संविधान और तिरंगे को लेकर क्या रहा है RSS का रवैया ?


26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपनाया। यह तय किया गया कि 26 जनवरी, 1950 से पूरे देश में इसे लागू किया जाएगा और फिर इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इसका जश्न न केवल भारत, बल्कि दुनियाभर में मनाया गया। वहीं RSS ने इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर शोक व्यक्त किया।


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संसद में संविधान के 75 वर्ष पूरे होने पर चल रही चर्चा में RSS और उसके नेताओं का नाम कई बार उठा है। “हरकारा” ने विभिन्न प्रामाणिक स्रोतों तक जाकर कुछ तथ्य बटोरने की कोशिश की है, जो भारत के संविधान और राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे को लेकर RSS के रवैये को रेखांकित करते हैं।

26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपनाया। यह तय किया गया कि 26 जनवरी, 1950 से पूरे देश में इसे लागू किया जाएगा और फिर इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाएगा। इसका जश्न न केवल भारत, बल्कि दुनियाभर में मनाया गया।

वहीं RSS ने इस ऐतिहासिक उपलब्धि पर शोक व्यक्त किया। संविधान सभा की ओर से संविधान पारित किए जाने के 3 दिन बाद 30 नवंबर, 1949 को RSS के अंग्रेजी मुखपत्र ‘ऑर्गनाइजर’ ने लिखा- ‘हमारे संविधान में, प्राचीन भारत में अद्वितीय संवैधानिक विकास का कोई उल्लेख नहीं है। मनु के कानून स्पार्टा के लाइकर्गस या फारस के सोलन से बहुत पहले लिखे गए थे। आज भी मनुस्मृति में वर्णित उनके कानून दुनिया भर में प्रशंसा का विषय हैं और सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता को बढ़ावा देते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कोई मतलब नहीं है।’

स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर 14 अगस्त, 1947 को RSS के मुखपत्र ऑर्गनाइजर के संपादकीय में ‘व्हीदर’ शीर्षक से लिखा- ‘हमें अब खुद को राष्ट्रवाद की झूठी धारणाओं से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए। मानसिक भ्रम तथा वर्तमान और भविष्य की बहुत-सी परेशानियां इस सरल तथ्य की तत्काल मान्यता से दूर हो सकती हैं कि हिन्दुस्तान में केवल हिंदू ही राष्ट्र का निर्माण करते हैं और राष्ट्रीय संरचना को उस सुरक्षित और ठोस नींव पर बनाया जाना चाहिए। राष्ट्र को स्वयं बनाया जाना चाहिए- हिंदुओं की, हिंदू परंपराओं, संस्कृति, विचारों और आकांक्षाओं पर।’

विनायक दामोदर सावरकर भी देश की संविधान में मनु के कानूनों को लागू करना चाहते थे। वह लिखते हैं-‘मनुस्मृति वह शास्त्र है जो हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक पूजनीय है और जो प्राचीन काल से हमारी संस्कृति- रीति- रिवाजों, विचारों और व्यवहार का आधार बन गया है। सदियों से इस पुस्तक ने हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक और दिव्य यात्रा को संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिंदू अपने जीवन और व्यवहार में जिन नियमों का पालन करते हैं, वे मनुस्मृति पर आधारित हैं। आज मनुस्मृति हिंदू कानून है। यही मौलिक है।
(वीडी सावरकर, ‘मनुस्मृति में महिलाएं’)

हिंदुत्व दक्षिणपंथी और कांग्रेस के भीतर रूढ़िवादी वर्गों ने, भगवा वस्त्रधारी स्वामियों और साधुओं के साथ मिलकर हिंदू कोड बिल के अधिनियमन का विरोध किया। विरोध में वे पूरे देश में सड़कों उतरे। दिल्ली में डॉ. बीआर अंबेडकर के आवास पर धावा बोल दिया।

अंबेडकर आवास पर हमले के पक्ष में उनका दिया तर्क यह था- यह विधेयक ‘हिंदू धर्म और संस्कृति’ पर हमला है’।

(इकोनॉमिक वीकली, 24 दिसंबर, 1949 और सावरकर समग्र (हिंदी में सावरकर के लेखों का संग्रह), प्रभात, दिल्ली, खंड 4, पृष्ठ 415।)

इस विधेयक पर इतिहासकार रामचंद्र गुहा की पुस्तक का एक अंश- ‘हिंदू कोड बिल विरोधी समिति ने पूरे भारत में सैकड़ों बैठकें कीं, जहां विभिन्न स्वामियों ने प्रस्तावित कानून की निंदा की। इस आंदोलन में भाग लेने वालों ने खुद को धार्मिक योद्धा (धर्मवीर) के रूप में पेश किया, जो धार्मिक युद्ध (धर्मयुद्ध) लड़ रहे थे। RSS ने आंदोलन के पीछे अपना पूरा जोर लगाया। 11 दिसंबर, 1949 को, RSS ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक सार्वजनिक बैठक आयोजित की, जहां एक के बाद एक वक्ताओं ने विधेयक की निंदा की। एक ने इसे ‘हिंदू समाज पर परमाणु बम’ कहा।

अगले दिन RSS कार्यकर्ताओं के एक समूह ने विधानसभा भवन पर मार्च किया और ‘हिंदू कोड बिल मुर्दाबाद’ के नारे लगाए। प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री और डॉ। अंबेडकर के पुतले जलाए और फिर शेख अब्दुल्ला की कार में तोड़फोड़ की।’
(रामचंद्र गुहा, ‘भागवत्स ‘अम्बेडकर’, इंडियन एक्सप्रेस, दिसंबर 10, 2015)

भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था- ‘हिंदू कोड बिल हिंदू संस्कृति की शानदार संरचना को चकनाचूर कर देगा’।

‘बंच ऑफ थॉट्स’ में गोलवलकर ने स्पष्ट शब्दों में ऐसी नीतियों की आलोचना की- ‘हमें जाति, पंथ आदि के आधार पर समूह बनाने और सेवाओं, वित्तीय सहायता, शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश और ऐसे सभी अन्य क्षेत्रों में विशेष अधिकारों और विशेषाधिकारों की मांग करने पर पूरी तरह रोक लगानी चाहिए। अल्पसंख्यकों और समुदायों के बारे में बात करना और सोचना पूरी तरह से बंद कर देना चाहिए।’

इसी पुस्तक में एक अन्य स्थान पर वे लिखते हैं- ‘डॉ. अंबेडकर ने 1960 में गणतंत्र बनने के दिन से केवल 10 वर्षों के लिए ‘अनुसूचित जातियों’ के लिए विशेष विशेषाधिकारों की परिकल्पना की थी, लेकिन यह जारी है। इसे बढ़ाया जा रहा है। एक अलग इकाई के रूप में बने रहने में उनके निहित स्वार्थ जारी हैं। इससे बाकी समाज के साथ उनके एकीकरण को नुकसान पहुंचेगा।’

आजादी के बाद एमएस गोलवलकर ने लिखा-‘हमारा संविधान भी पश्चिमी देशों के विभिन्न संविधानों के विभिन्न अनुच्छेदों का एक बोझिल और विषम संयोजन मात्र है। इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसे हमारा अपना कहा जा सके। क्या इसके मार्गदर्शक सिद्धांतों में इस बात का एक भी संदर्भ है कि हमारा राष्ट्रीय मिशन क्या हैं और जीवन में हमारा मुख्य उद्देश्य क्या है?’

(एम.एस. गोलवलकर, बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु, बैंगलोर, 1966, पृष्ठ 238)

लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारतीय संविधान के बदले RSS हिंदू राष्ट्र बनाने का संकल्प लेता है। यह उसकी रोजाना की प्रार्थना में शामिल है। प्रार्थना इस प्रकार है- ‘प्यारी मातृभूमि, मैं तुम्हें सदा नमन करता हूं/ हे हिंदुओं की भूमि, तुमने मुझे सुख-सुविधाओं से पाला है/हे पवित्र भूमि, भलाई की महान निर्माता, मेरा यह शरीर तुम्हें समर्पित हो/मैं बार-बार तुम्हारे सामने झुकता हूं/हे सर्वशक्तिमान ईश्वर, हम हिंदू राष्ट्र के अभिन्न अंग आपको श्रद्धापूर्वक प्रणाम करते हैं/आपके उद्देश्य के लिए हमने कमर कस ली है/ इसकी सिद्धि के लिए हमें अपना आशीर्वाद दें।’
(RSS, शाखा दर्शिका, ज्ञान गंगा, जयपुर, 1997, पृष्ठ-1)

राष्ट्रीय एकता परिषद (1961) के पहले सम्मेलन में गोलवलकर ने कहा- ‘आज की संघीय सरकार न केवल अलगाव की भावनाओं को जन्म देती है, बल्कि उसका पोषण भी करती है। एक तरह से एक राष्ट्र के तथ्य को पहचानने से इनकार करती है। उसे नष्ट कर देती है। इसे पूरी तरह से उखाड़ फेंकना होगा। संविधान को शुद्ध करना होगा और एकात्मक शासन प्रणाली स्थापित करनी होगी।
(एसजीएसडी, खंड 1, पृष्ठ 11, ‘आरएसएस-मार्केटिंग फासीवाद एज़ इंडियन नेशनलिज्म, पृष्ठ 146; या श्री गुरुजी समग्र, पृष्ठ 128, खंड 3 में उद्धृत)

1960 के दशक के मध्य में, गोलवलकर ने एक मराठी दैनिक, नवकाल को एक साक्षात्कार दिया था। इसमें एक बार फिर मनुस्मृति की प्रशंसा की थी और संविधान में दोष निकाले थे।’

गोलवलकर की एक किताब है ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाइंड’। 1946 में आए इसके चौथे संस्करण के अनुसार- ‘हिंदुस्तान के सभी ग़ैर-हिंदुओं को हिंदू संस्कृति और भाषा अपनानी होगी। हिंदू धर्म का आदर करना होगा और हिंदू जाति अथवा संस्कृति के गौरव गान के अलावा कोई विचार अपने मन में नहीं रखना होगा।’

इसी किताब के पृष्ठ 42 पर वे लिखते हैं- ‘जर्मनी ने जाति और संस्कृति की शुद्धता बनाए रखने के लिए सेमेटिक यहूदी जाति का सफाया कर पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया था। इससे जातीय गौरव के चरम रूप की झांकी मिलती है।’

गोलवलकर की एक और किताब है ‘बंच ऑफ थॉट्स’। इस किताब में वर्ण व्यवस्था के समर्थन में लिखते हैं- ‘हमारे समाज की विशिष्टता थी वर्ण व्यवस्था। इसे आज जाति व्यवस्था बताकर उसका उपहास किया जाता है। समाज की कल्पना सर्वशक्तिमान ईश्वर की चतुरंग अभिव्यक्ति के रूप में की गई थी। इसकी पूजा सभी को अपनी योग्यता और अपने ढंग से करनी चाहिए। ब्राह्मण को इसलिए महान माना जाता था, क्योंकि वह ज्ञान दान करता था। क्षत्रिय भी उतना ही महान माना जाता था, क्योंकि वह शत्रुओं का संहार करता था। वैश्य भी कम महत्वपूर्ण नहीं था, क्योंकि वह कृषि और वाणिज्य के द्वारा समाज की आवश्यकताएं पूरी करता था और शूद्र भी जो अपनी कला कौशल से समाज की सेवा करता था।’

महिलाओं के लिए लाए गए हिन्दू कोड बिल के विरोध में गोलवलकर ने लिखा- महिलाओं को बराबरी का अधिकार मिलने से पुरुषों के लिए ‘भारी मनोवैज्ञानिक संकट’ खड़ा हो जाएगा जो ‘मानसिक रोग व अवसाद’ का कारण बनेगा।
(पॉला बचेटा, जेंडर इन द हिन्दू नेशन: आरएसएस वुमेन एज आइडियोलाग्स, पृ। 124)

RSS के तीसरे सरसंघचालक रज्जू भैया उर्फ राजेंद्र सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस (14 जनवरी, 1993) में लिखा- ‘वर्तमान संघर्ष को आंशिक रूप से हमारे सिस्टम की अपर्याप्तता के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो मूल भारत, इसकी परंपरा, मूल्यों और लोकाचार की जरूरतों का जवाब देने में असमर्थ है। इस देश की कुछ विशेषताओं को संविधान में प्रतिबिंबित किया जाना चाहिए। ‘इंडिया दैट इज भारत’ के स्थान पर हमें भारत दैट इज हिंदुस्तान कहना चाहिए था। आधिकारिक दस्तावेज समग्र संस्कृति का उल्लेख करते हैं, लेकिन हमारी संस्कृति निश्चित रूप से समग्र नहीं है। संस्कृति कपड़े पहनना या भाषा बोलना नहीं है। बहुत ही बुनियादी अर्थों में, इस देश में एक अनूठी सांस्कृतिक एकता है। कोई भी देश, अगर उसे जीवित रहना है, तो उसे खंडित नहीं किया जा सकता। यह सब दर्शाता है कि संविधान में बदलाव की जरूरत है। भविष्य में इस देश के लोकाचार और प्रतिभा के अनुकूल एक संविधान को अपनाया जाना चाहिए।

तिरंगा से भी था विरोध : दिसंबर 1929 में, कांग्रेस ने अपने लाहौर अधिवेशन में लोगों से हर अगले साल 26 जनवरी को तिरंगे को प्रदर्शित करके और उसे सलामी देकर स्वतंत्रता दिवस मनाने का आह्वान किया (यह उस समय राष्ट्रीय आंदोलन का ध्वज था जिसके बीच में चरखा था)। जब 26 जनवरी, 1930 का दिन नजदीक आ रहा था, तब RSS के सरसंघचालक और संस्थापक केबी हेडगेवार ने 21 जनवरी, 1930 को एक परिपत्र जारी कर सभी RSS शाखाओं को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में भगवा झंडे की पूजा करने के लिए कहा।

राष्ट्रीय सहमति का उल्लंघन करते हुए, परिपत्र में सभी शाखाओं के प्रभारियों से कहा गया कि वे रविवार, 26 जनवरी, 1930 को शाम 6 बजे अपने-अपने संघ स्थानों (जहां शाखाएं लगती हैं) पर अपने-अपने स्वयंसेवकों की बैठक करें और ‘राष्ट्रीय ध्वज, यानी भगवा ध्वज’ को प्रणाम करें।’

(ध्यान देने वाली बात यह है कि इस परिपत्र को कभी वापस नहीं लिया गया।)
(पालकर, एन.एच. (सं.), डॉ. हेडगेवार: पत्र-रूप भक्ति दर्शन (हेडगेवार के पत्रों का हिंदी अनुवाद), अर्चना प्रकाशन, इंदौर, 1981, पृ. 18।)

समाजवादी नेता और स्वतंत्रता सेनानी एनजी गोरे 1938 में एक ऐसी ही घटना के गवाह बने थे। जब हिंदुत्व कार्यकर्ताओं ने तिरंगा फाड़ दिया और प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों पर शारीरिक हमला किया था। गोरे के अनुसार: ‘मई दिवस के जुलूस पर किसने हमला किया? सेनापति बापट और (गजानन) कानितकर जैसे लोगों पर किसने हमला किया? राष्ट्रीय ध्वज किसने फाड़ा? हिंदू महासभा और हेडगेवार के लड़कों ने यह सब किया। उन्हें मुसलमानों से सार्वजनिक दुश्मन नंबर 1 के रूप में नफरत करना सिखाया गया है। कांग्रेस और उसके झंडे से नफरत करना सिखाया गया है। उनके पास अपना खुद का झंडा है, ‘भगवा’, जो मराठा वर्चस्व का प्रतीक है।’
(कांग्रेस समाजवादी, 14 मई 1938)

वीडी सावरकर ने भी तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज मानने से इनकार कर दिया था। इसके बहिष्कार की मांग करते हुए, उन्होंने 22 सितंबर, 1941 को एक बयान में घोषणा की- ‘जहां तक ध्वज के प्रश्न का संबंध है, हिंदुओं को ‘कुंडलिनी कृपाणंकित’ महासभा के ध्वज के अलावा हिंदू धर्म का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई अन्य ध्वज नहीं पता है, जिस पर ‘ओम और स्वास्तिक’ अंकित है, जो हिंदू जाति और नीति के सबसे प्राचीन प्रतीक हैं, जो युगों-युगों से चले आ रहे हैं और पूरे हिंदुस्तान में सम्मानित हैं। इसलिए कोई भी स्थान या समारोह, जहां इस अखिल हिंदू ध्वज का सम्मान नहीं किया जाता है, उसका हिंदू संगठनवादियों (हिंदू महासभा के सदस्यों) द्वारा किसी भी कीमत पर बहिष्कार किया जाना चाहिए। विशेष रूप से चरखा-ध्वज खादी-भंडार का प्रतिनिधित्व कर सकता है, लेकिन चरखा कभी भी हिंदुओं जैसे गौरवशाली और प्राचीन राष्ट्र की भावना का प्रतीक और प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।’

(भिड़े, ए।एस। (संपादक), विनायक दामोदर सावरकर का तूफानी प्रचार: दिसंबर 1937 से अक्टूबर 1941 तक के उनके प्रचार दौरों के साक्षात्कारों की राष्ट्रपति की डायरी से अंश, एनए, बॉम्बे पृ. 469, 473।)

गोलवलकर ने 1940 में RSS मुख्यालय रेशम बाग में RSS के 1350 शीर्ष स्तरीय कार्यकर्ताओं के समक्ष भाषण में कहा था- ‘एक ध्वज, एक नेता और एक विचारधारा से प्रेरित RSS इस महान भूमि के हर कोने में हिंदुत्व की ज्योति जला रहा है।’

(एम. एस. गोलवलकर, श्री गुरुजी समग्र दर्शन (हिंदी में गोलवलकर की संकलित रचनाएं), खंड 1, भारतीय विचार साधना, नागपुर, पृष्ठ 11।)

एमएस गोलवलकर ने 14 जुलाई, 1946 को नागपुर में RSS के मुख्यालय में गुरुपूर्णिमा सभा को संबोधित करते हुए कहा था- ‘यह भगवा ध्वज ही था, जो समग्र रूप से भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता था। यह ईश्वर का अवतार था। हमारा दृढ़ विश्वास है कि अंत में पूरा देश इस भगवा ध्वज के सामने झुकेगा।’

(गोलवलकर, एम. एस., श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड 1, भारतीय विचार साधना, नागपुर, एनडी, पृष्ठ 98।)

स्वतंत्रता की पूर्व संध्या पर जब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के तिरंगा फहराने के लिए लाल किले की प्राचीर तैयार की जा रही थी। तब वक्त भारत के हर हिस्से में आम आदमी तिरंगे के साथ मार्च कर रहा था और घरों की छतों पर राष्ट्रीय ध्वज फहरा रहा था। तब RSS के अंग्रेजी मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने 14 अगस्त, 1947 के अपने अंक में लिखा-

‘भाग्य की मार से सत्ता में आए लोग भले ही हमारे हाथों में तिरंगा थमा दें, लेकिन हिंदू कभी भी इसका सम्मान नहीं करेंगे और इसे नहीं अपनाएंगे। तीन शब्द अपने आप में एक बुराई है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित रूप से बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करेगा और देश के लिए हानिकारक है।’

ऑर्गनाइजर ने एक संपादकीय (‘राष्ट्र का ध्वज’ 17 जुलाई, 1947) इससे पहले भी तब लिखा था, जब भारत की संविधान सभा की समिति ने राष्ट्रीय ध्वज के रूप में तिरंगे के पक्ष में निर्णय लिया था- ‘हम इस बात से बिल्कुल सहमत नहीं हैं कि ध्वज भारत में सभी दलों और समुदायों को स्वीकार्य होना चाहिए। यह सरासर बकवास है। ध्वज राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है और हिंदुस्तान में केवल एक राष्ट्र है, हिंदू राष्ट्र। हम सभी समुदायों की इच्छाओं और इच्छाओं को संतुष्ट करने के उद्देश्य से ध्वज का चयन नहीं कर सकते। हम ध्वज का चयन उसी तरह नहीं कर सकते जैसे हम दर्जी को अपने लिए शर्ट या कोट बनाने का आदेश देते हैं।’

स्वतंत्रता के बाद भी RSS ने तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज मानने से इनकार कर दिया था। ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में ‘ड्रिफ्टिंग एंड ड्रिफ्टिंग’ नामक निबंध में गोलवलकर ने लिखा- ‘हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए एक नया झंडा स्थापित किया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ बहकने और नकल करने का मामला है। हमारा देश एक प्राचीन और महान राष्ट्र है, जिसका अतीत गौरवशाली है। तो क्या हमारे पास अपना कोई झंडा नहीं था? क्या इन हजारों सालों में हमारे पास कोई राष्ट्रीय प्रतीक नहीं था? निस्संदेह हमारे पास था। तो फिर हमारे दिमाग में यह पूर्ण शून्यता क्यों है?’

(गोलवलकर, एम.एस., बंच ऑफ थॉट्स, साहित्य सिंधु प्रकाशन, बैंगलोर, 1966, पृ. 237-38।)

(डेली न्यूज लेटर हरकारा ने ये शोधपरक सामग्री अपने आज के अंक में प्रकाशित की है)