समाजवादी आंदोलन के 90 साल पूरा होने के ऐतिहासिक मौके पर दिल्ली में होगा युवा सोशलिस्ट सम्मेलन

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दिल्ली Updated On :

नई दिल्ली। भारत के समाजवादी आंदोलन के 90 साल पूरा होने के ऐतिहासिक मौके पर दिल्ली में आचार्य नरेंद्र देव जयंती दिवस पर 31 अक्तूबर – 1 नवंबर 2025 को युवा सोशलिस्ट सम्मेलन का आयोजन किया गया है। सम्मेलन में वर्तमान (कारपोरेट-कम्यूनल राजनीतिक सांठ-गांठ) संदर्भों में देश की शिक्षा-नीति, स्वास्थ्य-नीति, रोजगार-नीति, अर्थ-नीति, कृषि-नीति, विकास-नीति, संस्कृति-नीति आदि पर समाजवादी नजरिए से चर्चा की जाएगी।

समाजवादी आंदोलन से जुड़े देश के तमाम युवा स्त्री-पुरुष सम्मेलन में भागीदारी के लिए आमंत्रित हैं। परिवर्तनकारी राजनीति से जुड़े अन्य धाराओं के युवाओं का भी सम्मेलन में स्वागत है। युवाओं का दिशा-निर्देशन करने के लिए वरिष्ठ समाजवादी साथी सम्मेलन में सादर आमंत्रित हैं।

सम्मेलन का आधार-पत्र

साम्राज्यवाद को परिभाषित और व्याख्यायित करने का काम बहुत हो चुका, जरूरत उसे दुनिया से समाप्त करने की है।    

भारत के समाजवादी आंदोलन की, क्रांतिकारी विचारधारा और क्रांति-कर्म के स्तर पर, कुछ मौलिक विशेषताएं हैं:

* वह भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की कोख से पैदा होता है। इस नाते वह 1857, उसके पहले और बाद की सभी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष की धाराओं को आत्मसात करके चलता है।

* वह भारत की सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के अनिवार्य कार्यभार को केवल आर्थिक व्यवस्था में बदलाव के भरोसे नहीं छोड़ता; बल्कि उसे एक समानांतर और काफी हद तक स्वतंत्र कार्यभार मान कर चलता है। वर्ग, वर्ग-चेतना और वर्ग-संघर्ष के सवाल को वह अनिवार्य रूप से जाति के सवाल के साथ जोड़ कर देखता है। भारत में सामाजिक बदलाव, खास कर जाति-व्यवस्था और पितृसत्तात्मकता के खिलाफ होने वाले आंदोलनों और उसके प्रणेताओं का वह स्वाभाविक सहयोगी है।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में बदलाव के अत्यंत महत्वपूर्ण विषय में समाजवादी आंदोलन बहुजन भारतीय जनता की अंतर्निहित संभावनाओं को उन्मुक्त करने और सामंतवादी-उपनिवेशवादी शिकंजे से स्थायी मुक्ति के लक्ष्य से परिचालित है। दलित, आदिवासी, पिछड़ों, महिलाओं और गरीब मुसलमानों को सामाजिक सरंचना, सेवा-क्षेत्र और राजनीति में आगे लाने की डॉ लोहिया की पेशकश देश की सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक संरचना को हमेशा के लिए बदल डालने का एक युगांतरकारी विचार है। लोहिया ने हाशिये पर स्थित समुदायों के दिमाग के वि-ब्राह्मणीकरण (डि-ब्राहमणाईजेशन) और वि-औपनिवेशीकरण (डि-कोलोनाईजेशन) की सबसे ज्यादा संभावना देखी थी। क्योंकि यह दिमाग पुराने ब्राह्मणवादी और नए उपनिवेशवादी मूल्य-विधान से बहुत हद तक अलग था। इस रूप में वह सांप्रदायिक फासीवाद और पूंजीवादी साम्राज्यवाद की स्थायी काट हो सकता था। 

यही बात दो-तिहाई दुनिया के संदर्भ में भी कही जा सकती है। लेकिन युगांतर उपस्थित करने की संभावनाओं से भरी लोहिया की इस पेशकश को सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले नेताओं ने फूहड़ जातिवाद में घटित कर दिया। इतना ही नहीं, उसे सांप्रदायिक फासीवाद और पूंजीवादी साम्राज्यवाद की सेवा में भी लगा दिया। अफसोस की बात है कि ज़्यादातार बुद्धिजीवी भी लोहिया की इस पेशकश को महज चुनावी नजरिए से ही देखते हैं। इस सारी कवायद में हाशिये पर स्थित विशाल अबादी  आधुनिक भारत के नागरिक बनने के बजाय जातियों, कबीलों और धर्मों की पहचान की बंदी हो गई  है।     

* वह पूंजीवाद और साम्यवाद से आगे स्वतंत्र समाजवादी विचारधारा का प्रतिपादन करता है, जो यूरोपीय सामाजिक लोकतंत्रवादियों और लोकतांत्रिक समाजवादियों से अलग है। समाजवाद को परिभाषित करने का उसका संदर्भ-बिंदु सदियों तक उपनिवेशवादी लूट का शिकार रहे देश हैं। वह स्वीकार करता है कि पूंजीवाद, शुरुआत से लेकर आज तक, साम्राज्यवादी होकर ही संभव होता है। वह अपने संभव होने के लिए बाहर उपनिवेश खोजता है। अगर बाहर उपनिवेश उपलब्ध न हों तो वह देश में ही आंतरिक उपनिवेश कायम करता है। इसीलिए समाजवादी विचारधारा में दो-तिहाई दुनिया के विकास के मद्देनजर पूंजीवादी उत्पादन-संबंध ही नहीं, उत्पादन-तकनीक में भी बदलाव पर बल दिया गया है। 

* वह पूंजीवादी और साम्यवादी विकास के मॉडल को टेक्नॉलॉजी और उत्पादन/विनिमय सहित उसके समस्त आयामों में दो-तिहाई दुनिया के विकास की कसौटी पर अमान्य करता है। साथ ही वह पूंजी-निर्माण के लिए अंधाधुंध संसाधन-दोहन और पर्यावरण-विनाश का विरोधी है। वह चरम उपभोक्तावादी संस्कृति की जगह समता के साथ संपन्नता का हिमायती है।

* भारत का समाजवादी आंदोलन साधन और साध्य को अलग-अलग खानों में बांट कर नहीं देखता। वह मानता है कि लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में किए जाने वाले प्रत्येक संघर्षात्मक कदम/कार्रवाई का औचित्य उठाए जाने वाले कदम में ही होना चाहिए।

* वह वैधानिक उपायों के नाकाफ़ी रहने पर अन्यायपूर्ण व्यवस्था, स्थिति और कानून का प्रतिकार करने की अहिंसक कार्य-प्रणाली को मान्यता देता है। अन्याय के प्रतिरोध की सत्याग्रह/सिविल नाफरमानी की कार्य-प्रणाली को वह दुनिया की अभी तक की सबसे बड़ी क्रांति मानता है, जिसके तहत पूरा वर्ग/समूह ही नहीं, एक अकेला व्यक्ति भी अन्याय के खिलाफ संघर्ष कर सकता है।

* वह अपनी विचारधारात्मक बनावट में ही लोकतांत्रिक है। लिहाजा, वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संमेत सभी नागरिक स्वतंत्रताओं और व्यक्ति-स्वातंत्र्य हामी है। वह समाजवादी सभ्यता के निर्माण में स्त्री की स्वतंत्रता को विशेष महत्व देता है। साथ ही वह संस्कृति, साहित्य और कलाओं की राज्य-नियंत्रण से अलग स्वतंत्रता सत्ता का पक्षधर है। इस रूप में उसने आधुनिक लोकतांत्रिक स्वतंत्र समाज के निर्माण की दिशा में महत्वपूर्ण योगदान किया है।  

* भारत का समाजवादी आंदोलन केंद्रवादी आधिपत्य के बरक्स सत्ता और शासन के विकेंद्रीकरण को समाजवादी व्यवस्था के लिए अनिवार्य मानता है। राजनीतिक सत्ता, संसाधनों और प्रशासन के विकेंद्रीकरण के लिए चौखंभा-राज की अवधारणा प्रस्तावित की गई है। 

* वह देशों के अंतर्गत बराबरी की व्यवस्था के साथ सभी देशों के बीच बराबरी के संबंध कायम करने का हिमायती है, और उसके लिए एक विश्व-सरकार और वीजा-मुक्त यात्रा की परिकल्पना पेश करता है।

* वह भारतीयता को बहुलताधर्मी स्वीकार करते हुए संस्कृति, दर्शन, कला, साहित्य, भाषा और धार्मिक परंपराओं को विवेकपूर्ण प्रगतिशील नजरिए से देखने-समझने की पेशकश करता है। समाज और राष्ट्र की बेहतरी के लिए वह कट्टरतावाद और विशुद्धतावाद का निषेध करता है।    

* भारत का समाजवादी आंदोलन राजनीति को सत्य को जानने और हासिल करने की कला के रूप में ग्रहण करता है। लिहाजा, वह राजनीति, उसे अंजाम देने वाली राजनीतिक पार्टियों/नेताओं और उनके साथ अनिवार्य रूप से जुड़े पावर-गेम में पूर्ण पारदर्शिता, ईमानदारी और जवाबदेही की वकालत करता है। अगर राजनीतिक पार्टी का ढांचा और कार्य-पद्धति लोकतांत्रिक नहीं है, तो लोकतांत्रिक प्रणाली अनिवार्यत: विकृत होगी। वह किसी भी तर्क पर एक पार्टी, एक व्यक्ति, एक परिवार के शासन को लोकतांत्रिक नहीं स्वीकार करता है। इस तरह वह विश्व में समाजवादी राजनीतिक आचरण की नई सभ्यता का प्रस्तावक दर्शन है।

भारत की समाजवादी विचारधारा को समझने के लिए उसके प्रमुख चिंतकों आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण, डॉ राममनोहर लोहिया, किशन पटनायक, सच्चिदानंद सिन्हा और उनसे प्रेरित अन्य समाजवादी विचारकों/नेताओं का साहित्य देखा जा सकता है। समाजवादी साहित्य का समग्रता में अवलोकन करने पर पाते हैं कि समाजवादी विचारधारा एक खुली विचारधारा है। उसका लक्ष्य दुनिया से गैर-बराबरी, अन्याय और हथियार का पूर्ण खात्मा करना है। उसके निर्माताओं ने अपनी परिकल्पना की समाजवादी व्यवस्था में गांधीवाद का फ़िल्टर लगाया है। 

यहां यह उल्लेख कर देना मुनासिब होगा कि संगठित भारतीय समाजवादी आंदोलन की कालावधी 1934, जब कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सीएसपी) का गठन हुआ, से लेकर 1977, जब सोशलिस्ट पार्टी का जनता पार्टी में विलय किया गया, तक है। जनता पार्टी के बिखराव के बाद नए-पुराने समाजवादियों की जो पार्टियां बनीं उन्होंने एक शानदार आंदोलन के अवशेषों का राजनीतिक फायदा तो खूब उठाया, लेकिन विचारधारा को प्राय: दरकिनार कर दिया। दुर्भाग्य से, जो समाजवादी इस तरह की व्यक्तिवादी/परिवारवादी/जातिवादी राजनीति को समाजवाद को बदनाम करने वाली कह कर आलोचना करते थे, उनकी भूमिका भी आंदोलन और विचारधारा के मुक्तिदाता की नहीं रही। देश के युवाओं को समझना होगा कि ज्यादातर उत्तर-जनता पार्टी समाजवादियों ने समाजवादी आंदोलन और विचारधारा को क्षत-विक्षत किया है।

कहना न होगा कि एक राजनीतिक विचारधारा के चरितार्थ होने के लिए एक राजनीतिक पार्टी का होना अनिवार्य होता है। 1977 के बाद देश के राजनीतिक फलक पर एक सशक्त सोशलिस्ट पार्टी नहीं रही है। अलबत्ता, विचारधारात्मक रूप से प्रतिबद्ध कुछ समूह और व्यक्ति हमेशा रहे हैं, जो आगे भी रहेंगे। ऐसे ही लोगों ने 1991 में नई आर्थिक नीतियों के रास्ते आने वाली नवसाम्राज्यवादी गुलामी का मुकाबला करने के लिए समाजवादी जन परिषद (1995) और सोशलिस्ट पार्टी इंडिया (2011) का गठन किया था। इन दोनों पार्टियों की अपेक्षित ताकत नहीं बन पाई।

युवाओं को यह गंभीरता से समझना होगा कि भारत (और दो-तिहाई दुनिया) को कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ और नवसाम्राज्यवादी शिकंजे से मुक्ति हासिल करनी है तो वह समाजवादी विचारधारा के आधार पर ही संभव हो सकता है। उन्हें यह समझना होगा कि समाजवादी विचारधारा केवल अपने को समाजवादी कहने वाले लोगों की थाती नहीं है। वह सभी भारतीयों की साझी थाती है। क्योंकि कांग्रेस के भीतर गठित होने वाली कांग्रेस  सोशलिस्ट पार्टी को ही भविष्य में कांग्रेस का विकल्प होना था।   

इसके लिए देश की युवा पीढ़ी में समाजवादी विचारधारा के प्रति जागरूकता और समझ बनना जरूरी है। भारत के समाजवादी आंदोलन के 90 वर्ष होने के अवसर पर पूरे देश में कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। इसी कड़ी में युवा सोशलिस्ट पहल के तत्वावधान में दिल्ली में 31 अक्टूबर-1 नवंबर 2025 को यह दो-दिवसीय युवा सोशलिस्ट सम्मेलन आयोजित हो रहा है। इस संकल्प के साथ कि अगले 10 साल तक, यानि भारतीय समाजवादी आंदोलन के 100 साल पूरे होने तक, युवाओं द्वारा युवाओं के लिए ऐसे कार्यक्रम पूरे देश में आयोजित किए जाएंगे। इन सभी कार्यकर्मों से युवाओं में जागरूकता और समझ का जरूरी काम संभव होगा। 

युवा सोशलिस्ट सम्मेलन में देश की शिक्षा-नीति, स्वास्थ्य-नीति, रोजगार-नीति, अर्थ-नीति, विकास-नीति, कृषि-नीति, संस्कृति-नीति आदि पर समाजवादी नजरिए से चर्चा के लिए अधिकारी विद्वानों की मदद से संक्षिप्त प्रस्ताव तैयार किए गए हैं। समाजवादी आंदोलन और परिवर्तनकारी राजनीति से जुड़े अन्य धाराओं के युवा इन प्रस्तावों पर बहस करेंगे और अपने सुझाव देंगे। कहने की जरूरत नहीं कि प्रस्तावों में वर्तमान कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ शासित राजनीति/सरकारों द्वारा कार्यान्वित नीतियों के बरक्स संविधान-सम्मत नीतियां बनाने का आह्वान किया गया है। सम्मेलन में प्रस्तुत और अनुमोदित सभी प्रस्तावों को एक पुस्तिका के रूप में प्रकाशित करके देशवासियों के सामने ले जाया जाएगा। 

युवा सोशलिस्ट सम्मेलन ‘अभी नहीं तो कभी नही’ की भावना से आयोजित किया गया है। सम्मेलन का उद्देश्य युवाओं के मन-मस्तिष्क में नवसाम्राज्यवादी कारपोरेट-कम्यूनल गठजोड़ के धुर विरोध की चेतना उत्पन्न करना है। युवा भारत का दिमाग बदलेगा तो वास्तविक रूप में बाहर की स्थितियां भी बदलेंगी। संघर्ष कड़ा और लंबा है। विश्व-पटल पर भारत को समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक चेतना के साथ एक स्वतंत्र, स्वावलंबी, संप्रभु राष्ट्र के रूप में कायम रहना है तो युवाओं को यह चुनौती उठानी ही होगी।

(युवा सोशलिस्ट पहल के लिए डॉ. हिरण्य हिमकर द्वारा जारी)



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