इस बार खाली हाथ मैदान नहीं छोड़ेंगे बॉर्डर पर धरनारत किसान


किसान आन्दोलनकारी केंद्र सरकार के तीनों नए कानूनों की वापसी से कम पर किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं हैं। सरकार भी किसान भी दोनों ही अपनी -अपनी जिद पर अड़े हुए हैं ।



भारत का किसान गुस्से में है। उसका यह गुस्सा पंजाब से शुरू हुआ और पड़ोसी राज्य हरियाणा , उत्तर प्रदेश , उत्तराखंड , राजस्थान और मध्यप्रदेश होते हुए अब पूरे देश के किसानों में फ़ैल गया है। दिल्ली आने वाले सभी बॉर्डर एक- एक कर और धीरे-धीरे इस किसान आन्दोलन की गर्माहट से गर्म होते जा रहे हैं।

देश के किसानों को यह लगने लगा है कि जाने अनजाने सरकार कुछ ऐसा कर रही है जिससे किसानों को तो कोई फायदा ही नहीं बल्कि नुक्सान ही है और उनकी कीमत पर देश-विदेश के उद्योगपतियों , पूंजीपतियों और व्यावसायियों को फायदा पहुंचाया जा रहा है। ऐसा होना वो बर्दाश्त नहीं कर सकते इसलिए आन्दोलन की रह पर निकल पड़े है।

किसान आमतौर पर संतोषी होता है और बेवजह धरना प्रदर्शन कर अपना और अपने समाज का समय बर्बाद करने से परहेज करता है। जब स्थितियां काबू और बर्दाश्त के बाहर होने लगती हैं तब उसे थक-हार कर सड़क पर आन्दोलन करने के लिए मजबूर भी होना पड़ता है।

देश में अपवाद स्वरुप ही किसान आन्दोलन देखने को मिलते हैं इसी कड़ी में मौजूदा किसान आन्दोलन को भी अपवाद के एक रूप में ही देखा जा सकता है। किसान केंद्र सरकार के उन कानूनों के विरोध में सड़क पर हैं जो सितम्बर के महीने में देश की संसद द्ववारा पारित करने और इन तीन विधेयकों पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने के बाद वजूद में आए हैं।

सरकार अपने इन नए कानूनों को किसान हितैषी मानती है जबकि किसान मानते हैं कि ए क़ानून किसान को उसकी जमीन से बेदखल करने का हथियार बन गए हैं। सरकार और किसान दोनों पक्ष एक दूसरे को गलत साबित करने की कोशिश में दिखाई देते हैं लेकिन जन मानस किसान के पक्ष में दिखाई देता है।

इस आन्दोलन की शुरुआत जरूर पंजाब से हुई थी लेकिन जिन मुद्दों को लेकर किसान आन्दोलन कर रहे हैं उसके सरोकार देश के हर राज्य के किसानों से जुड़े हुए हैं।

किसान सरकार से तीनों क़ानून वापस लेने की मांग कर रहे हैं तो सरकार को यह लगता है कि नए कानूनों को लेकर किसान किसी तरह की गलत फहमी का शिकार हैं और विपक्षी पार्टियों के बहकावे में आकर किसानों ने आन्दोलन की राह पकड़ ली है।

इस लिहाज से सरकार किसी तरह किसानों की गलत फहमी दूर कर किसानों को समझाने और आन्दोलन समाप्त कर वापस घर भेजने की कोशिशों में लगी हुई है तो दूसरी तरफ किसान आन्दोलनकारी केंद्र सरकार के तीनों नए कानूनों की वापसी से कम पर किसी भी तरह का समझौता करने को तैयार नहीं हैं । सरकार भी किसान भी दोनों ही अपनी -अपनी जिद पर अड़े हुए हैं।

सरकार के लिए यह प्रतिष्ठा का सवाल है कि वो अपने ही बनाए कानूनों को वापस कैसे ले तो दूसरी तरफ किसानों को ऐसा लगता है कि जब नए कृषि क़ानून लागू होने से उनके सामने अपनी जमीन के ही हाथ से खिसक जाने का खतरा दिखाई दे रहा हो तब वो अधबीच अपना आन्दोलन वापस कैसे ले सकते हैं।

सरकार को कोई ठोस भरोसा तो देना ही होगा। विगत 26 -27 नवम्बर से दिल्ली के सिंघु बॉर्डर पर डटे पंजाब और हरियाणा के आन्दोलनकारी किसानों को केंद्र सरकार बहला -फुसला कर आन्दोलन वापस लेने की कोशिश तो बहुत कर रही है।

लेकिन किसानों को अपनी तरफ से देना कुछ नहीं चाह रही है इसी वजह से बात आगे नहीं बड़ रही है जब से आन्दोलनकारी सिंघु बॉर्डर पर जमे हैं तब से एक बार किसान और सरकार के बीच बातचीत का एक दौर हो भी चूका है लेकिन 1 दिसम्बर को हुई यह बातचीत बेनतीजा रही थी।

बातचीत का दूसरा दौर 3 दिसम्बर को होना तय हुआ है देखते हैं इसका हल क्या निकलता है लेकिन यह तो तय है कि सरकार को कुछ ठोस निर्णय तो लेना ही होगा।

अभी तो पंजाब-हरियाणा के एक बॉर्डर पर ही किसान जमा हैं धीरे-धीरे उत्तरप्रदेश बॉर्डर पर भी किसान जामा होने लगेंगे तथा हरियाणा के दिल्ली से लगे शेष बॉर्डर पर भी यही हाल हो गए तो देश की राजधानी दिल्ली में दूध-दही , फल सब्जी और आम उपयोग की अन्य दैनिक वस्तुओं का भी संकट हो जाएगा।

इसलिए सरकार कोशिश तो कर रही है उम्मीद की जानी चाहिये कि सरकार और किसान आन्दोलनकारियों के बीच बातचीत से इस समस्या का कोई सर्वमान्य हल जरूर निकलेगा।

अभी तक ऐसा लग रहा था कि सरकार की यही कोशिश है कि किसान आन्दोलनकारियों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाए और एक दिन वो निराश होकर खुद ही मैदान छोड़ कर चले जायेंगे । इस सोच के पीछे इतिहास की एक घटना भी है। बात संभवतः 1987 की है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर में अक्टूबर -नवम्बर के इसी सर्द मौसम में गन्ने की फसल का उचित दाम मिलने की मांग को लेकर किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में इसी तरह हजारों किसानों ने मेरठ कमीश्नरी मुख्यालय मैदान में डेरा जमा लिया था।

यह धरना कई दिनों तक चला स्थानीय लोगों को जरूर दिक्कत हुई लेकिन सरकार ने धैर्य से काम लिया और आन्दोलनकारी किसानों पर किसी तरह की जोर जबरदस्ती नहीं की। इसका असर यह हुआ कि एक दिन किसान नेता टिकैत ने सुबह -सुबह अचानक आन्दोलन वापस लेने की घोषणा कर दी थी।

लगता है इस बार भी सरकार ऐसे ही किसी करिश्मे की उम्मीद कर रही है। इस बार ऐसा संभव नहीं है इसकी एक सबसे बड़ी वजह है कि मेरठ का करीब तीन दशक पुराना वह किसान आन्दोलन क्षेत्रीय किस्म का था और आकार में इससे कहीं छोटा था। उस आन्दोलन का नेतृत्व एक व्यक्ति के हाथ में था और उसका निर्णय ही अंतिम था। यह आन्दोलन उससे एकदम भिन्न है ।

इसमें हरियाण और पंजाब राज्य के ही करीब 40 किसान संगठनों की भागीदारी है और देश क अन्य राज्यों के किसान भी धीरी-धीरे इसका हिस्सा बनते जा रहे हैं ऐसे में सरकार के यह सोचने भर से समाया का कोई हल नहीं निकल पायेगा कि थक -हार कर एक दिन किसान खुद ही आन्दोलन वापस ले लेंगे।

जब कोई आन्दोलन पचास के करीब संगठनों के सहयोग से आगे बढ़ रहा हो तब किसी एक संगठन या नेता के कहने से न तो आन्दोलन वापस हो सकता है और न ही किसी एक संगठन की मांग को ही मान लेने से सरकार का काम पूरा हो सकेगा। इसलिए आज की स्थिति में किसानों को आन्दोलन से विमुख कर उनके घरों को वापस भेजना बहुत बड़ी चुनौती भी है।