चीन की नीति और कूटनीति को समझने में अक्षम भारत सरकार


चीन-भारत संबंधों में दूसरी बड़ी गलती

सन 62 के बाद अगर एक और बार चीन के साथ इतने तनावपूर्ण सम्बन्ध बन जाते हैं कि दोनों देशों की सेनाओं को सीमा पर एक-दूसरे का सामना करना पड़े तो मानना पड़ेगा कि कहीं तो कुछ गड़बड़ जरूर है। गलती चीन भी कर सकता है लेकिन अगर सीमा पर हमले की पहल उसकी तरफ से हुई है तो मानना पड़ेगा कि चीन को समझने में हमसे ही कोई भारी चूक हुई है जिसे हम समझ नहीं पाए और चीन पर भरोसे पर भरोसा करते ही गए। पिछले 58 साल के भारत-चीन समबन्ध के इतिहास को गंभीरता से पढ़ने और समझने के बाद हमको अपनी इन गलतियों का पता तो चलता है लेकिन अतीत की गलतियों से सबक सीखने का काम हम ताजा हालात में भी नहीं करते।

संभवतः यही वजह है कि लद्दाख की सीमा से लगे क्षेत्र में जब विगत 15-16 जून की रात को चीन और भारत की सेना के बीच आमने-सामने का संघर्ष हुआ और इसमें भारतीय सेना के 20 जवान सैनिक शहीद भी हो गए। इसके बाद दोनों देशों के बीच राजनयिक और सैन्य स्तरों पर बातचीत का सिलसिला भी शुरू हुआ। लेकिन नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात जैसा। सीमा पर संघर्ष के बाद आज तक लगभग दो दर्जन बैठकें तो दोनों देशों के सैन्य और असैन्य अधिकारियों के बीच हो चुकी हैं इसके बावजूद यह बातचीत भारत के सन्दर्भ में लगभग बेनतीजा ही साबित हुई है।

इस बारे में अब तक चीन की तरफ से दिए गए बयान यह सफाई देते हुए दिखाई देते हैं कि उसकी सेना वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) से पीछे हट चुकी है। चीन के इस दावे को लगभग खारिज करते हुए भारत का इस बारे में यह साफ़ मानना है कि लद्दाख में एलएसी पर बहुत थोड़ी प्रगति हुई है और चीन के साथ सीमा पर संघर्ष लंबा भी खिंच सकता है। इससे कुछ रोज पहले ही रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा था कि दोनों देशों में बातचीत जारी है और समस्या का हल निकल जाना चाहिए। लेकिन ये मामला कब तक हल होगा, इसकी गारंटी वे नहीं दे सकते। कुल मिला कर खतरा अभी भी बना ही हुआ है।

नेहरु -चाऊ एन-लाइ और मोदी- शी जिनपिंग की दोस्ती

भारत-चीन मौजूदा परिस्थितियों का अगर दोनों देशों के बीच 1950 से लेकर 1962 के बीच की अवधि के तनावपूर्ण दौर का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो ऐसा लगता है कि पिछले एक -डेढ़ साल से हालात हू-बहू वैसे ही बन गए हैं। उस समय पंडित जवाहरलाल नेहरु और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ की दोस्ती के किस्से भी उसी तरह आम थे, जिस तरह मौजूदा भारतीय प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबंध चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ परवान चढ़े। मोदी और चीनी प्रधानमंत्री की दोस्ती का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि नरेन्द्र मोदी के 2014 में भारत का प्रधानमंत्री बनने और चीन द्वारा इस साल 15 -16 जून की रात भारत पर हमला करने की अवधि के बीच करीब 6 साल में इन दोनों नेताओं की मुलाकातों के करीब-करीब डेढ़ दर्जन मौके परवान चढ़ चुके थे।

इनमें से कुछ तो बेहद गर्मजोशी भरे माहौल में हुई हैं कुछ ऐसी ही गर्मजोशी भरी मुलाकातें नेहरु और उनके समकालीन चीन के प्रधान मंत्री के बीच हुई थीं इन्हीं गर्मजोशी से भरी मुलाकातों में नेहरु से कुछ गलतियां भी हुई थीं, हो न ऐसी ही। कुछ गलतिया इस बार मोदी  और उनके समकक्ष चीनी नेता की दोस्ती के दौरान भी जरूर हुई हैं। जानकारों के मुताबिक इन्हीं गलतियों का नतीजा इस रूप में देखने को मिल रहा है कि जिस चीन पर हम एक बार फिर पूरी तरह भरोसा करने लग गए थे उसी चीन ने फिर हमारा भरोसा तोड़ दिया। भारत-चीन के तनाव पूर्ण संबंधों को लेकर इतिहास में नेहरु द्वारा की गलतियों का पता पिछले पांच दशक के दौरान सामने आई कई रिपोर्टों और किताबों से लगता है। अक्टूबर 1950 में जब चीन ने तिब्बत पर कब्ज़ा किया तो कुछ भारतीय सैन्य अधिकारी और नेताओं ने चीन की विस्तारवादी नीति को भांप लिया था।

हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा और चीन का छल

तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने नेहरू से कहा था कि चीन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है और न ही हिंदुस्तान को संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के तौर पर चीन की दावेदारी को बढ़ावा देना चाहिए। पटेल के इस विचार को नेहरू ने तरजीह नहीं दी। उनका मानना था कि चीनी साम्यवाद का मतलब यह नहीं हो सकता कि वह भारत की तरफ कोई दुस्साहस करेगा। उन्होंने, तिब्बत पर कब्जे के बावजूद चीन से गहरे रिश्ते बनाने पर ही जोर दिया। इसके कुछ ही महीनों बाद ही वल्ल्भभाई पटेल की मृत्यु हो गयी। और चीन पर नेहरू को समझा सकने वाला नहीं रहा। इसके बाद जवाहरलाल नेहरू की चीन से करीबियां बढ़ीं और इस दौरान तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ से उनकी दोस्ती के किस्से अखबारों की सुर्खियां बनने लगे। 1956 में नेहरू के बुलावे पर चाऊ एन-लाइ भारत के दौरे पर आये और तब ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा दिया गया।

इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में लिखते हैं कि इसके साल भर बाद ही अक्टूबर 1957 में अचानक खबर आई कि चीन ने अपने शिनजियांग प्रांत से तिब्बत तक हाईवे का निर्माण कर लिया है और इसका कुछ हिस्सा भारतीय क्षेत्र अक्साई चिन से भी होकर जाता है। बताते हैं कि इसके बाद तत्कालीन सेनाध्यक्ष केएस थिमैय्या ने सरकार को चीन से लगती सीमा मज़बूत करने की सलाह दी। उनका कहना था कि भारत को असली ख़तरा चीन से ही है। लेकिन नेहरू सरकार इसके लिए तैयार नहीं हुई। उसका मानना था कि भारत को केवल पाकिस्तान से खतरा है और चीन से कोई खतरा नहीं है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के करीबी और तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके मेनन का कहना था कि चीनी सीमा पर सेना बढ़ाने की जरूरत नहीं है। ऐसा ही कुछ इस बार भी हुआ भारत के प्रधानमंत्री अपने चीनी दोस्त को पूरे भारत का भ्रमण कराते रहे और उसने लद्दाख इनकार कर दिया।

मेहमान बना दुश्मन

चीन के साथ भारत का एक अजीब सा संयोग है कि जब जब भारत ने चीन के नेताओं को मेहमान बना कर उनकी मेजबानी की तब-तब चीन ने भारत को युद्ध में ललकारा। चीन के साथ छोटी- मोटी मुठभेड़ तो सीमा पर होती ही रहतीं थीं। एक सीमा को साझा करने वाले दुनिया के दो देशों की सेनाओं के बीच ऐसे मुठभेड़ होना स्वाभाविक ही माना जाता है। लेकिन इसी बीच 1962 में चीन के आक्रमण की अधिकृत घोषणा से लगभग पांच वर्ष पूर्व कुछ ऐसा भी होने लगा था जिसे स्वाभाविक सैन्य झड़प नहीं कहा जा सकता। उत्तराखण्ड के चीन की सीमा से लगे गांव में तो चीनी सैनिक लाऊड स्पीकर के माध्यम से हिंदी में यह घोषणा भी करते देखे जाते थे कि यह गांव चीन का हिस्सा है। उस समय भी संसद में इसको लेकर हंगामा हुआ करता था ।

1957 से लेकर 1960 तक भारत-चीन सीमा पर दोनों सेनाओं के बीच झड़प की कई घटनाएं हुईं। इस समय दोनों देशों के बीच पत्राचार भी लगातार चल रहा था। इसी बीच 1960 में नेहरू ने चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन-लाइ को फिर भारत आने का न्योता दिया। चाऊ एन-लाइ की इस यात्रा के बाद भी भारत-चीन सीमा विवाद जस का तस ही बना रहा। दोनों देश इस यात्रा और बातचीत के बाद भी किसी सहमति तक नहीं पहुंच पाए। इसके बाद 1962 के अक्टूबर में अचानक एक दिन युद्ध की शुरुआत हो गयी और चीनी सेना की कई टुकड़ियां हथियारों के साथ भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं।

जवाहरलाल नेहरु ने चीन से धोखा मिलने की बात को किया  था  स्वीकार

चीन से धोखा खाने के बाद आठ नवंबर 1962 को संसद में एक प्रस्ताव रखा था। अपने इस प्रस्ताव में जवाहरलाल नेहरु ने चीन से धोखा मिलने की बात यह कहते हुए स्वीकार भी की थी की, ‘हम आधुनिक दुनिया की सच्चाई से दूर हो गए थे। हमने अपने लिए एक बनावटी माहौल तैयार किया और हम उसी में रहते रहे।’ जवाहरलाल नेहरु ने देर से ही सही अपनी गलती स्वीकार तो की। उनकी गलती की वजह अनुभव हीनता भी थी लेकिन इस बार तो चीन से अतीत में मिले धोखे का अच्छा अनुभव होने के बाद था हम गच्चा खा गए।

गौरतलब है चीनी मेहमान की मेहमानबाजी करने में हम पहले भी कभी पीछे नहीं रहे और आज भी पीछे नहीं रहे। सबको मालूम ही है कि 2014 में नरेंद्र मोदी क प्रधानमंत्री बनने के तीन महीने बाद ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का अहमदाबाद में भव्य स्वागत किया गया। जिनपिंग भारत की यात्रा पर ही थे कि खबर आ गयी कि चीनी सैनिकों ने लद्दाख के चुमार और डेमचक में घुसपैठ शुरू कर दी है। चुमार में भारतीय इलाके में पांच किमी अंदर चीन ने सड़क बनाने की कोशिश की जिस पर कई दिनों तक गतिरोध चलता रहा। चीनी राष्ट्रपति यात्रा को मोदी सरकार ने अपनी बड़ी सफलता बताया जबकि जिनपिंग के वापस जाने के कई हफ्ते बाद तक चीनी सेना चुमार में तंबू लगाए बैठी रही।

यह मसला तब सुलझा, जब एलएसी के निकट भारत ने वह निर्माण कार्य बंद किया जिसे वह अपने ही इलाकों में करवा रहा था। जानकार कहते हैं कि ऐसा करके मोदी सरकार ने चीन से सुलह नहीं की थी, बल्कि उसने चीन के प्रति तुष्टीकरण की नीति की शुरुआत की थी। 2015 में नरेंद्र मोदी चीन की यात्रा पर गए। इस दौरान उन्होंने अपने ही अधिकारियों को चौंकाते हुए चीनी नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक पर्यटक वीजा देने की घोषणा कर दी। मोदी की इस घोषणा से कुछ रोज पहले ही भारतीय गृह मंत्रालय और ख़ुफ़िया एजेंसियों ने चीनी नागरिकों को इलेक्ट्रॉनिक पर्यटक वीजा देने का विरोध किया था। इनका मानना था कि इससे भारत को खतरा है। इस यात्रा के दौरान भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत में चीनी निवेश को बढ़ाने के मकसद से उसका नाम ‘कंट्रीज ऑफ कंसर्न’ की सूची से हटा दिया। मोदी के इस फैसले से चीनी कंपनियों को भारत में आने की आजादी मिल गयी। इसके बाद से चीन का भारत के साथ व्यापार मुनाफा प्रति वर्ष 60 अरब डॉलर हो गया, जो इससे पहले से दोगुना है।

इसके बाद भी चीन ने न तो भारत के बड़े राजनयिक और कूटनीतिक लक्ष्यों में अड़ंगा लगाना बंद किया और न ही उसकी सेना ने एलएसी पर भारतीय क्षेत्रों में घुसपैठ बंद की। भारत ने साल 2016 में वैश्विक संगठन-परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह (एनएसजी) की सदस्यता पाने के लिए आवेदन किया। अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन, रूस और जर्मनी जैसे देश इस मामले में भारत के पक्ष में थे, लेकिन चीन ने पाकिस्तान से अपने संबंधों के चलते भारत के खिलाफ वीटो कर दिया।

डोकलाम विवाद के पीछे का सच

उधर 2017 के मध्य में चीनी और भारतीय सैनिकों के बीच सिक्किम के करीब डोकलाम में गतिरोध शुरू हो गया। इस गतिरोध का कारण चीन द्वारा भूटान के इलाके में कब्जा कर भारतीय सीमा तक सड़क बनाना था। डोकलाम के आसपास जो निर्माण किया गया, उनमें बड़ी इमारतें, सुरंगे, चार लेन वाली सड़कें और हेलीपैड शामिल हैं। इसके अलावा चीन के इस निर्माण से यह भी साफ़ हो गया कि भारत अपने करीबी देश भूटान की संप्रभुता की रक्षा नहीं कर सका, जिसकी जिम्मेदारी उसी के हाथ में है। लेकिन इसके ब चीन के प्रति भारत की तुष्टिकरण की नीति जारी रही अप्रैल 2018 में वुहान में अनाधिकारिक शिखर सम्मेलन पर बात बनी। इस बीच एक हैरान करने वाली घटना यह भी हुई कि भारत सरकार ने लेकिन इस वुहान शिखर वार्ता से करीब एक महीने पहले अपने वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों को पत्र लिखकर दलाई लामा के कार्यक्रम में न जाने का आदेश दिया गया।

पहले दिल्ली में संपन्न होने वाला दलाईलामा का यह सम्मेलन विदेश मंत्रालय के आदेश के बाद हिमाचल प्रदेश के मैक्लॉयडगंज में किया गया ऐसा इसलिए भी करना पड़ा क्योंकि अगर यह सम्मलेन दिल्ली में होता तो दिल्ली और केंद्र के कई मंत्री और अधिकारी भी वहां पहुंचते इससे चीन नाराज हो सकता था। वुहान के बाद नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग की प्रतिभागिता वाला एक अन्य दो दिवसीय यह सम्मलेन अक्टूबर 2018 में तमिलनाडु के महाबलीपुरम में हुआ था। इसके चार महीने बाद ही लद्दाख के गलवान घाटी से चीनी सैनिकों की घुसपैठ की खबरें आनी शुरू हो गईं।