कांग्रेस क्यों वही गलती हर बार करती है?


कांग्रेस के भीतर नाराज नौजवान नेताओं की नाराजगी का दोष भाजपा पर मढ़ देना आसान है क्योंकि आज भाजपा शक्तिशाली है और नाराज नेताओं के पास भाजपा में जाने का विकल्प। लेकिन ममता बनर्जी और जगनमोहन रेड्डी को कौन सी भाजपा ने भड़काया था जिन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपना दल बनाया और सत्ता भी हासिल कर लिया।



ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस में तृणमूल का अर्थ है जमीन से जुड़े लोग। जमीन से जुड़े लोगों की कांग्रेस के पैदा होने का किस्सा दिलचस्प है। 1997 में पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष का चुनाव होने वाला था एक बार किस्मत आजमा कर हार चुकी ममता बनर्जी ने दोबारा अध्यक्ष पद के लिए दावा ठोका लेकिन उनके इस दावे के समर्थन में प्रदेश कांग्रेस कमेटी का एक भी सदस्य सामने नहीं आया। यह वह समय था जब केंद्र में नेहरू गांधी वंश का कोई व्यक्ति राजनीति में सक्रिय नहीं था।  सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे और उसी दौर में सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति में लौटने का ऐलान किया था।
  
लेकिन उधर पश्चिम बंगाल में आलाकमान वाली राजनीति जारी थी। पश्चिम बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति किसी भी कीमत पर ममता बनर्जी को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने से रोकना चाहती थी और ममता बनर्जी किसी भी कीमत पर इस बार हथियार डालने को तैयार नहीं थी। आखिरकार ममता बनर्जी ने प्रदेश कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ताओं का एक जमावड़ा करने का निश्चय किया उसमें प्रदेशभर से एक लाख कांग्रेस कार्यकर्ताओं को बुलाया गया। ममता बनर्जी को समझाने बुझाने का प्रयास हुआ लेकिन वह नहीं मानी और अंततः एक लाख की बजाय तीन लाख कांग्रेस कार्यकर्ताओं की रैली को संबोधित किया और उसी मंच से तृणमूल कांग्रेस कमेटी के गठन का ऐलान भी कर दिया। 

इधर दिल्ली में सीताराम केसरी ने ममता बनर्जी को अपनी बेटी बताते हुए उम्मीद जाहिर किया कि एक न एक दिन वह दिन आयेगा जब ममता लौट आयेंगी क्योंकि हमारा राजनीतिक दुश्मन एक है, और वो है सीपीआई(एम)। लेकिन ममता बनर्जी को ना लौटना था और ना लौटी। 1998 में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस के नाम से अलग दल ही बना लिया। इसके 13 साल बाद 2011 में पश्चिम बंगाल में उस राजनीतिक दुश्मन को हराकर मुख्यमंत्री बन गयीं जिसकी दुहाई सीताराम केसरी ने दिया था। और कांग्रेस हमेशा के लिए पश्चिम बंगाल में चौथे नंबर की पार्टी बन कर रह गई।

कुछ इसी तरह का घटनाक्रम आंध्र प्रदेश प्रदेश में हुआ जहां राजशेखर रेड्डी ने जमीन में मिल चुकी कांग्रेस को उठाकर सत्ता तक पहुंचाया। राजशेखर रेड्डी का कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से सीधा संबंध था और उन्होंने अपनी मेहनत से आंध्र प्रदेश में कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाया था। उन्होंने न सिर्फ प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनायी बल्कि केन्द्र में भी यूपीए-2 के गठन में अहम भूमिका निभाई। इसलिए उनके जीते जी किसी ने उन्हें परेशान करने की कोशिश नहीं किया लेकिन हेलीकॉप्टर दुर्घटना में राजशेखर रेड्डी की दुखद मौत के बाद उनके बेटे जगनमोहन रेड्डी ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना दावा ठोका। लेकिन एक बार फिर कांग्रेस की आंतरिक राजनीति उनके दावे के आड़े आ गई कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने जगनमोहन रेड्डी के दावे का विरोध किया और अंततः के रोसैया को 2011 में आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री नियुक्त कर दिया गया।
इधर जगनमोहन रेड्डी पर तमाम तरह के केस दर्ज करके जेल भेज दिया गया। यह वही साल था जब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री का कार्यभार ग्रहण किया था। लेकिन एक दशक बाद भी कांग्रेस ने अतीत की अपनी गलतियों से कोई सीख नहीं लिया। परिणाम ये हुआ कि कांग्रेस में जगनमोहन रेड्डी के इस दमन का प्रदेश में जगनमोहन को लाभ हुआ और आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद वह आज अपनी पार्टी बनाकर आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने बैठे हैं। आज जगनमोहन कांग्रेस से बड़ी राजनीतिक ताकत हैं। 

सवाल ये है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व हमेशा पार्टी हित में आंकलन क्यों नहीं कर पाता? क्या कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व जमीन से इतना कटा हुआ है कि जमीन पर क्या चल रहा है, इसका वह आंकलन ही नहीं कर पाता? या फिर आलाकमान के आसपास कोई ऐसी कोटरी है जो उसे न सही सुनने देती है और न सही देखने देती है?

इन दोनों ही घटनाओं में कांग्रेस के नेता नौजवान थे और अपने काम और प्रभाव की बदौलत कांग्रेस का भविष्य अपने हाथ में लेना चाहते थे लेकिन “बूढ़ी कांग्रेस” ने नौजवानों को भविष्य की बागडोर सौंपने से मना कर दिया। उसका परिणाम भी आया दोनों ही राज्यों में कांग्रेस से ही निकले नेताओं ने अपने बलबूते पर एक राजनीतिक विकल्प प्रस्तुत कर दिया लेकिन मानो कांग्रेस ने अतीत की अपनी गलतियों से कुछ ना सीखने का फैसला कर रखा है। 2020 में मध्यप्रदेश में एक बार फिर वही परिस्थिति दोहराई गई जिसका परिणाम यह हुआ कि माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अलग पार्टी  बनाने के बजाय अपने समर्थक विधायकों सहित भाजपा में शामिल हो गए। 

लेकिन अभी कांग्रेस इस चोट से उबर भी नहीं पाई थी कि राजस्थान में सचिन पायलट ने अपने समर्थक विधायकों सहित विद्रोह कर दिया। आश्चर्य की बात यह है यहां भी कांग्रेस ने कोई समझौतावादी रुख अपनाने की बजाय वही अड़ियल रवैया अपनाए रखा जो उसने ममता बनर्जी के मामले में, जगनमोहन रेड्डी के मामले में, ज्योतिरादित्य सिंधिया के मामले में अपना रखा था। कांग्रेस के कद्दावर नेता रहे राजेश पायलट के बेटे और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सचिन पायलट को पार्टी और सरकार से बाहर का रास्ता दिखा दिया। 

सचिन पायलट अब आगे क्या करते हैं यह तो समय बताएगा लेकिन सवाल तो कांग्रेस पर हैं आखिर कांग्रेस वही गलती बार-बार क्यों करती है जिसका परिणाम खुद उसके लिए कभी अच्छा नहीं रहा। इस सवाल का जवाब कांग्रेस की उस कार्यशैली में निहित है जिसे समझे बिना ऐसे सवालों का जवाब कभी मिल ही नहीं सकता। कांग्रेस एक लोकतांत्रिक पार्टी है लेकिन उसका यह लोकतंत्र कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर आकर समाप्त हो जाता है। कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि यही उनकी मजबूती है लेकिन असल में यही कांग्रेस की कमजोरी बन गया है।

शीर्ष पर बैठे नेता के आसपास ऐसे लोगों का जमावड़ा है जिसे कांग्रेस के भीतर सीडब्लूसी कहा जाता है। कहने के लिए ये कांग्रेस वर्किंग कमेटी है लेकिन असल में यह कमेटी सोनिया राहुल की सलाहकार कमेटी है। सोनिया गांधी हों या राहुल। कोई भी वर्किंग कमेटी के फैसले के विपरीत नहीं जाता। अब केन्द्रीय स्तर पर कांग्रेस की स्थिति ऐसी है कि लोगों को लगता है कि फैसला सोनिया गांधी ले रही हैं लेकिन सोनिया गांधी भी वर्किंग कमेटी की सलाह के सामने लाचार हैं। जैसे हाल के दिनों में जिन नेताओं को कांग्रेस के बाहर जाना पड़ा वो सब राहुल गांधी के करीबी थे, तो क्या सोनिया गांधी जानबूझकर राहुल के करीबियों को बाहर कर रही हैं? ऐसा तो सोचना भी मूर्खतापूर्ण होगा। भला सोनिया गांधी राहुल और कांग्रेस दोनों का भविष्य क्यों खराब करेंगी? 

असल झगड़ा है बूढे बनाम नौजवान का। कांग्रेस में कमलनाथ हों या गहलोत। ये अतीत की वो राजनीतिक परछाई हैं जो अतीत नहीं होना चाहते। कांग्रेस में ऐसी परंपरा भी नहीं कि पचहत्तर पार लोगों को रिटायर करके मार्गदर्शक मंडल बना दिया जाए। कांग्रेस में तो नब्बे साल वाले मोतीलाल वोरा भी राज्यसभा में बैठे हैं। कांग्रेस के नेता इतने अधिक बुजुर्ग प्रेमी होते हैं कि भाजपा के बुजुर्ग नेताओं के लिए भी दुखी हो जाते हैं तो अपने ही नेताओं को किनारे कर दें, ये कैसे हो सकता है? और पुरानी पीढी और नयी पीढी की जंग स्वाभाविक है। राजनीति में अब तक पुरानी पीढ़ी का दबदबा रहा है।

राजनीति में कहा तो यहां तक जाता है कि साठ साल में राजनीतिक व्यक्ति जवान होता है तो सत्तर पचहत्तर में रिटायर कैसे हो जाएगा? लेकिन भाजपा ने पचहत्तर पार नेताओं को पार लगाकर नयी परिभाषा लिखना शुरु किया है। कांग्रेस को भी इस बारे में सोचना चाहिए। यह बात सही है कि राजनीति में बुजुर्ग और अनुभवी लोगों का महत्व अधिक होता है लेकिन यह भी सही है कि बुजुर्ग होने की सीमारेखा भी निर्धारित होनी चाहिए। लेकिन संकट ये है कि कांग्रेस में ये करेगा कौन? वही कांग्रेस वर्किंग कमेटी जिसके सिर पर कांग्रेस को समाप्त करने का सेहरा बंधा हुआ है?