क्या फलस्तीन का नाम ही मिटा देगा इजरायल

समस्या तब शुरू हुई जब अपनी बसावट की जगहों से इजरायली सरकार ने यहां के पुराने बाशिंदों को भगाना शुरू किया। यासिर अराफात इस इलाके के पुराने बाशिंदों के ही नेता थे। उन्हें अरबीभाषी मुसलमानों का ही नहीं, ईसाइयों और कुछ पुराने यहूदियों का भी समर्थन हासिल था। ये यहूदी परिवार आज भी अपनी पुश्तैनी जमीन की लड़ाई कानूनी तौर पर लड़ रहे हैं।

खबर है कि येरूशलम के बाद अब इजरायल ने फलस्तीन के चार घटक क्षेत्रों में से एक वेस्ट बैंक के भी एक तिहाई से ज्यादा इलाके पर कब्जा करने का इंतजाम कर लिया है। कोरोना काल में पूरी दुनिया में जारी दबंगों की लूटपाट की यह अगली कड़ी है। यह काम अमेरिकी चुनाव से पहले कर लिया जाना है, ताकि वहां की राजनीति के दोनों पक्षों का आशीर्वाद इसे प्राप्त हो सके। संसार की सबसे सताई हुई जाति का सबसे उत्पीड़क जाति में रूपांतरण पूरा हो चुका है। आधुनिक विश्व राजनय की इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है!

पहले विश्वयुद्ध (1914-1919) की समाप्ति तक इजरायल सिर्फ कल्पनाओं में बसा देश था। यूरोप के लगभग सारे ही मुल्कों में फैले यहूदी पांच या दस पीढ़ियों से वहीं की भाषाएं बोलते थे, सूदखोरी और बिजनेस करते थे या बौद्धिक पेशों में ऊंचा मुकाम बनाए हुए थे। घर में वे अक्सर खाना छोड़कर भी पियानो बजाते थे। और उन्हीं में से कुछ किसी अनजान सपनीले इलाके की जायन पहाड़ी पर लौट जाने की बात करते हुए जायनिज्म नाम का एक राजनीतिक पंथ भी चलाते थे।

विशाल अतामान साम्राज्य के पूर्वी हिस्से में लगभग बीचोबीच फलस्तीन नाम का एक ऊबड़-खाबड़ इलाका था- जिला या शायद एक बड़ी तहसील के स्तर का- जहां यहूदी और ईसाई धर्मों के मूल स्थान थे। साथ ही अल अक्सा मस्जिद भी थी, जिसे मुसलमान मक्का और मदीना के बाद अपना सबसे पवित्र स्थल मानते हैं। यहां तीनों धर्मों की, अरबी जुबान बोलने वाली मिली-जुली आबादी रहती थी, जिसमें यहूदियों को सबसे ज्यादा डर यह सताता था कि तुर्की की हुकूमत अगर आगे कमजोर पड़ी तो यूरोप से आकर ताकतवर ईसाई कहीं उन्हें अपनी जमीन से भी बेदखल न कर दें।

जायन इसी इलाके की एक नामालूम सी मिट्टी के टीले जैसी जगह थी। इतनी बेनाम कि आज इजराइल बने अर्सा गुजर जाने के बाद भी आपको न तो कभी जायन का नाम सुनाई देता है, न जायनिज्म का। बहरहाल, कुछ समय बाद अपनी बेदखली को लेकर फलस्तीन के यहूदी जैसा सोचते थे, ठीक वैसा ही हुआ, लेकिन कुछ अलग तरीके से। अतामान साम्राज्य के धुरी देश तुर्की की हुकूमत दूसरे विश्वयुद्ध (1939-1945) में जर्मनी और जापान की तरफदार बनकर लड़ी। लिहाजा लड़ाई खत्म होने के बाद उसे ‘सिक मैन ऑफ यूरोप’ बताकर उसके विशाल भूगोल को पूरा ही छिन्न-भिन्न कर दिया गया।

थोड़ा पीछे लौटें तो पहली बड़ी लड़ाई खत्म होने के कुछ ही समय बाद खिलाफत गई, फिर देखते-देखते अतामान साम्राज्य भी दरकने लगा। यूरोप में जायनिज्म एक गंदा शब्द माना जाने लगा और सिर्फ जर्मनी में ही नहीं, लगभग हर देश में इसे मानने वाले षड्यंत्रकारी, गद्दार करार दिए जाने लगे। जर्मनी के नाजियों द्वारा किए गए यहूदी जनसंहारों को हम सब जानते हैं, पर फ्रांस, रूस, ब्रिटेन और अमेरिका में अक्सर सामूहिक मारपीट और इक्का-दुक्का हत्याओं तक सीमित इनके अपेक्षाकृत कमजोर संस्करणों की ज्यादा चर्चा नहीं हुई। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद तो खैर इनपर मिट्टी ही डाल दी गई।

लड़ाई के बाद दुनिया के नए बटवारे का फायदा नाजियों के सताए हुए यहूदियों को इस रूप में देने का प्रयास किया गया कि बासी भात में ख़ुदा के साझे की तरह उनका चिरवांछित देश उन्हें सौंप दिया गया। लेकिन हकीकत में यूरोपीय देशों ने इसके जरिये अपना कष्ट काटने का प्रयास किया। सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। यहूदियों का देशनिकाला भी हो गया और उनका सपना पूरा करने का पुण्य भी मिल गया।

जर्मनी, रूस, पोलैंड, फ्रांस और अमेरिका जैसे न जाने कितने देशों को छोड़कर आए हुए यहूदी इस ऊबड़-खाबड़ बंजर जगह पर रहने के लिए तैयार हो गए। एक सपने के अलावा इस उम्मीद के साथ कि यहां कोई उनका सामूहिक जनसंहार करने तो नहीं आएगा। अलबत्ता इस समय तक अमेरिका में यहूदी काफी ताकतवर हो चुके थे। वित्तीय पूंजी उनके पास पहले से थी, दूसरे विश्वयुद्ध में तेल के बिजनेस से और दूसरे धंधों में यह कई गुना बढ़ गई थी। वे अपनी पूंजी के बल पर अमेरिका के राजनीतिक वर्ग को प्रभावित कर सकते थे।

ऐसे में उनके ही जोर से अमेरिका का हाथ नवनिर्मित देश इजरायल पर लगातार बना रहा और उसकी गाड़ी चल निकली। इस समय तक इस भूगोल में कोई केंद्रीय सत्ता नहीं थी। अतामान साम्राज्य के टूटने पर उसकी धुरी मझोले देश तुर्की की शक्ल ले चुकी थी और उससे थोड़ी दूरी पर इजिप्ट, सऊदी अरब, इराक और सीरिया जैसे बड़े और जॉर्डन तथा लेबनान जैसे छोटे देश उग आए थे। इजरायल के नाम पर बसे यहूदियों को अपनी बिरादरी के पुराने लोगों का साथ मिला, साथ ही स्थानीय मुसलमानों और ईसाइयों की नाराजगी भी।

लेकिन समस्या तब शुरू हुई जब अपनी बसावट की जगहों से इजरायली सरकार ने यहां के पुराने बाशिंदों को भगाना शुरू किया। यासिर अराफात इस इलाके के पुराने बाशिंदों के ही नेता थे। उन्हें अरबीभाषी मुसलमानों का ही नहीं, ईसाइयों और कुछ पुराने यहूदियों का भी समर्थन हासिल था। ये यहूदी परिवार आज भी अपनी पुश्तैनी जमीन की लड़ाई कानूनी तौर पर लड़ रहे हैं, क्योंकि इजरायली कानून के मुताबिक अदालतों में इन्हें भी अपनी बात कहने का हक है। फलस्तीन राष्ट्र का आंदोलन इसी गहमागहमी में शुरू हुआ।

भारत समेत दुनिया के सभी नव-स्वाधीन देशों ने फलस्तीनियों के पक्ष में आवाज उठाई, जिसे संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी वीटो के बुलडोजर से दबाया जाता रहा। फलस्तीन की आजादी की मांग को थोड़ा और दम देने के लिए इजिप्ट ने अपना गाजापट्टी वाला हिस्सा, जॉर्डन ने इसी नाम की नदी का पश्चिमी किनारा (वेस्ट बैंक) और सीरिया ने गोलन पहाड़ी फलस्तीन के नाम वक्फ कर दी। लेकिन दिनोंदिन अपना विस्तार करते हुए इजरायल ने इन इलाकों के भी बड़े हिस्से दबा लिए। यह सिलसिला आज भी बदस्तूर जारी है और शायद फलस्तीन के खात्मे तक जारी ही रहे। प्रसिद्ध इजरायली कथाकार आमोस ओज़ फलस्तीन-इजरायल टकराव को धर्म-संस्कृति के बजाय जमीन-जायदाद का मामला यूं ही नहीं कहते!

इसका एक नतीजा 1973 के अरब-इजरायल युद्ध के रूप में सामने आया, जिसमें अमेरिकी जंगी साजोसामान के दम पर इजरायल ने नव स्वाधीन अरब देशों की संयुक्त सेना को करारी शिकस्त दी। हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि इस हार के पीछे दो ताकतवर अरब मुल्कों इजिप्ट और सऊदी अरब के अमेरिका समर्थित शासकों की गद्दारी जिम्मेदार थी। तब से लेकर आज तक इस पराजय की कुंठा पूरी दुनिया में मुस्लिम कट्टरपंथ और अतिवाद का एक बड़ा कारण बनी हुई है।

अमेरिका का बगलबच्चा कहे जाने वाले अरब शासक अपनी जरूरत देखकर कभी फलस्तीनी संघर्ष को समर्थन देते हैं, कभी इससे दूरी बनाते हैं। पूरी दुनिया में वहाबियत की मुहिम छेड़ने वाले सऊदी शाही खानदान के मुंह से अब कभी फलस्तीन लफ्ज़ तक नहीं निकलता। कुछ दिन बाकायदा नई खिलाफत चला लेने वाले आईएस को तो इजरायल की ही संतान माना जाता रहा है। लेकिन इस कूटनीतिक उलटबांसी के बीच एक प्राचीन विस्थापित राष्ट्र को दोबारा बसाने के नाम पर उजाड़े गए स्थानीय लोगों का उजाड़ा आज भी न तो खत्म हुआ है, न इसके खत्म होने के दूर-दूर तक कोई आसार हैं। 

(चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये लेख फेसबुक से साभार।)

First Published on: July 5, 2020 9:13 AM
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