कहा जाता है क्रांति अपने बच्चों को खा जाती है। फ्रांस की क्रांति को लेकर कही गई यह बात अमेरिकी क्रांति, रूसी क्रांति, चीनी क्रांति सहित विश्व की कई अन्य छोटी-बड़ी क्रांतियों के बारे में भी कही जाती रही है। विद्वानों ने क्रांति के इस समस्यात्मक पहलू पर विस्तार से विचार किया है। लेकिन प्रतिक्रांति क्या करती है, इस जरूरी विषय पर विद्वानों ने अपेक्षित ध्यान नहीं दिया है। दुनिया का सामने पड़ा यथार्थ गौर से देखें तो कहा जा सकता है कि प्रतिक्रांति रक्षा-कवच बन कर अपने बच्चों को बचाती है, और चुन-चुन कर क्रांति से संबद्ध पुरखों का भक्षण करती है।
किशन पटनायक के अलावा किसी अन्य नेता या विचारक ने साफ तौर पर यह नहीं कहा है कि वैश्वीकरण की प्रक्रिया दरअसल वैश्विक प्रतिक्रांति की प्रक्रिया है। नवउदारवाद के साढ़े तीन दशक बीतने के बाद यह कह सकते हैं कि भारत उस प्रतिक्रांति का संघटक अंग बन चुका है; और मुखर गुणगायक भी। इस मुकाम पर भारत की प्रतिक्रांति पर नजर डालें तो पाते हैं कि वह कलाबाजी अंदाज में अपने पुरखों का भक्षण करते हुए परिपुष्ट हुई है। उन पुरखों का जो स्वतंत्रता, संप्रभुता, समानता, स्वावलंबन, सद्भाव, साहित्य, संस्कृति, सभ्याचार के गतिशील स्रोत रहे हैं।
यानि, हमारे समाजीय एवं राष्ट्रीय जीवन के प्रतीक और अनुप्रतीक। भारत में चल रही प्रतिक्रांति की आंधी इस कदर बलवती है कि उसकी भूख केवल ऐतिहासिक प्रतीकों-अनुप्रतीकों के भक्षण तक सीमित नहीं रहती; वह समय के अनंत आयाम में निवास करने वाले आध्यात्मिक-धार्मिक प्रतीकों को भी अपना भोज्य बना रही है।
साम्राज्यवादी वर्चस्व और दृष्टि के खिलाफ भारत के स्वतंत्रता संग्राम को विश्व में एक शानदार क्रांति का नाम दिया गया था। उस क्रांति का संदेश एशिया, अफ्रीका, अमेरिका महाद्वीपों के उपनिवेशित देशों तक तो पहुंचा ही, यूरोप के साम्राज्यवादी देश भी उसके प्रभाव से अछूते नहीं रहे। आजाद भारत को राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर उस क्रांति को फलश्रुति तक लेकर जाना था। साम्राज्यवादी शक्तियों ने स्थानीय सांप्रदायिक तत्वों को साथ मिला कर देश का विभाजन करके शुरुआत में ही भारत की क्रांति को एक बड़ा झटका दिया। उधर भारत की आजादी के साथ साम्राज्यवाद के अगले चरण की बागडोर अमेरिका के हाथ में आई।
साम्राज्यवाद का अमेरिकी संस्करण साम्राज्यवाद के पहले चरण के मुकाबले ज्यादा समता विरोधी और प्रतिगामी था। वह विगत हुए साम्राज्यवाद का अवशेष मात्र नहीं था, जिसे नव-स्वतंत्र राष्ट्रों के अभ्युदय के साथ समाप्त हो जाना था। अमेरिका ने एशिया, अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका के स्वतंत्र हुए देशों को नवसाम्राज्यवादी जुए के नीचे लाने की दूरगामी रणनीति-कूटनीति के तहत नई आर्थिक-सामरिक-व्यावसायिक-शैक्षिक और खुफिया संस्थाओं का निर्माण और फैलाव का काम शुरू किया। उसने विभिन्न उपनिवेशों के स्वामी रहे यूरोप के देशों को साम्राज्यवाद के नए संस्करण की मजबूती और प्रसार में अपना पिछलग्गू बना लिया।
बाजार, हथियार, मिथ्याचार और व्यभिचार के पायों पर स्थित साम्राज्यवाद का अमेरिकी अवतार पूरी दुनिया का स्वप्न है। इसे ‘अमेरिकी ड्रीम’ कहा जाता है। अमेरिकी ड्रीम क्या है, और इसका जादू कैसे सिर चढ़ कर बोलता है, यह विचारने का एक रोचक विषय है। लेकिन यहां इसकी विस्तृत चर्चा का अवसर नहीं है। यहां केवल यह कहना है कि आजाद भारत के नेतृत्व ने अगर गांधी का रास्ता नहीं पकड़ा, तो वह अमेरिकी ड्रीम का गुलाम भी नहीं बना।
भारत में गांधी की हत्या के बाद करीब 10 साल तक भारत की क्रांति की कुछ आभा शासक-वर्ग और जनता के बीच बनी रही। उसके बाद भी प्रतिपक्ष के कुछ बड़े नेता और विचारक गांधीयुगीन क्रांतिकारी चेतना की नई परिस्थितियों में व्याख्या और विस्तार का काम करते रहे। कई धाराओं में विभाजित देश का समाजवादी आंदोलन भारतीय क्रांति को समाजवादी क्रांति में रूपांतरित करने के लिए सक्रिय बना रहा। उनके काम का कुछ न कुछ दबाव नीति-निर्माताओं और सांप्रदायिक-दक्षिणपंथी तत्वों पर पड़ता था।
दुनिया के स्तर पर अन्याय का प्रतिकार करने वाले कई संघर्षशील नेताओं ने भारत की क्रांति के तरीके और मूल्यों से प्रेरणा ग्रहण करके अपना संघर्ष चलाया। लेकिन भारत में आजादी की उपलब्धियों का लाभ लूटने वाला तबका, जिसका बड़ा हिस्सा भ्रष्ट और बेईमान बन गया था, अमेरिकी ड्रीम का दरवाजा खोलने के लिए बेताब हो उठा था। आजादी के चार दशक बीतते-बीतते अमेरिकी ड्रीम ने भारत की क्रांति का भारत में ही नाम-शेष कर डाला।
सबसे पहले राजीव गांधी को आश्चर्य और अफसोस हुआ कि दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों में अलगाव क्यों बना रहा है? फिर नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी ने नई आर्थिक नीतियों और डुंकेल प्रस्तावों के जरिए भारत को अमेरिकी ड्रीम की खुली चारागाह के रूप में खोल दिया। एचडी देवगौड़ा, चिदंबरम जिनके वित्तमंत्री थे, भारत में बिल गेट्स आए तो उनकी अगवानी में सिंहासन छोड़ कर नंगे पैर दौड़ पड़े। फिर अटलबिहारी वाजपेयी आए, और जसवंत सिंह-टालबोट वार्ताओं का लंबा सिलसिला चला। उन्होंने भारत के भाग्य को मजबूती के साथ अमेरिकी ड्रीम से नत्थी कर दिया।
भाजपा-नीत एनडीए सरकार को एक ही टर्म मिल पाया। सरकारों के बाहर नवसाम्राज्यवादी गुलामी के खिलाफ बड़ी तादाद में भारत के लोगों की जद्दोजहद जारी थी। सरकार बदली और मनमोहन सिंह कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री बने। राजीव गांधी के बाद की 2014 की मोदी सरकार के पहले की सभी सरकारें मिली-जुली थीं। कम्युनिस्टों और सोशलिस्टों समेत मुख्यधारा राजनीति के सभी खिलाड़ी दल/नेता किसी न किसी हैसियत में इन सरकारों में शामिल थे। ज्यादातर बुद्धिजीवी या तो नवउदारवाद के सीधे पैरोकार बन चुके थे, या प्रछन्न नवउदारवादी की भूमिका में थे।
इस बीच विदेशी धन, अमेरिका जिसका प्रमुख केंद्र है, लेकर अध्ययन/शोध और समस्या-निवारण का काम करने वाले एनजीओ का जाल पूरे देश में बिछ चुका था। विदेशी धन के साथ यह शर्त जुड़ी हुई थी कि राजनीति और विचार के क्षेत्र में अमेरिकी ड्रीम के खिलाफ कोई सच्ची आवाज बची न रहे। स्वतंत्रता संघर्ष में आंदोलित हुई पूरी भारतीय जनता को अमेरिकी ड्रीम की अफीम चटाने का बहुमुखी कारोबार तेजी से फैलने लगा। कारपोरेट घरानों के स्वामी और सीईओ सरकारों/नेताओं को निर्देशित करने लगे। दलालों और बाहुबलियों की राजनीतिक ताकत के साथ स्वीकृति भी बढ़ने लगी। राजनीतिक और बौद्धिक वर्ग में बहुत थोड़े लोग वास्तविकता में इस सर्वग्रासी प्रतिक्रांति के चरित्र और खतरों को समझ कर संघर्ष कर रहे थे।
प्रतिक्रांतिकारी पक्ष की तरफ से यह ठीक ही कदम था कि उन्होंने भारत की क्रांति के सबसे बड़े पुरखा-पुरुष गांधी को अमेरिकी ड्रीम के हमाम में स्नान कराया! नरसिंह राव ने अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए घोषणा की कि वे गांधी के सपनों का भारत बना रहे हैं। उनके बाद वाजपेयी ने वाशिंगटन डीसी में गांधी मेमोरियल म्यूजियम के उद्घाटन कार्यक्रम में, और फिर अमेरिकी कांग्रेस में भाषण कर अपने “गांधीवादी समाजवाद” की चूल अमेरिकी साम्राज्यवाद के साथ बिठाने की कवायद की। मनमोहन सिंह ने अमेरिकी कांग्रेस के मंच से एक बार फिर दुनिया को बताया कि गांधी के सपनों का भारत बनाने का काम तेजी चल रहा है। जिस गांधी ने शर्त रखी थी कि अमेरिका डॉलर को ईश्वर के सिंहासन से नीचे उतार दे तो वे अमेरिका आ सकते हैं, भारत के शासक-वर्ग ने उसके सपने को अमेरिकी ड्रीम में डुबा कर मार दिया।
इस चर्चा का आशय केवल यह स्पष्ट करना है कि भारत की क्रांति के सबसे बड़े अनुप्रतीक को भारत की प्रतिक्रांति का पहला भक्ष्य बनाया गया; और इस कृत्य में सभी धाराओं के राजनीतिक और बौद्धिक अभिजन (इलीट) सहभागी रहे हैं। किसी ने यह तो नहीं ही कहा कि गांधी का सपना अमेरिकी ड्रीम का विकल्प है; किसी ने यह भी नहीं कहा कि सर्वसम्मति अगर अमेरिकी ड्रीम के पक्ष में है तो गांधी के सपने की नाहक दुहाई न दी जाए; फैसला राजनीति-बौद्धिक अभिजन का है, तो उसके लिए जिम्मेदार भी वही है। गांधी नहीं।
यह सिलसिला गांधी तक सीमित नहीं रहना था। आजादी के प्राय: सभी प्रतीकों और अनुप्रतीकों को प्रतिक्रांति के हमाम में खींच लिया गया। 2007 में 1857 की क्रांति के डेढ़ सौ साल होने पर कांग्रेस ने मेरठ से दिल्ली तक ‘क्रांति-यात्रा’ निकाली। कई नागरिक समाज एक्टिविस्ट और लेखक-विचारक उसमें शामिल हुए। 1991 में देश की आजादी को नवसाम्राज्यवाद के चरणों में विधिवत गिरवीं रखने वाले मनमोहन सिंह ने लाल किला पर क्रांति यात्रियों की अगवानी की।
सरकारी अनुदान से 1857 के विविध पहलुओं पर आयोजित संगोष्ठियों की जैसे बाढ़ आ गई थी। ऐसा लगा था कि भारत का बौद्धिक-वर्ग 1857 की साम्राज्यवाद विरोधी चेतना की पहचान कर नवसाम्राज्य विरोध की चेतना को धार देगा। लेकिन वह सारा आयोजन 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में प्राणों की बाजी लगाने वाले जाने-माने और अनाम पुरखों को प्रतिक्रांति का भक्ष्य बनाने वाला सिद्ध हुआ।
नवसाम्राज्यवादी प्रतिक्रांति के मेल में अलग-अलग देशों में कई मिनी प्रतिक्रांतियां घटित हुईं हैं। भारत में भी यह हुआ है। 1857 के विद्रोह की डेढ़ सौवीं सालगिरह के चार-पांच साल के अंदर ही एनजीओ सरगनाओं और आरएसएस द्वारा बिछाई गई संयुक्त बिसात पर आधिकारिक कम्युनिस्ट, खुद को जातिवादी समाजवाद से ऊपर मानने वाले सोशलिस्ट, नागरिक समाज एक्टिविस्ट, अलग-अलग क्षेत्रों के प्रोफेसनल्स, लेखक, विद्वान, धर्म-ध्यान-योग के धंधेबाज बाबा, कारपोरेट घराने और पूरा मीडिया भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के नाम से की गई प्रतिक्रांति के पक्ष में एकजुट हो गए।
दो दशकों के नवउदारवादी दौर में बहुत हद तक अराजनीतिक हो चुका युवा-वर्ग जैसे बावला हो कर उस आंदोलन में कूद पड़ा। प्रतिक्रांति के प्रवाह में किसकी नौका ज्यादा तेजी से दौड़ती है, इसकी प्रतिस्पर्धा का रंगारंग नजारा पूरी दुनिया ने देखा। यह स्वाभाविक था कि बाकी का समाज, नई आर्थिक नीतियों के चलते बहिष्कृत विशाल आबादी समेत, अचानक दरवाजे पर आ खड़ी हुई “क्रांति” को देख कर भौंचक हवा में बहने लगा। पूरे देश ने बड़े चाव से “बड़े गांधी” और “छोटे गांधी” के दिन-रात दर्शन किए।
पहले तो कहा गया कि भारत को भ्रष्टाचार-मुक्त बनाना है; भ्रष्टाचारियों को सरेआम फांसी पर लटकाना है; उनका मांस चील–कौवों को खिलाना है। लेकिन जल्दी ही घोषणा कर दी गई कि देश दूसरी, तीसरी क्रांति की लहर से गुजर रहा है। जेपी आंदोलन, यहां तक कि स्वतंत्रता आंदोलन के पीछे छूट जाने के दावे किए गए। फतवा जारी हुआ कि जो इस क्रांति के साथ नहीं है, वह देश के साथ नहीं है। यूरोप-अमेरिका में बसे भारतीय भी उत्साह भाव से देश(भक्ति) के साथ जुट गए। आरएसएस की भारत माता की साक्षी में बड़े गांधी ने देशवासियों को बताया कि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी एक आदर्श शासन चला रहे हैं। दूसरे नंबर पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को रखा गया। अवसर पर अचूक निगाह रखने वाले मोदी ने पत्र लिख कर बड़े गांधी का आभार प्रकट किया।
सारा श्रेय आरएसएस की भारत माता और गांधी लूट लिए जा रहे हैं, इसलिए क्रांति-मंच पर अंबेडकर की तस्वीर भी लगवाई गई। नवजात क्रांति का शास्त्रीय रीति से नामकरण करने का मुहूर्त जब आ उपस्थित हुआ तो क्रांति-शास्त्र के पंडितों ने पत्रा देख कर बताया कि इसका नाम ‘केजरीवाल-क्रांति’ रखा जाता है। गांधी कुछ ज्यादा हो गया था, इसलिए नवजात क्रांति की कोख से निकली नई पार्टी को अनुप्रतीक के रूप में अंबेडकर और भगत सिंह को सौंपने का फैसला किया गया।
मार्क्सवादी पार्टी के एक बड़े नेता केजरीवाल-क्रांति के नायक को भारत का लेनिन कह चुके थे। सब कुछ इतना स्वाभाविक और सुसंबद्ध था कि आश्चर्य के अलावा कुछ नहीं किया जा सकता था। दिल्ली के जमना पार के एक मोहल्ले में क्रांति-नायक ने मीडिया की पूरी निगाह में बिजली का एक तार काटने का क्रांतिकारी एक्शन किया, तो दो प्रसिद्ध नागरिक सामाज एक्टिविस्ट उसकी हौसला अफजाई के लिए वहां पहुंची।
जैसा कि वादा था, केंद्र में बड़े मोदी और दिल्ली में छोटे मोदी की सरकारों की स्थापना हो गई। भगत सिंह के एक अध्येता प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह से दिल्ली में भगत सिंह आर्काइव्स एण्ड रिसर्च सेंटर स्थापित करने की काफी समय से मांग कर रहे थे। छोटे मोदी ने वह मांग पूरी कर भगत सिंह पर अपने पेटेंट की मुहर लगा दी। जनता पहले ही आज के फकीरों का दर्शन कर चुकी थी; उसने ‘मॉडर्न डे फ्रीडम फाइटर्स’ को भी चाव से स्वीकार किया। ये आज के स्वतंत्रता सेनानी जब भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल से छूट कर आते हैं तो उन पर फूलों की बरसात की जाती है। आप इसका अर्थ समझते हैं! – प्रतिक्रांति के बच्चों को आजादी के संघर्ष में कुर्बानी देने वाले करोड़ों भारतीयों का वारिस बना देने का धत्कर्म।
गांधी का शासक-वर्ग के लिए अन्य जो भी इस्तेमाल रहा हो, वोट की राजनीति के लिए वे खोटा सिक्का हैं। अलबत्ता, मुसलमानों में वोट के लिए उनके नाम की अपील थोड़ा-बहुत काम करती है। यह भांप कर क्रांति की कोख से पैदा पार्टी ने गांधी के एक पौत्र को पूर्वी दिल्ली की लोकसभा से चुनाव मैदान में उतारा। मैं उस क्षेत्र से सोशलिस्ट पार्टी का उम्मीदवार था। चुनाव प्रचार में कुछ ऑटो मुस्लिम बहुल मोहल्लों में “महात्मा गांधी के पौत्र” का बैनर लगा कर घूमते थे। ऑटो चालकों को इस बैनर के साथ क्षेत्र के अन्य मोहल्लों में जाने की मनाही थी। गांधी के नाम पर गांधीजी के पौत्र को मुसलमानों का अच्छा वोट मिला होगा। लेकिन सफलता नहीं मिली। अटलबिहारी वाजपेयी और विश्वनाथ प्रताप सिंह भी गांधी के उन पौत्र को चुनावी मैदान में उतार कर असफल प्रयोग कर चुके थे।
भारत तीन हिस्सों में विभाजित होने के बाद भी एक बड़ा देश है। यह स्वाभाविक है कि वहां की प्रतिक्रांति के पेटे में कई मिनी प्रतिक्रांतियां हुई हों, और आगे होती रहें। ऐसी ही एक प्रतिक्रांति भारत में धर्मनिरपेक्षता के खिलाफ हुई। किशन पटनायक ने लिखा है, “हाल का उदाहरण देने के लिए हम कह सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता आधुनिक भारतीय राजनीति का केंद्रीय तत्व रहा; 1980 के दशक में हिंदुत्व के आवरण में एक प्रतिक्रांति का अध्याय शुरू हुआ है देश की राजनीतिक संस्कृति को बदलने के लिए। इस वक्त विश्व के स्तर पर जो प्रतिक्रांति की लहर प्रवाहित है, उससे इसका मेल है; लेकिन तुलना में इसका अपना महत्व बहुत छोटा है; बल्कि प्रतिक्रांति के माहौल में इसको प्रोत्साहन मिलता है।” (विकल्पहीन नहीं है दुनिया’, पृष्ठ 172-173)
किशन जी का यह कथन 1994 का है। अगर वे दो दशक बाद की स्थिति को देख पाते तो शायद यह नहीं कहते कि इसका (हिंदुत्व के आवरण में प्रतिक्रांति का) अपना महत्व बहुत छोटा है; और यह केवल राजनीतिक संस्कृति को बदलने के लिए है। अश्लील पूंजीवादी प्रतिक्रांति की गोदी बैठ कर इसने भारतीय राष्ट्र और समाज को तो तोड़-फोड़ कर रख ही दिया है; श्रद्धा-भक्ति के आलंबन दैवीय प्रतीकों की पवित्रता को भी नष्ट-भ्रष्ट कर डाला है। यह धर्म और अध्यात्म के बाजारवादी इस्तेमाल से ज्यादा गहरी चोट है।
साम्राज्यवादी प्रतिक्रांति की संगति में भारत में घटित मिनी प्रतिक्रांतियों की पूरी फेहरिस्त देना इस लेख का विषय नहीं है। इच्छुक लोग संवैधानिक लोकतांत्रिक संस्थाओं, शिक्षा-शोध संस्थाओं, कूटनीतिक संस्थाओं, साहित्य-कला-संस्कृति से संबद्ध अकादमियों में हो चुकी मिनी प्रतिक्रांतियों को देख सकते हैं। समुद्र से हिमालय पर्यंत पारिस्थितिकी में होने वाली प्रतिक्रांति से हम प्रतिदिन रूबरू होते हैं। उपर्युक्त मिनी प्रतिक्रांतियों के समानांतर चलने वाली सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं/उत्सवों में घटित प्रतिक्रांति पर नजर डाली जा सकती है। कोई ज्यादा गहराई में जाना चाहता है तो वह इन सबके फलस्वरूप भारतीय जीवन मूल्यों और मानव मूल्यों में होने वाली प्रतिक्रांति पर विचार कर सकता है।
यहां दो प्रतिक्रांतियों के उदाहरण देकर यह बताने की कोशिश की गई है कि स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्र भारत में समाजवाद, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का संघर्ष करने वाले प्रतीकों और अनुप्रतीकों को राजनीतिक-वर्ग और बौद्धिक-वर्ग द्वारा प्रतिक्रांति के हमाम में खींचने का काम समवेत रूप में हुआ है। भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीयता का सर्वोच्च प्रतीक रहा है। यह विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है कि भारत में प्रतिक्रांति की लहर राष्ट्रीय ध्वज को लहराते हुए चलती है। प्रतिक्रांति का कोई खिलाड़ी घर-घर तिरंगा की मुहिम चलाता है, तो कोई हर हाथ में तिरंगा थमाने की।
भारत का संविधान एक महत्वपूर्ण प्रतीक है, जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की रोशनी में स्वतंत्र भारत के स्वरूप और निर्माण के तत्व निहित हैं। यह विस्तार से बताने की जरूरत नहीं है कि प्रतिक्रांति को अंजाम ही 1992 में संविधान के बुनियादी संरचना सिद्धांत (बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्टरिन) को उलट कर दिया गया है। अमेरिकी ड्रीम का मारा हुआ दिमाग यह सोचने को तैयार ही नहीं है कि भारत समाजवादी गणतंत्र हुए बगैर धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणतंत्र नहीं हो सकता; संविधान की प्रतियां लहराने और ‘वे संविधान बदल देंगे’ का डर फैलाने से संवैधानिक भारत की पुनर्प्रतिष्ठा होने नहीं जा रही है; संवैधानिक संस्थाओं का क्षय केवल इसलिए नहीं हो रहा है कि आरएसएस उन पर प्रहार करता है, वास्तव में इसलिए हो रहा है कि उनसे एक विकृत किस्म का पूंजीवादी भारत बनाने का काम लिया जा रहा है। विकृति से विकृति ही पैदा होती है।
आरएसएस राष्ट्रीय प्रतीकों और अनुप्रतीकों के साथ बदसलूकी और छल-कपट करता है, क्योंकि इतिहास की धारा से बाहर पड़ा रह जाने के चलते वह ऐसा करने के लिए अभिशप्त है। आरएसएस जिस दिमाग का प्रतिनिधित्व करता है उसके चलते वह राष्ट्रीय प्रतीकों और अनुप्रतीकों के साथ सहज स्वीकार का रिश्ता तो नहीं ही कायम कर पाता; आलोचनात्मक रिश्ता भी नहीं बना पाता।
राष्ट्रीय प्रतीकों/अनुप्रतीकों के साथ सहज अथवा/और आलोचनात्मक रिश्ता कायम करने के लिए उसे अपनी ठहरी हुई मानसिकता से निजात पानी होगी। यह उसका काम है। लेकिन अपने को स्वतंत्रता आंदोलन और संविधान के मूल्यों से गढ़े गए भारत के विचार का दावेदार बताने वाले सेकुलर/प्रगतिशील खेमे का भी राष्ट्रीय प्रतीकों/अनुप्रतीकों के साथ बर्ताव क्या सही कहा जा सकता है? क्या पुरखों को प्रतिक्रांति का भक्ष्य बना कर प्रतिक्रांति के ये बच्चे भारतीय क्रांति के खिलाफ ज्यादा गहरी भूमिका नहीं निभा रहे हैं?
प्रतिक्रांति की सच्चाई से रूबरू होना तो दूर, सेकुलर/प्रगतिशील खेमे ने अभी यह स्वीकार तक नहीं किया है कि भारत प्रतिक्रांति की चपेट में है। उसे संकट का बस एक पहलू यह दिखता है कि भारत आरएसएस की चपेट में है। भारत आरएसएस की चपेट में क्यों है; उसे आरएसएस की चपेट से कैसे निकाला जाए; और विचार और आचरण की कौन-सी राजनीतिक संस्कृति निर्मित/विकसित की जाए कि वह आगे आरएसएस की चपेट में न आए – इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करने को वह तैयार नहीं है।
बल्कि, विकल्प की राजनीति के विचार और प्रयासों को वह नवसाम्राज्यवादी प्रतिक्रांति के पक्ष में कोऑप्ट करने की कवायद करता है। इसका स्पष्ट कारण है कि यह कार्यभार स्वीकार करते ही उसे प्रतिक्रांति की सच्चाई से रूबरू होना होगा, जिसके प्रति वह नक्कू बना हुआ है; और नई पीढ़ियों को भ्रमित करता है। सेकुलर/प्रगतिशील खेमा आरएसएस द्वारा इतिहास को विकृत किए जाने के धत्कर्म पर भड़का रहता है। लेकिन वह खुद जो इतिहास रच रहा है, उसे छिपा लेना चाहता है।
गौर किया जा सकता है कि जैसे-जैसे साम्राज्यवादी प्रतिक्रांति का शिकंजा बढ़ता गया है, धरना, प्रदर्शन, रैली, यहां तक कि अकादमिक सेमिनारों के आयोजनों में बैनर, पोस्टर, पेंफ्लेट, प्लेकार्ड आदि पर प्रतीक-पुरखों के एकल और समूह चित्र छापने की प्रवृत्ति भी बढ़ती गई है। नए भारत में अनुप्रतीकों की राजनीति का कारोबार बहुत तेजी से फैला है। सबके अपने-अपने पुरखा-पुरुष हैं, जिन्हें लेकर आपस में भारी प्रतिस्पर्धा रहती है।
कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ की राजनीति के इस दौर में एक-दूसरे के पुरखों को हाईजेक करने और चुराने के आरोप-प्रत्यारोप आम बात हो गई है। भारत-रत्न जैसा सर्वोच्च सम्मान तक अनुप्रतीकों की राजनीति में फंस चुका है। हाल में कर्पूरी ठाकुर और चौधरी चरण सिंह को भारत-रत्न देकर प्रतिक्रांति के हमाम में खींचा गया है। इधर मायावती ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की इसलिए सार्वजनिक प्रशंसा की है कि उसने उनके पुरखों के स्मारकों का मुस्तैदी से रखरखाव किया है, जो उनके पहले की समाजवादी पार्टी की सरकार ने नहीं किया था।
इस तरह देख सकते हैं भारत में पुरखों को प्रतिक्रांति का भक्ष्य बनाने का कोई एक पैटर्न नहीं है। मोदी-शाह-भागवत की सांप्रदायिक फासीवाद छाप प्रतिक्रांति से आक्रांत सेकुलर/प्रगतिशील खेमे के एक समूह ने एक नया पैटर्न अपनाया है। उन्होंने एक मुहिम छेड़ी हुई है कि आरएसएस/भाजपा, जो भारतीय समाज और राजनीति में अछूत थे, को जयप्रकाश नारायण और राममनोहर लोहिया ने वैधता प्रदान की; और वे दोनों ही आज की दशा के लिए जिम्मेदार हैं। लगे हाथ दोनों को फिलिस्तीनियों पर इजराइल के अत्याचार समेत अन्य राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं के लिए भी जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। कांग्रेसियों और कम्युनिस्टों को इस ‘ठीकरा-फोड़’ मुहिम से काफी खुशी मिलती है। मैंने कई गांधीवादियों और प्रजा समाजवादियों को भी इसमें फील गुड करते सुना है।
राजनीति और इतिहास का सामान्य ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी यह बता देगा कि भारत में सांप्रदायिक कट्टरता को स्वीकृति 1967 के गैर-कांग्रेसवाद और 1977 के जनता पार्टी प्रयोग के चलते नहीं मिली है; न ही सांप्रदायिक शक्तियां और उनके संगठन समाज और राजनीति में कभी अछूत थे। देश के आसन्न विभाजन से व्यथित गांधी ने सांप्रदायिक संगठनों/नेताओं से मिलने और बातचीत करने में कभी छूत नहीं मानी। कांग्रेस की दाईं कांख में सांप्रदायिक दक्षिणपंथियों, आरएसएस जिनका प्रतिनिधित्व करता है, और बाईं कांख में सरकारी कम्युनिस्टों का पालन हुआ है।
1952 के पहले आम चुनाव में अखिल भारतीय जनसंघ, अखिल भारतीय हिंदू महासभा और अखिल भारतीय रामराज्य परिषद का कुल मत प्रतिशत सोशलिस्टों और कम्युनिस्टों के मत प्रतिशत से ज्यादा कम नहीं था। स्वतंत्र उम्मीदवारों, जिनका कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा मत प्रतिशत और सीटें थीं, में सांप्रदायिक दक्षिणपंथी सोच के उम्मीदवार कम नहीं रहे होंगे। उनका और अन्य प्रतिक्रियावादी/यथास्थितिवादी पार्टियों को मिलाने पर सांप्रदायिक-दक्षिणपंथी पार्टियों का मत प्रतिशत सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियों से ज्यादा था।
बहरहाल, इस विषय पर 1967 और 1977 के हवाले से चयनात्मक (सेलेक्टिव) और समग्रता में काफी विचार-विश्लेषण हो चुका है। उस दौर के सभी दस्तावेज और जेपी-लोहिया के वक्तव्य/लेखन उपलब्ध हैं। उस सब ब्यौरे में जाना इस लेख के दायरे में नहीं आता। अलबत्ता, इस विषय में इच्छुक लोगों से किशन पटनायक का लेख ‘जेपी आंदोलन और आज का संदर्भ’ (‘सामयिक वार्ता’ (लोकनायक जयप्रकाश नारायण विशेषांक, अगस्त-सितंबर 2002, वर्ष 25, अंक 11-12) पढ़ लेने का निवेदन किया जा सकता है।
आलोचना से परे कोई पुरखा नहीं है, नहीं होना चाहिए। लेकिन खुद को सुर्खरू सिद्ध करने की नीयत से किसी को बदनाम करना कदापि सही नहीं कहा जा सकता है। एक गतिरुद्ध समाज, जिसे आगे का रास्ता नहीं मालूम होता, या जो गलत रास्ता अख्तियार कर लेता है, अपने पीछे के पुरखों पर कीचड़ उछालता है। लेकिन वैसी कवायद से हासिल कुछ नहीं होता। संकट और ज्यादा गहरा हो जाता है। ज्यादा दिन नहीं हुए हैं जब स्वनामधन्य ईमानदारों ने “बेईमान” मनमोहन सिंह और उनकी “भ्रष्ट” सरकार के खिलाफ बदनाम करने की शैली में हल्ला बोला था। तब से संकट बढ़ा है या कम हुआ है, इस पर नई पीढ़ी को तो विचार करना ही चाहिए।
इस प्रसंग में यह उल्लेख करना भी जरूरी है कि जेपी-लोहिया को बदनाम करने का प्रतिकार करने वाले कुछ समाजवादी एक शिक्षा के सौदागर और उसकी प्राइवेट यूनिवर्सिटी के सौजन्य में राजनाथ सिंह, रामनाथ कोविंद, मनोज सिन्हा और आरिफ़ मोहम्मद खान जैसे वक्ताओं से लोहिया स्मृति व्याख्यान दिलवाते हैं। इस अनुष्ठान की पूर्णाहुति में अब नरेंद्र मोदी से लोहिया स्मृति व्याख्यान दिलवाना बचा है। भारतीय राष्ट्र और समाज पर आयद अभूतपूर्व संकट के दौर में यह करामात कर दिखाने के लिए काफी बड़ा हौसला चाहिए। मजेदारी यह है कि जो वरिष्ठ पत्रकार जेपी-लोहिया को बदनाम करने की मुहिम की अगुआई कर रहे हैं, वह कल तक इसी टीम का हिस्सा थे। पुरखों को प्रतिक्रांति का भक्ष्य बनाने का यह पैटर्न दर्शाता है कि भारत का वाम और लोकतांत्रिक आंदोलन किस कदर गतिरोध और दिशा-भ्रम का शिकार है।
अगर प्रतिक्रांति किसी सभ्यता, समाज और राष्ट्र के जीवन को समग्रता में ग्रस लेती है तो समझ लेना चाहिए कि वह उस सभ्यता, समाज और राष्ट्र के घोर पतन (डेकेडेंस) का दौर है। इसकी जिम्मेदारी केवल पतन की पत्तल चाटने वालों पर डाल कर हाथ नहीं झाड़े जा सकते। बल्कि, पतन के कारकों की गहरी और गंभीर पड़ताल की जरूरत होती है। ऐसा होने पर ही पतन की परिस्थिति को बदलने के लिए गहन और गंभीर प्रयास संभव होते हैं।
स्वतंत्रता की चेतना से सम्पन्न आगे की पीढ़ियां आश्चर्य से देखेंगी कि हमने भारत खुद नवसाम्राज्यवादियों को दे दिया। वे देखेंगे कि फर्क बस इतना है कि भारत को ब्रिटिश साम्राज्यवाद को सौंपने की संधियां और समझौते करने वाले राजे-रजवाड़े थे, और अमेरिकी नवसाम्राज्यवाद को सौंपने वाले नए भारत की चुनी हुई सरकारों के नेता, नौकरशाह और बुद्धिजीवी हैं। वे देखेंगे कि इस बार हम भारतीयों का लालच ज्यादा गहरा है। इसलिए नवसाम्राज्यवाद की जड़ें भी ज्यादा गहरी चली गई हैं। हालांकि, तब वे यह भी देख सकेंगे कि किन नेताओं, नौकरशाहों, विचारकों, राजनैतिक कार्यकर्ताओं, किसान-मजदूर-कारीगर-छात्र संगठनों, नागरिक समाज एक्टिविस्टों और सरोकारधर्मी पत्रकारों ने ताल ठोंक कर नई गुलामी का विरोध किया था। वहीं से विकल्प और संघर्ष की राह भी निकलेगी।
पुनश्च: इस लेख में वर्णित कुछ प्रसंगों में भूमिका निभाने वाले सेकुलर-प्रगतिशील किरदारों के नाम नहीं लिखे गए हैं। लेकिन पाठक आसानी से उनकी पहचान कर लेंगे। यह उनकी व्यक्तिगत आलोचना नहीं है। मैं उनका सम्मान करता हूं। प्रतिक्रांति के प्रांगण में अन्य ऐसे प्रसंग और उनसे जुड़े किरदार भरे पड़े हैं। कुछ का उल्लेख इसलिए किया गया है कि प्रतिक्रांति की विविध प्रवृत्तियों और छटाओं की हकीकत को दर्शाया जा सके।
(समाजवादी आंदोलन में सक्रिय लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक और भरातीय उच्च अध्ययन संस्थान के पूर्व फेलो हैं)
