पाकिस्तान को भी देर-सबेर चुभेगा तालिबान का आना


तालिबान ने अभी तक अफगानिस्तान के अलावा जिस एक देश को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, वह पाकिस्तान ही है।


चंद्रभूषण
मत-विमत Updated On :

बिजली की कौंध की तरह अफगानिस्तान की सत्ता पर तालिबान का काबिज होना पूरी दुनिया की लोकतंत्र प्रेमी जनता के लिए बुरी खबर है, लेकिन भारत में इसे लेकर कुछ अतिरिक्त चिंता भी है। वे जब पहली बार पावर में आए थे तब कश्मीर में उग्रवाद अचानक कुछ ज्यादा ही ताकतवर दिखने लगा था, साथ ही पाकिस्तान की दीदादिलेरी भी बहुत बढ़ गई थी। इसका नतीजा हमें कंधार विमान हाईजैक और करगिल युद्ध के रूप में देखने को मिला था। दूसरी तरफ ऐसी आम धारणा है कि अफगानिस्तान के तालिबान के हाथ में जाने से पाकिस्तान की पांचों उंगलियां घी में दिखने लगेंगी।

आखिर इस संगठन को खड़ा करने और नाटो फौज के सामने बीस साल तक इसमें जान बचाए रखने में पाकिस्तानी फौज और खुफिया एजेंसियों की अहम भूमिका रही है। लेकिन गौर से देखें तो तालिबान ने अभी तक अफगानिस्तान के अलावा जिस एक देश को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, वह पाकिस्तान ही है। यह कहानी आगे चलकर सिरे से बदल जाएगी, ऐसा मानने की जल्दबाजी हमें नहीं करनी चाहिए।

1996 से 2001 के बीच चली तालिबान सत्ता का पहला नुकसान पाकिस्तान को यह झेलना पड़ा कि संप्रभुता के नाम पर उसके पास कुछ भी नहीं बचा। पाकिस्तानी शासक जनरल परवेज मुशर्रफ सन 2006 में अमेरिका गए तो वहां एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि अमेरिकी उप विदेशमंत्री रिचर्ड आर्मिटेज ने 9/11 के बाद अफगानिस्तान में अमेरिकी फौज भेजने का फैसला होते ही उनके खुफिया सलाहकार को इन शब्दों में खुली धमकी दी थी- ‘बमबारी झेलने के लिए तैयार हो जाओ। पाषाण युग में वापस लौट जाने के लिए तैयार हो जाओ।’ किसी मार खाए बच्चे की तरह मुशर्रफ ने टीवी एंकर से कहा, ‘मेरे ख्याल से यह बहुत असभ्य टिप्पणी थी।’

तब से अब तक न जाने कितने ऐसे मौके आ चुके हैं जब अमेरिका के छोटे स्तर के अधिकारियों ने भी अमेरिकी शासकों को सार्वजनिक मंचों से डांटा है। उनका बजट काट देने की धमकी दी है और पिछले कुछ सालों से काट भी रखा है। इसका नुकसान पाकिस्तान को यह हुआ है कि उसे अपनी कई जरूरी परियोजनाओं में कटौती करनी पड़ी है और पिछले कुछ सालों से विकास और उम्मीद के नाम पर पूरी तरह चीन की गोद में ही बैठ जाना पड़ा है।

याद रखना जरूरी है कि इस प्रक्रिया की शुरुआत तालिबान के अफगानिस्तान की सत्ता में आने और पाकिस्तान से सटे उसके सीमावर्ती इलाकों के अलकायदा का गढ़ बन जाने के साथ हुई थी। पाकिस्तानी शासक सार्वजनिक मंचों पर इसको अपनी मजबूरी की तरह पेश करते हैं, लेकिन तालिबान के उभरने से लेकर अलकायदा के जड़ जमाने तक हर घटना में कदम-कदम पर उनकी सक्रिय भागीदारी रही है। बेनजीर भुट्टो ने 1993 में सत्ता में आने के साथ ही अफगानिस्तान की गुलबुद्दीन हिकमतयार सरकार को बायपास करने के रास्ते ढूंढने शुरू कर दिए थे।

वहां से रूस के हटने के बाद बनी यह सरकार पाकिस्तान की कठपुतली की तरह काम नहीं कर रही थी। उस पर दबाव बनाने के लिए बेनजीर को अफगान नौजवानों के जुझारू जत्थे भर तैयार करने थे। इसके लिए उधर से विस्थापित होकर पाकिस्तान के सीमावर्ती मदरसों में पढ़ने आए नौजवान उनके पास पहले से मौजूद थे, साथ में सऊदी अरब अपनी कट्टरपंथी विचारधारा के प्रचार के लिए थैलियां खोले बैठा था। उनके बाद नवाज शरीफ और परवेज मुशर्रफ ने भी मौके-बेमौके ‘पहाड़ों में भटक रहे उस लंबे-ऊंचे सूरमा’ (ओसामा बिन लादेन) की बहादुरी के गीत गाए और पाकिस्तानी जनता में मौजूद अमेरिका विरोधी गुस्से का फायदा उठाया।

कुछ समय तक ऐसा लगता रहा कि अमेरिकी धौंस-धमकी बर्दाश्त करना पाकिस्तान के लिए कोई असाधारण बात नहीं है। खासकर तब जब इसके बल पर पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था चलती जा रही हो और भारत-पाक टकराव में अमेरिका का झुकाव भारत से ज्यादा पाकिस्तान की तरफ बना रहे। लेकिन इस स्थिति में एक बड़ा बदलाव सन 2005 में और फिर सन 2007 में आया। पहले भारत-अमेरिका परमाणु समझौते पर दस्तखत हुए, जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्लू बुश ने पाकिस्तान को किनारे रखते हुए भारत को अमेरिका के साथ लगभग रणनीतिक सहयोगी जैसी भूमिका में ला दिया।
इस तरह सार्वजनिक मंचों पर अर्से से बना हुआ ‘भारत-पाक’ युग्म टूट गया और इससे यह संकेत गया कि भारत को आगे रखकर अपने घपलों से दुनिया की नजर हटाने के पाकिस्तानी प्रयास अब कारगर नहीं हो पाएंगे। फिर 2007 में पाकिस्तान के सात केंद्रशासित सीमावर्ती कबाइली जिलों बाजौर, मोहमंद, खैबर, ओरकजई, कुर्रम, नॉर्थ वजीरिस्तान और साउथ वजीरिस्तान को मिलाकर बने इलाके फाटा (फेडरली एडमिनिस्टर्ड ट्राइबल एरियाज) में 13 संगठनों को मिलाकर तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) का गठन हुआ। इसके आतंकियों ने दक्षिणी पंजाब और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों में अपनी घुसपैठ के दम पर पांच साल के अंदर न सिर्फ पाकिस्तानी हुकूमत बल्कि समूचे दक्षिण एशिया की नाक में दम कर दिया।

सबसे पहले उन्होंने दिसंबर 2007 के अंत में खुद बेनजीर भुट्टो की हत्या की, जिन्होंने तालिबान के गठन में मुख्य भूमिका निभाई थी। शुरू में इसके लिए परवेज मुशर्रफ को जिम्मेदार ठहराया गया लेकिन फिर पूर्वी अफगानिस्तान में टीटीपी से जुड़े एक सोलह साल के लड़के ने कबूल किया कि वह घटनास्थल पर सुसाइड वेस्ट पहनकर बैकअप के तौर पर तैयार बैठा था। बेनजीर अगर किसी कारणवश पहले फिदाईन से बच जातीं तो वही उनका काम तमाम कर देता। फिर नवंबर 2008 में मुंबई का आतंकी हमला हुआ, जिसके सारे रहस्यों से अभी तक पर्दा नहीं हट सका है। लेकिन अजमल कसाब की गिरफ्तारी से दुनिया के सामने यह स्पष्ट हो गया कि पाकिस्तान के सैन्य और खुफिया ढांचे में आतंकी तत्वों की आवाजाही है और यह पूरी दुनिया के सभ्य जीवन के लिए एक बड़ा खतरा है।

फिर 3 मार्च 2009 को पाकिस्तान दौरे पर गई श्रीलंका क्रिकेट टीम की बस पर आतंकी हमला हुआ, जिसके बाद से पाकिस्तान अपने सबसे लोकप्रिय खेल के अंतरराष्ट्रीय आयोजनों से हाथ धो बैठा। और इसका चरम रूप देखने को मिला 8 जून 2014 को, पेशावर में एक सैनिक स्कूल पर हुए बर्बर हमले में, जिसमें 132 बच्चों समेत डेढ़ सौ से ज्यादा लोग मौत के घाट उतार दिए गए। पाकिस्तानी इन्हीं घटनाओं के आधार पर खुद को आतंकवाद को शिकार बताते हैं। यह भी सही है कि उस समय पाकिस्तान ने टीटीपी के खिलाफ कुछ बड़े फौजी अभियान चलाए और कई बड़े तालिबानी आतंकियों का सफाया किया। लेकिन यह बताते हुए इसके पीछे की प्रक्रिया को वे गोल कर जाते हैं।

ठोस बिंदुओं के रूप में कहें तो पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच पांच मुख्य टकराव हैं, जो तालिबान के सत्ता में पहुंचने से कुछ देर टाले या उलझाए जा सकते हैं लेकिन खत्म नहीं किए जा सकते- 1. संप्रभुता से जुड़ी चिंताएं, 2. सुरक्षा संबंधी हित, 3. भूराजनीतिक समीकरणों में बदलाव, 4. सीमावर्ती इलाकों से जुड़े मसले, और 5. व्यापार और पारगमन। ध्यान रहे, तालिबान के पहली बार सत्ता में आने पर सिर्फ तीन देशों ने उसे राजनयिक मान्यता दी थी- खुद पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात।

लेकिन तालिबानी नेता पिछले तजुर्बे से अब इतना तो जान गए हैं कि अपनी गर्दन एक-दो देशों के हाथ में देकर सत्ता संभालना उनके लिए नामुमकिन है। इसीलिए उनके प्रतिनिधि मंडल इस बार सत्ता में आने के पहले से ईरान, चीन और रूस को साधने में जुटे रहे हैं और सऊदी अरब के धुर विरोधी खाड़ी देश कतर में उन्होंने अपना राजनयिक दफ्तर बना रखा है। इससे दो बातें तय हो जाती हैं। एक यह कि पाकिस्तान को पहले तालिबान शासन की तरह इस बार अफगानिस्तान तश्तरी में सजाकर नहीं मिलने वाला है। और दूसरी यह कि तालिबान से ज्यादा सटने में उसका फायदा ही फायदा नहीं है। इसके कुछ भारी नुकसान भी उसे उठाने पड़ेंगे।