ग्रामयुग डायरी : फायरफ्लाईज के बीच


4 जुलाई को हमें प्राकृतिक कृषि का सफल प्रकल्प देखने के लिए तुमकुर जिले में स्थित गाँधीयन स्कूल ऑफ नेचुरल फार्मिंग ले जाया गया। वहां से लौटते हुए हमने बेंगलुरु का प्रसिद्ध इस्कान मंदिर देखा।


विमल कुमार सिंह
मत-विमत Updated On :

एक जुलाई 2022 को मैं दिल्ली की उमस भरी गर्मी से बहुत दूर कर्नाटक में था। पिछले कुछ वर्षों में मैंने कर्नाटक की खूब यात्रा की है। अभी कुछ महीने पहले मई में भी मैं कर्नाटक गया था। वहां कलबुर्गी जिले में स्थित सेडम नामक स्थान पर बसवराज पाटिल 2025 में भारत विकास संगम का एक विशाल सम्मेलन करने जा रहे हैं। इसी की तैयारी बैठक में भाग लेने के लिए उन्होंने मुझे 15 मई को सेडम बुलाया था।

कलबुर्गी यात्रा के बाद मेरे मन में देशभर में फैले अपने साथियों से मिलने की इच्छा प्रबल हो गई थी लेकिन मैं मजबूर था। न तो मैं सबके यहां जा सकता था और न ही सबको अपने पास बुला सकता था। इसी बीच एक दिन मुझे दूसरे बसवराज पाटिल जी ने याद किया जिनका उपनाम बीरापुर है। वे कर्नाटक के कोप्पल जिले से हैं जहां रामायण कालीन किष्किंधा के चिन्ह आज भी मौजूद हैं। उन्होंने जब मुझे जुलाई में बेंगलुरु में आयोजित होने वाली राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की बैठक में शामिल होने का निमंत्रण दिया तो मैंने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह राष्ट्रीय कार्यसमिति की विशेष चिंतन बैठक थी, इसलिए देश भर के सभी प्रमुख कार्यकर्ता इसमें शामिल हो रहे थे। यहां मुझे सबसे मिलने का सहज मौका मिलने वाला था।

राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन और भारत विकास संगम, दोनों ऐसे संगठन हैं जो श्री के.एन. गोविन्दाचार्य जी के विचार को केन्द्र में रखकर कार्य करते हैं। मेरा सौभाग्य है कि इन दोनों को मैंने वर्ष 2004 के बाद अपने सामने विकसित होते हुए देखा है। इनसे जुड़े कार्यकर्ताओं से मेरा बहुत ही करीबी रिश्ता रहा है। जब इन दोनों संगठनों का जन्म हुआ, उसी समय भारतीय पक्ष पत्रिका की भी शुरुआत हुई थी। इस पत्रिका के संपादक के नाते सबसे संपर्क में रहना मेरे काम का हिस्सा था।

वर्ष 2004 में दिल्ली के झंडेवालान स्थित भारतीय पक्ष कार्यालय में बैठकर कई बार मुझे यह अंदाजा नहीं हो पाता था कि अपना देश कितना बड़ा है। यह अंदाजा मुझे पहली बार तब हुआ जब मैंने रेलमार्ग से बेंगलुरु की यात्रा की थी। उस यात्रा के कई साल बाद पाटिल जी के सौजन्य से मुझे एक बार फिर बेंगलुरु जाना था। लेकिन मैंने तय किया था कि इस बार की यात्रा में भारत की विशालता को महसूस करने की बजाए कुछ और करूंगा।

29 जून की रात को जब मैं हजरत निजामुद्दीन स्टेशन पर दिल्ली बेंगलुरू राजधानी एक्सप्रेस ट्रेन में चढ़ा तो मेरे हाथ में एक किताब थी जिसका नाम है- मेड टु स्टिक। चिप हीथ और डैन हीथ की लिखी इस किताब में बताया गया है कि हम अपना मूल संदेश दूसरों को कैसे कहें कि वह उसे अच्छे से याद हो जाए। 311 पृष्ठ की इस किताब में जो बातें बताई गई हैं उसे लेखक एक शब्द में कहता है- SUCCES जो 6 शब्दों का शार्ट फार्म है। ये शब्द हैं- सिम्पल, अनएक्सपेक्टेड, क्रेडिबल, कंक्रीट, ईमोशनल और स्टोरी। अर्थात हमारा संदेश सामने वाला तभी याद रखेगा जब वह आसान, अनपेक्षित, विश्वसनीय, ठोस, भावपूर्ण और एक कहानी के रूप में हो।

एक समय जब लोगों के पास मोबाइल फोन नहीं थे, तब ट्रेन में किताब पढ़ने का एक अलग ही मजा था। लेकिन आजकल ऐसा नहीं रहा। अब कई लोग ट्रेन में अपने मोबाईल फोन को डीजे, टीवी और म्यूजिक सिस्टम की तरह इस्तेमाल करते हैं। ईयरफोन के इस्तेमाल से उनका आनंद खंडित हो जाता है, इसलिए सहयात्रियों को पीड़ा देना इनकी मजबूरी होती है। एक-दो ऐसे लोग हों तो उन्हें समझाया जा सकता है लेकिन जब पूरे कोच में अधिकांश लोग ऐसे ही भरे हों तो किसी को समझाने का खतरा मोल नहीं लिया जा सकता। इस समस्या से निपटने के लिए मैंने अपने मोबाइल में कुछ आडियो किताबें रख ली थीं। जब कोच में तुलनात्मक रूप से शांति होती तो मैं किताब पढ़ता किंतु जब शोर बहुत अधिक हो जाता तो मैं तुरंत ईयरफोन लगाकर अपनी आडियो किताबें सुनने लगता।

यह सब करते हुए मैं 1 जुलाई की सुबह बेंगलुरु स्टेशन पहुंच गया। वहां से मुझे 35 किमी दूर एक आश्रम पहुंचना था जिसका नाम है फायरफ्लाईज। मेट्रो और टैक्सी से होते हुए लगभग डेढ़ घंटे में जब मैं अपने ठिकाने पर पहुंचा तो सुबह के साढ़े आठ बजे होंगे, आसमान में बादल थे, लेकिन बारिश नहीं हो रही थी। मौसम अच्छा-खासा ठंडा था। आश्रम पहुंच कर जैसे ही टैक्सी रुकी, मैंने अपना सामान उतारा और आस-पास एक भरपूर नजर दौड़ाई। मुझे अपने चारों ओर नारियल और सुपारी के ऊंचे-ऊंचे पेड़, बांस के झुरमुट और नाना प्रकार की वनस्पतियों के बीच ग्रेनाइट पत्थर पर तराशी हुई कुछ रहस्यमयी मुर्तियां दिखाई दीं किंतु कहीं कोई मनुष्य नहीं दिखाई दिया। जब कोई नहीं दिखा तो मैंने अनुमान के सहारे एक पगडंडी पर आगे बढ़ना शुरू किया। कुछ ही देर बाद मुझे कॉफी की तलाश में घूमते हुए सुरेन्द्र सिंह बिष्ट दिखाई दिए। उन्हें देखकर मुझे यकीन हो गया कि मैं सही जगह पहुंच गया हूं।

फायरफ्लाईज का मतलब होता है जुगनू। प्रकृति और मनुष्य के बीच सामंजस्य को यहां के कण-कण में महसूस किया जा सकता है। मुझे बताया गया कि यह आश्रम धार्मिक नहीं बल्कि सामाजिक गतिविधियों के लिए समर्पित है। यहां मैं तीन दिन रहा। इस दौरान जहां मेरी पुराने लोगों से राम-राम हुई, वहीं कई नए लोगों से भी संपर्क हुआ। सभी ने तिरहुतीपुर के प्रयोग में रुचि दिखाई। केरल के विजू जी ने हमें कुटीर उद्योंगों की स्थापना में मदद करने का आश्वासन दिया जबकि छत्तीसगढ़ के पूरन छाबड़िया ने हमारे गांव में औषधीय खेती और बायोडीजल संबंधी प्रयोगों में साथ देने का वादा किया। बनारस के चंद्रशेखर मिश्रा जी ने भी कृषि उद्यमिता के क्षेत्र में हमारे साथ खड़ा रहने की बात कही। भीलवाड़ा के राजेन्द्र ओस्तवाल जी भारतीय पक्ष के प्रकाशन की सूचना से बड़े उत्साहित थे। 72 साल की उम्र में भी पत्रकारिता और सामाजिक कार्यों को लेकर उनके मन में जो उत्साह है, उसे देखकर बड़ी खुशी हुई।

लोगों से मिलने-जुलने के साथ-साथ चिंतन बैठक के सभी सत्रों में भी मेरी सक्रिय भागेदारी रही। दो से तीन जुलाई के बीच विविध सत्रों में राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन की मौलिक विचारधारा, संविधान, कार्यपद्धति और आगामी कार्ययोजना पर विस्तार से चर्चा हुई। एक खुला सत्र भी था, जिसमें अनेक साथियों ने अपने विचार व्यक्त किये। अंत में सर्वसम्मति से तय हुआ कि विचारधारा में ‘प्रकृति केंद्रित विकास की संकल्पना’ हमारा दर्शन है, ‘व्यवस्था परिवर्तन’ हमारा ध्येय है और ‘भारत परस्त गरीब परस्त’ हमारी नीतियों का आधार है। उद्घाटन और समापन सत्र में माननीय गोविंदाचार्य जी का प्रेरणादायक उद्बोधन हुआ। उन्होंने नवगठित राष्ट्रीय कार्यसमिति के पदाधिकारियों की घोषणा भी की। बसवराज पाटिल बीरापुर को संयोजक और सुरेन्द्र सिंह बिष्ट को कार्यकारी संयोजक बनाने से सभी प्रतिनिधि प्रशन्न थे।

बैठक के साथ-साथ प्रतिनिधियों को घुमाने की भी अच्छी व्यवस्था की गई थी। 3 जुलाई को हम निकट ही स्थित श्री श्री रविशंकर के विशाल आश्रम परिसर को देखने गए। उस रात हमारे भोजन की व्यवस्था वहीं थी। 4 जुलाई को हमें प्राकृतिक कृषि का सफल प्रकल्प देखने के लिए तुमकुर जिले में स्थित गाँधीयन स्कूल ऑफ नेचुरल फार्मिंग ले जाया गया। वहां से लौटते हुए हमने बेंगलुरु का प्रसिद्ध इस्कान मंदिर देखा। मंदिर से बाहर निकले तो पता चला कि हमारे रात्रि भोजन की व्यवस्था एक आर्गेनिक रेस्त्रां में की गई है जहां केवल प्राकृतिक खेती के उत्पादों से ही भोजन तैयार होता है। यह सब देखते हुए मैं मन ही मन सोच रहा था कि इन सब प्रयोगों को किस प्रकार तिरहुतीपुर के ग्रामयुग कैम्पस में संजोया जा सकता है?

(विमल कुमार सिंह, संयोजक, ग्रामयुग अभियान)