अभी भी शांति काफी दूर है काबुल से


तालिबान से शांतिवार्ता करने गए अफगान सरकार के प्रतिनिधिमंडल में महिलाएं भी शामिल है। उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल करने का मुख्य उद्देश्य शांति वार्ता में महिला अधिकारों का पक्ष रखना है। महिलाओं को जो अधिकार फिलहाल अफगानिस्तान में मिले है, उन्हें आगे जारी रखा जाए इसके लिए अफगान महिलाएं जोरदार आवाज उठा रही है।


संजीव पांडेय संजीव पांडेय
मत-विमत Updated On :

कतर की राजधानी दोहा में अफगान सरकार और अफगान तालिबान के बीच 12 सितंबर को शांति वार्ता शुरू हो चुकी है। पुरी दुनिया इस बातचीत पर नजर रखे हुए है। क्योंकि उम्मीद यह है कि इस शांति वार्ता से अफगानिस्तान जातीय हिंसा से मुक्त हो जाएगा। हालांकि दोनों पक्ष शांति वार्ता को लेकर बहुत उम्मीद नहीं ऱखे हुए है। क्योंकि दोनों पक्ष एक दूसरे को शक की निगाह से देख रहे है। यही काऱण है कि 14 सितंबर को दोनों पक्षों के बीच होने वाली आधिकारिक बैठक एकाएक टल गई। क्योंकि बातचीत शुरू होने से पहले दोनों पक्षों के बातचीत के लिए जरूरी आचार संहिता और एजेंडा तय नहीं हो पाया था।

दरअसल कुछ मामलों पर तालिबान का रवैया अडियल है। इधर दोहा में शांति वार्ता शुरू हो रही है, उधऱ अफगानिस्तान में तालिबान के हमले हो रहे है। अफगान नेशनल आर्मी को निशाना बनाया जा रहा है। तालिबान पर विश्वास इसलिए भी नहीं हो रहा है क्योंकि तालिबान अभी तक अफगानिस्तान में हमले नहीं रोक रहा है। फरवरी में अमेरिका और तालिबान के बीच हुए शांति समझौते के बाद तालिबान और अफगान सेना के बीच संघर्ष के कारण 12 हजार अफगान मारे जा चुके है।

आखिर अफगान शांति के लिए जिम्मेवार विभिन्न गुटों के बीच विवाद किन मुद्दों पर होगा? दोनों पक्षों में विवाद होगा अफगानिस्तान सरकार में भागीदारी पर। दोनों पक्षों में विवाद होगा अफगानिस्तान के नए संविधान की रूपरेखा पर। दोनों पक्षों के बीच विवाद होगा महिलाओं को मिले अधिकारों को भविष्य में जारी रखने पर। क्योंकि तालिबान महिला स्वतंत्रता का घोर विरोधी है। दोनों पक्षों के बीच विवाद का एक बड़ा मुद्दा अफगान नेशनल आर्मी भी होगा। क्योंकि अफगान नेशनल आर्मी में अच्छी संख्या में तालिबान विरोधी उजबेक, हजारा और ताजिक भी है।

तालिबान से शांतिवार्ता करने गए अफगान सरकार के प्रतिनिधिमंडल में महिलाएं भी शामिल है। उन्हें प्रतिनिधिमंडल में शामिल करने का मुख्य उद्देश्य शांति वार्ता में महिला अधिकारों का पक्ष रखना है। महिलाओं को जो अधिकार फिलहाल अफगानिस्तान में मिले है, उन्हें आगे जारी रखा जाए इसके लिए अफगान महिलाएं जोरदार आवाज उठा रही है। तालिबान इसपर राजी होगा या नहीं, यह देखने वाली बात होगी।

वैसे खुद अमेरिका को भी शांति वार्ता की सफलता पर संदेह है। दबाव में शांति वार्ता को सफल भी बनाए जाने का कोई लाभ नहीं होगा। इससे अफगानिस्तान में हिंसा का एक नया दौर शुरू होगा। क्योंकि अलग-अलग क्षेत्रीए शक्तियां अपने हिसाब से अफगानिस्तान में खेल कर रही है। काबुल से गए अफगान प्रतिनिधिमंडल में ताजिक, उजबेक जनजाति के प्रतिनिधि भी शामिल है। लेकिन ये दोनों जनजातियां पूरी प्रक्रिया को संदेह की नजर से देख रही है।

शांति वार्ता शुरू होने से पहले ही ताजिक जनजाति से संबंध रखने वाले अफगानिस्तान के उपराष्ट्रपति अमरूल्ला सालेह पर तालिबान ने हमला किया। अफगान मामलों में अमेरिका के विशेष दूत जालमे खलीलजाद भी स्वीकार करते है कि अफगानिस्तान में अभी भी वे ताकतें सक्रिय है जो अमेरिका को किसी भी तरीके से अफगानिस्तान में मौजूद रखना चाहती है। इस तरह की ताकतें वर्तमान परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं चाहती है। कई ताकतें चाहती है कि अफगानिस्तान में हिंसा जारी रहे।

खलीलजाद की टिप्पणी ही बताती है कि फिलहाल शांति वार्ता को लेकर उन्हें खुद संदेह है। हालांकि अमेरिका की अपनी मजबूरी है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से पहले तालिबान और अफगानिस्तान सरकार के बीच शांति समझौता चाहते है। दरअसल ट्रंप की नार्थ कोरिया, सीरिया, इराक और ईरान की डिप्लोमेसी बुरी तरह से फेल हो गई। इसलिए वे अपने कार्यकाल में अफगानिस्तान शांति वार्ता की सफलता डालना चाहते है। वे अमेरिकी जनता को चुनावों से पहले बताना चाहते है कि शांति के लिए वे दुनिया भर में संघर्ष कर रहे है। दरअसल इराक और सीरिया में रूस-ईऱान गठजोड़ ने ट्रंप की डिप्लोमेसी को खासा नुकसान पहुंचाया।

अफगानिस्तान में पाकिस्तान, चीन, ईरान, रूस और भारत के अपने-अपने हित है। पाकिस्तान अफगानिस्तान में क्या चाहता है, यह स्पष्ट हो चुका है। पाकिस्तान काबुल में तालिबान को मजबूत देखना चाहता है, ताकि अफगानिस्तान से भारत को बाहर किया जा सके। अगर अफगान शांति वार्ता में पाकिस्तान की हितों की रक्षा नहीं हुई, तो मौके पर पाकिस्तान शांति वार्ता में विध्न भी डाल सकता है। इस सच्चाई को अमेरिका जानता है।

यही कारण है कि उधर दोहा में तालिबान और अफगान सरकार के बीच बातचीत शुरू करवा कर अफगान मामलों के विशेष अमेरिकी दूत जालमे खलीलजाद इस्लामाबाद पहुंचे। 14 सितंबर को उन्होंने पाकिस्तानी सेना अध्यक्ष जनरल कमर जावेद बाजवा के साथ बैठक की। दोहा में आयोजित होने वाली बैठक में पाकिस्तानी सेना की अहम भूमिका है। क्योंकि अफगान तालिबान के ज्यादातर कमांडर पाकिस्तान के देबवंदी मदरसों से शिक्षित है। ये मदरसे पाकिस्तानी सेना के इशारे पर ही काम करते रहे है।

दोहा की शांतिवार्ता में चीन की भूमिका पीछे से है। चीन अपना खेल पाकिस्तान को आगे रख कर खेल रहा है। सच्चाई यही है कि चीन और तालिबान के मधुर संबंध 1990 के दशक से ही है। चीन औऱ तालिबान के बीच अच्छे संबंध बनवाने में पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है। अफगानिस्तान में चीन के आर्थिक हितों पर तालिबान ने कभी भी हमला नहीं किया। अफगानिस्तान में चीन की हितों की रक्षा के लिए पाकिस्तान ने तालिबान पर अपने प्रभावों का पूरा इस्तेमाल किया।

यही कारण है कि अफगानिस्तान में चीन के आर्थिक हित अभी तक पूरी तरह से सुरक्षित है। तालिबान ने अफगानिस्तान में चीन की मौजूदगी पर कभी सवाल नहीं उठाया। अफगानिस्तान के अंदर चीन के निवेश और प्रोजेक्टों पर तालिबान का हमला कभी नहीं हुआ। जबकि तालिबान ने अफगानिस्तान के अंदर भारत के निवेश और प्रोजेक्टों पर कई हमले किए। तालिबान ने तो पश्चिमी चीन में उइगर मुस्लिमों के होने वाले दमन पर भी चुप्पी साधे रखी है।

लेकिन अफगानिस्तान के अंदर अच्छी पैठ रखने वाले ईऱान और रूस शांतिवार्ता के परिणामों का इंतजार कर रहे है। शांति वार्ता में शामिल प्रतिनिधियों में रूस और ईऱान के प्रभाव में रहने वाले प्रतिनिधि भी है। ईरान और रूस की खासियत यह है कि बातचीत में भाग ले रहे दोनों पक्षों के प्रतिनिधियों पर इनका प्रभाव है। रूस के अपने हित अफगानिस्तान में है। अफगानिस्तान की सीमा ताजिकिस्तान, उजबेकिस्तान औऱ तुर्केमेनिस्तान से लगती है।

इन देशों में रूस के अपने आर्थिक हित है। इसलिए रूस अफगानिस्तान में तालिबान की पूर्ण मजबूती कभी नहीं चाहेगा। रूस उतरी अफगानिस्तान में ताजिक और उजबेक जनजातियों के माध्यम से तालिबान को नियंत्रित रखना चाहता है। रूसी इंटेलिजेंस एजेंसी जीआरयू इस समय काबुल में खासी सक्रिय है। रूसी इंटेलिजेंस एजेंसी की घुसपैठ तालिबान कमांडरों के बीच भी है। उधऱ ईऱान भी फिलहाल चुप है। ईऱान नहीं चाहता है कि अफगानिस्तान में पाकिस्तान मजबूत हो। हालांकि ईरान से तालिबान ने अब काफी अच्छे संबंध बना लिए है।

ईऱान तालिबान को आर्थिक और सैन्य मदद भी करता रहा है। लेकिन ईऱान तालिबान को कंट्रोल में रखना चाहेगा। ईऱान तालिबान को कंट्रोल में रखने के लिए उजबेक, ताजिक और हजारा जनजातियों को काबुल में मजबूत रखेगा। भारत इसी वस्तुस्थिति को समझता है। यही काऱण है कि भारत के रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री तेहरान गए। अफगान शांति वार्ता को लेकर दोनों देशों के मंत्रियों बीच गंभीर बातचीत हुई।