
भारतीय महिलाएं हमेशा सशक्त रही हैं। उनके साहस, त्याग एवं बलिदान की गाथा आज भी हमारे ग्रंथों में भरी पड़ी हैं। जहां एक ओर सावित्री ने यमराज से पति के प्राण वापस कर लिए, वहीं अनुसूया ने सृष्टि के पालक, पोषक और संहारक त्रिदेवों को पालने में अंगूठा चूसने पर विवश कर दिया तो कैकेयी ने देवासुर संग्राम में अपने कलाई को ही रथ में लगा दिया वहीं रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य की गाथाएँ तो जगजाहिर है।
”यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” अर्थात जहां नारियों के मान-सम्मान की रक्षा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं। तात्कालीन नारी की स्थिति के मूल में न आतंक था और न ही हीनता, इसी सामंजस्य की वजह से समाज का विकास उत्कर्ष पर था। फिर उसके बाद नारी के जीवन में बदलाव आने शुरू हुए।
मध्य युग में सीमा के दोनों ओर आक्रमणों के कारण नारी की स्थिति में काफी अवनति हुई। वह कभी देवदासी बनी तो कभी मनोरंजन की सामग्री, यहाँ तक की उसे शिक्षा से भी वंचित रखा गया इतने के वावजूद नारी ने अपने ज्ञान और मनोबल के बल पर अपने पद का हनन नहीं होने दिया।
एक ओर जहां झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई जैसी वीरांगनाओं ने युद्ध में सहयोग देकर अपनी वीरता का परिचय दिया वहीं दूसरी ओर मीरा, सहजोद्यबाई जैसी साधिकाओं ने साहित्य में श्रेष्ठ रचनाओं से अपनी अमित छाप छोड़ी। भारतीय नारी ने गिरते -संभलते अनंत संघर्षों का सामना करते हुए एक बहुत ही कठिन एवं लम्बी यात्रा को तय किया है तथा अपने त्याग एवं समर्पण की बदौलत परिवार, समाज एवं देश के प्रति अपनी अमूल्य भूमिका अदा किया है।
कभी वह शक्ति की प्रतीक दुर्गा बनकर दुष्टों का संहार किया है तथा कभी ममता की प्रतीक यशोदा बनकर अपने नारी रूप को संवारा है। दया और ममता तो उसका ईश्वरीय गुण है जिसका प्रतिफल वह समय-समय पर बिभिन्न रूपों में चुकाते आई है। वह संसार के बड़े से बड़ा कष्ट चुपचाप सहन कर लेती है, त्याग और अनुराग का यह अनोखा संयोजन नारी को और भी विशिष्ट बनाता है तभी तो उसे देवी की संज्ञा दी जाती है।
गांधी जी के अनुसार ”नारी त्याग और तपश्चर्या की जीती-जागती स्वरूप है” नारी की सहनशीलता के सामने बड़े-बड़े दिगज्ज भी नतमस्तक हो जाते हैं। कवि हरिवंश राय बच्चन ने कहा है कि नारी के त्याग, समर्पण एवं सहनशीलता की वजह से ही पुरुष अपना कीर्तिमान बनाता है या यूं कहें कि हर सफल व्यक्ति के पीछे किसी न किसी स्त्री का ही हाथ होता है। वह अपना सर्वस्व न्योछावर कर पुरुष को जग में ऊंचा उठाती है।
आज नारी अपने मान-सम्मान तथा कर्तव्यों के प्रति काफी जागरूक हो गई है, उसे अपने कर्तव्यों का बोध हुआ है और अपनी राह स्वयं बनाने में वह काफी हद तक सफल भी हुई है। इन सब के वावजूद एक कट्टु सत्य यह भी है कि आज नारी जितना जागरूक हुई है वहीं उसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि भी काफी हद तक धूमिल हुई है।
अपने क्षणिक सुख कि खातिर नारी अपने परिवार तक को दांव पर लगा देती है नतीजा पारिवारिक बिखरन,तनाव, एकल परिवार एवं तलाक की नौबत घर -घर में देखने को मिल रहा है। अब परिवार बेहद सिमट गया है जहां सास-ससुर, जेठ-जेठानी, परिवार का स्तम्भ माने जाते थे वे आज महज दहेज-उत्पीड़न के सदस्य बनकर रह गए हैं।
पहले स्त्री जो परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखती थी उस स्त्री ने आज अपनी अलग ही छवि तैयार की है, जिसमें उसके पति, बच्चों के सिवा कोई तीसरा सदस्य उसे बिलकुल भी गवारा नहीं और पति भी वैसा जो, उसके इशारों पर नाचे। और अगर ऐसा संभव नहीं हुआ तो तलाक के रास्ते तो अवश्य ही खुले हैं।
एक विलक्षण बात जो सदैव याद आती हैं, कि हम जब जन्म लिए थे, तो हमारे देश में घर थे पर अब जब हम बड़े हो रहे हैं तो घर की जगह मकान शेष रह गए हैं। घर और मकान में यदि कोई अंतर है तो उसका सीधा श्रेय नारी को जाता है। नारी में वह सामर्थ्य है कि वह किसी मकान को घर में परिवर्तित कर दे, पर अगर नारी नर जैसा आचरण करने लगे तो घर में मात्र मकान बच जाता है, वह घर कभी बन ही नहीं पाता।
एक साथ रहकर भी पति-पत्नी अजनबी सा बन जाते हैं। बच्चे जन्म लेते हैं,पर संबंध नारी और बच्चे का होता है, माँ बेटे का तदात्मय कभी पनप ही नहीं पाता। ऐसा इसलिए होता है कि जो स्त्री माँ बन सकती थी, परिवार को एक सूत्र में बांध सकती थी, वह तो विकसित हुई ही नहीं, उसकी जगह नारी में पुरुष के गुणों की वृद्धि हुई है, क्यों कि वह जो है उससे वह संतुष्ट नहीं है।
अभी हाल में यह प्रतिद्वंदीता और बढ़ी ही है, आज लड़कियां पुरुषो के कपड़े पहन रही है और खुद को लड़कों के बराबरी पर रख रही हैं, तो क्या मात्र कपड़े का अनुकरण कर लेने से एक लड़की लड़का बन जाएगी……..? हम जो भी खाते-पीते, पहनते-ओढ़ते हैं, उनका हमारे शरीर और मन दोनों पर गहरा प्रभाव पड़ता है। बाद में यही प्रभाव व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाता है। इसलिए हम जो हैं उसमें ही खुश रहें तो हमारे लिए ज्यादा अच्छा रहेगा।
परिवार को जोड़कर रखने में महिलाओं की भूमिका सराहनीय रही है, इसका एकमात्र कारण उनकी विशिष्ट मानसिक संरचना है। पुरुषों में इस गुण का पूर्णतया अभाव रहता है, फलस्वरूप न तो वे बिखराव को रोक पाते हैं और न ही वो सद्भावनापूर्ण वातावरण बनाए रखने में ही सफल होते हैं। स्त्रियों में यह गुण प्रकृति प्रदत्त है, फिर यदि हम प्रकृति के विरूद्ध काम करेंगे तो जाहिर है व्यवधान तो आएगा ही, इसमें कोई संदेह नहीं।
पश्चिम में इसी कारण हर दिन परिवार टूटता है, हालांकि भारत में अभी इसकी गति धीमी है पर अगर हम जल्द ही अनुकरण की प्रवृति का त्याग नहीं करेंगे तो वह दिन दूर नहीं जब हम भी उनकी श्रेणी में खड़े होंगे। हमें अपने मातृसत्ता के सुख को जल्द ही समझना होगा तभी ‘इक्कीसवीं सदी-उज्ज्वल भविष्य’ का सपना साकार होगा।
नारी जन्मदात्री है, समाज का प्रत्येक भावी सदस्य उसकी गोद में पलकर संसार में खड़ा होता है । माँ ही अपने बच्चों की प्रथम पाठशाला होती है,माँ जैसा आचरण करती है बच्चे भी वैसा ही अनुकरण करते हैं, तो क्यों न हम एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करें जिससे एक बेहतर समाज का निर्माण हो ……..!
(लेखिका संगीता सिंह ‘भावना’ कवयित्री हैं और लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)