इस चुनाव में भाजपा की सफलता उत्तर प्रदेश पर निर्भर करती है। सिर्फ इसलिए नहीं कि उत्तर प्रदेश में देश की सबसे अधिक 80 संसदीय सीटें हैं और भाजपा के अधिकतम सांसद यहीं से आते हैं। पिछले 2 लोकसभा चुनावों में यहां से भाजपा ने 71 और 62 सीटों पर अप्रत्याशित सफलता प्राप्त कर देश की सत्ता पर दावेदारी ठोकी थी। उत्तर प्रदेश इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि हिन्दी पट्टी में यही एकमात्र प्रदेश है जहां भाजपा और कहीं भी हुई घाटे की भरपाई कर सकती है। बाकी सब हिन्दी प्रदेशों में तो भाजपा लगभग सभी सीटें जीती थी, इसलिए और ऊपर जाने की गुंजाइश नहीं है। पिछले एक-दो महीने से एक सर्वे के आधार पर यह दावा किया जा रहा है कि इस बार तो भाजपा अपने पुराने रिकॉर्ड भी तोड़ देगी, 70 पार और यहां तक कि पूरे 80 के दावे किए जा रहे हैं।
इन दावों की जांच करने के लिए हम कुछ साथियों ने दो चरणों में उत्तर प्रदेश के 15 संसदीय क्षेत्रों की यात्रा की। पहले चरण में अप्रैल के पहले हफ्ते में नोएडा, गाजियाबाद, मेरठ, मुजफ्फरनगर, कैराना और सहारनपुर तथा अप्रैल के तीसरे हफ्ते में बाराबंकी, मोहनलालगंज, उन्नाव, रायबरेली, अमेठी, प्रतापगढ़, इलाहाबाद, मिर्जापुर और वाराणसी तक गांवों की खाक छानी। इस पूरे क्षेत्र में घूमने से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि इस बार उत्तर प्रदेश में कुछ बड़ा उलटफेर होने जा रहा है। जनता के मन की थाह लेने के लिए हमने कोई तकनीकी सर्वे या किसी खुफिया तरीके का इस्तेमाल नहीं किया। हमने जो किया उसे चाहें तो आप भी इस्तेमाल कर सकते हैं और अपने इलाके में खुद चैक भी कर सकते हैं।
हम 5-6 व्यक्ति एक साथ गाड़ी में बैठकर सुबह से देर शाम तक गांव-देहात में घूमते थे और साधारण लोगों से पूछा कि उनका मत क्या है, पिछली बार कहां था, और इस बार किसे जाएगा। चुनाव के मिजाज और लोगों के अपने रुझान के बारे में बातचीत करते वक्त इतना ध्यान जरूर रखते थे कि सड़क के किनारे या गांव के कुछ बड़े परिवारों से बात करने की बजाय सभी जाति समुदाय के लोगों से बात करें, नेताओं या पत्रकारों से पूछने की बजाय एक साधारण वोटर से बातचीत करें। हमारे इस सफर से उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड क्षेत्र, पूर्वांचल के बिहार से सटे जिले और प्रदेश के बड़े शहर अछूते रहे। हमारी बातचीत महिलाओं की तुलना में पुरुषों से अधिक हुई। यह हमारे निष्कर्ष की सीमा हो सकती है।
प्रदेश के सैंकड़ों साधारण वोटरों से हुई इस बातचीत के आधार पर एक बात तो बिल्कुल साफ है कि उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में परिवर्तन की हवा है। यानी कि 2019 की अपनी स्थिति में सुधार करने की बजाय भाजपा वहां तक भी पहुंचती दिखाई नहीं देती। अभी से यह नहीं कहा जा सकता कि भाजपा के वोट में गिरावट कितनी है और उसका सीटों पर कितना असर होगा। यह भी पूरी तरह साफ नहीं था कि यह परिवर्तन की बयार इस बार क्यों चल रही है। इन बातों को समझने के लिए अभी कुछ देर और इंतजार करना पड़ेगा।
परिवर्तन की इस हवा को अभी से भाजपा के खिलाफ आंधी नहीं कहा जा सकता। प्रधानमंत्री मोदी की अंधभक्ति बहुत कम हो गई है, लेकिन एक सामान्य वोटर में उनके प्रति अभी गुस्सा नहीं है। एक दबी छुपी-सी निराशा है, उससे भी ज्यादा थकान है। अब मोदी का नाम लेने भर से बाकी सब मुद्दों पर चर्चा रुक नहीं जाती। एक साधारण वोटर कांग्रेस सरकार द्वारा लागू की गई 5 किलो राशन की योजना का श्रेय मोदी जी को देता है, लेकिन इस बार सिर्फ उनके नाम पर वोट नहीं पड़ेगा। उत्तर प्रदेश के गांवों में मोदी की तुलना में योगी ज्यादा लोकप्रिय हैं, उन्हें गुंडागर्दी खत्म करने का श्रेय मिलता है। साथ ही योगी के समर्थक यह आशंका भी जाहिर करते हैं कि शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे सिंधिया की तरह उनका पत्ता भी काटा जा सकता है। कहते हैं कि लोकसभा का चुनाव योगी जी का नहीं है।
उधर आम जनता में भाजपा के अधिकांश सांसदों और स्थानीय नेताओं के खिलाफ बहुत गुस्सा है और अनेक वोटर इस चुनाव में वोट का इस्तेमाल उन्हें सबक सिखाने के लिए करेंगे। यह चुनाव मोदी से ज्यादा मुद्दों का चुनाव होता जा रहा है। हर वोटर के मन में महंगाई और बेरोजगारी है। ग्रामीण जनता अपनी आर्थिक स्थिति से त्रस्त है। कई लोग याद करते हैं कि नोटबंदी या फिर लॉकडाऊन के समय से उनकी स्थिति सुधरी नहीं है। एक किसान बोला मोदी जी ने हम सबको चौकीदार बना दिया है। भाजपा सरकार को कानून व्यवस्था का श्रेय देने से भी यह मुद्दे दबते नहीं। अयोध्या के राम मंदिर में हुई प्राण प्रतिष्ठा का मामला लोग अपने आप नहीं उठाते, वोट के संदर्भ में उसका जिक्र नहीं करते। जब चुनाव जीवन के मुद्दों पर होता है तो सत्तारूढ़ दल को परेशानी का सामना करना पड़ता है।
लेकिन यहां पूछा जा सकता है कि यह सब ङ्क्षचता तो नई नहीं है। विधायकों के प्रति गुस्सा तो 2022 में भी था, लेकिन तब भाजपा नहीं हारी। इस बार वोट क्यों खिसक रहा है? शायद इसका कारण यह है कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को आसन्न खतरे को अब साधारण वोटर अपने मुहावरे में समझने लगा है। अनेक लोगों ने कहा कि परिवर्तन होना चाहिए, चूंकि अगर तीसरी बार फिर मोदी जी आ गए तब तो तानाशाही शुरू हो जाएगी। एक साधारण ग्रामीण ने समझाया कि जब किसी को पहली बार प्रधान चुनते हैं तो वह संभल कर सही काम करता है। अगर दूसरा मौक़ा मिले तो चोरी चकारी सीख जाता है, अगर तीसरी बार वही प्रधान बन जाए तो हमारे सिर पर बैठकर डंडा चलाता है।
इस बदलाव का चुनाव परिणाम पर क्या असर होगा, अभी से इसका सटीक अनुमान लगाना संभव नहीं है। हमारे सुनने में जो आया उसके हिसाब से भाजपा के पिछले वोटरों में से एक चौथाई कहते हैं कि इस बार उसे वोट नहीं देंगे। सभी जगह और सभी जातियों में भाजपा का वोट खिसक रहा है। सपा और कांग्रेस का वोट कमोबेश कायम है। बी.एस.पी. का वोटर पार्टी का नाम लेने में झिझकता है। वहां थोड़ी गिरावट दिखती है। लेकिन बी.एस.पी. से छिटका वोट भाजपा को नहीं जा रहा। इस आधार पर इतना तो कहा जा सकता है कि भाजपा की सीटों में गिरावट होगी।
यानी 70 तो छोडि़ए, भाजपा के लिए 60 सीटें बचाना भी नामुमकिन लगता है। अगर 2019 में भाजपा को जितने वोट मिले थे उसका छठवां हिस्सा भी छिटक कर सपा और कांग्रेस को मिल गया तो भाजपा 50 सीटों का आंकड़ा भी नहीं छू पाएगी। वैसे अभी सिर्फ 16 सीटों में वोट पड़े हैं और स्थिति बदल सकती है। फिलहाल तो हर दिन स्थिति भाजपा के लिए विकट होती दिखाई दे रही है। चुनाव के पहले दोनों चरणों में उत्तर प्रदेश में मतदान में कोई 6 प्रतिशत की गिरावट भी इसी तरफ इशारा कर रही है। सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर भाजपा को उत्तर प्रदेश में घाटा होता है, तो वह बाकी देश में हुए नुकसान की भरपाई कहां से करेगी? 400 पार के जुमले को भूल भी जाएं तो भाजपा 272 का जादुई आंकड़ा कैसे पार करेगी?
(योगेन्द्र यादव राजनीतिक कार्यकर्ता और चुनाव विश्लेषक हैं।)