जाता है और इसकी दर काफी कम होती है । महिला कामगारों को भुगतान किया जाने वाला यही दर ‘पीस रेट’ के नाम से जाना जाता है, जिसमें न तो श्रमिकों को किसी तरह की बुनियादी सुबिधा मिल पाती है और न ही उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के तानेबाने को समझने का अवसर।
इस तरह से महिलाओं के मानव अधिकार का हनन घर की चारदीवारी के अंदर अलग तरह से एवं चारदीवारी से बाहर अलग तरीके से होता है । कभी आधुनिकता के नाम पर तो कभी परंपरा के नाम पर तरह-तरह के शोषण और असमानता को बरकरार रखा जाता है जिससे लगातार विभिन्न स्तरों पर आधी आबादी के मानव अधिकार का हनन होता रहता है । इसमें परिवार के साथ-साथ समाज के विभिन्न तंत्रों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आधी-आबादी के मानव अधिकार हनन के इन तमाम तरीकों से निबटने के लिए तमाम तरह की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकार करते हुए समकालीन-महिला-आंदोलन लगातार समाजिक-संरचना में बदलाव और समानता लाने के लिए प्रयास कर रही हैं।
स्त्रियां हमारे समाज का वह हिस्सा हैं जिनके बिना मानव जाति की कल्पना का कोई मतलब नहीं है । महिला-आंदोलन मानव अधिकार के रूपांतरकारी दृष्टिकोण (व्यवस्था में परिवर्तन की बात करते हुए समानता, स्वतंत्रता, शांति, न्याय आदि मूल्यों पर जोर देता है) को अपनाते हुए लगातार यह मांग भी कर रहा है कि समाज में रहने वाली हर ईकाई को समानता का अधिकार मिलना चाहिए। इनका तर्क है कि समानता का अधिकार ही किसी भी समाज को गतिशील और विकसित होने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सैद्धांतिक स्तर पर तो मानव अधिकार के रूपांतरकारी दृष्टिकोण के आधार पर आधी-आबादी के मानव अधिकार को कुछ हद तक मान्यता मिलनी शुरू हुई है पर, व्यवहारिक स्तर पर अभी भी विकासवादी दृष्टिकोण (बदलाव पर बहुत अधिक जोर नहीं दिया जाता है) को ही अपनाया जा रहा है।
इसलिए एक लंबे संघर्ष और लगातार प्रयास करने के बाद भी इन्हें सही मायने में उनके अधिकार नहीं मिल पाए हैं। हालांकि, धीरे-धीरे स्थितियों में बदलाव भी हो रहा है। पहले की अपेक्षा अब अधिक लड़कियां सर्वजनिक-क्षेत्रों में दखल देकर अपनी दक्षता का प्रदर्शन कर अपना स्थान बना रहीं हैं और तमाम तरह के संवैधानिक अधिकारों के प्रति सिर्फ जागरूक ही नहीं बल्कि, उन अधिकारों के प्रति सजग और अपनी हिस्सेदारी भी निभा रहीं हैं पर, इस बात से इंकार नहीं किया सकता है कि अभी भी इनकी संख्या बहुत कम है। इसकी पुष्टी हाल ही में ‘वर्ल्ड इकोनिमिक फॉरम’ के एक आंकड़े से भी होती है जिसमें ‘ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स’ में भारत 146 में से 135वें स्थान पर है।
( डॉ. आकांक्षा, सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र लेखन-कार्य)