झारखंड की शांति में खलल डालने की कोशिश, फिर से संगठित होने लगे माओवादी


झारखंड में माओवादी की समस्या पुरानी है। राज्य बनने से पहले से यहां बड़े पैमाने पर माओवादी सक्रिय रहे हैं। राज्य बनने से लेकर अब तक पुलिस कार्रवाई में 846 माओवादी मारे गए हैं।


गौतम चौधरी
झारखंड Updated On :

झारखंड में एक बार फिर से माओवादी सिर उठाने लगे हैं। आंकड़े बताते हैं कि 2019 की अपेक्षा अगस्त 2020 तक उग्रवाद व नक्सल प्रभावित इलाके में माओवादी वारदातों में बढ़ोतरी हुई है। झारखंड में अगस्त 2019 तक 85 नक्सल और उग्रवादी घटनाएँ हुई थीं, जबकि अगस्त 2020 तक 86 घटनाएँ हुई। अगस्त 2020 के बाद राज्य में माओवादी घटनाओं में अप्रत्याशित तरीके से इज़ाफा हुआ है।

चौंकाने वाली बात यह है कि अगस्त 2020 तक नक्सल और उग्रवादी घटनाएँ तब बढ़ी, जब पुलिस ने सबसे अधिक अभियान और एलआरपी चलाया। यह खतरनाक संकेत हैं और ये आंकड़े साबित करने के लिए काफी है कि माओवादियों के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ा है।

आंकड़ों और तथ्यों की मीमांशा से साफ परिलक्षित होता है कि पुलिस अभियान और सक्रियता में कोई कमी नहीं है लेकिन चरमपंथियों पर जो दबाव पड़ना चाहिए उसमें कमी दिखई दे रही है। हाल के महीनों में राज्य में सक्रिय अलग-अलग नक्सली संगठनों दहशत फैलाने के उद्देश्य से वाहनों में आगजनी और फ़ायरिंग की घटनाओं को अंजाम दिया है।

उग्रपंथियों के मनोबल में बढ़ोतरी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि नक्सलियों ने पुलिस पर हमले की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाई, हालांकि ये तमाम योजनाएं पुलिस की सक्रियता से नाकाम हुई है लेकिन इससे माओवादी खतरों को कमतर नहीं आंका जा सकता है। हाल के दिनों में बिहार के कई बड़े माओवादियों ने बिहार-झारखंड के सीमावर्ती जिलों में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। इसके अलावा पुलिस के द्वारा लगातार अभियान चलाने के बाद भी चाईबासा जिले में माओवादियों का तांडव जारी है।

माओवादी गतिविधियों पर नजर रखने वाले जानकारों का मानना है कि विगत कुछ महीनों में सरकार की कुछ नीतियों के कारण माओवादी समर्थकों में यह संदेश गया है कि रघुबर दास के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार की तुलना में हेमंत सोरेन की सरकार माओवादियों के प्रति लचीला रवैया अपना रही है।

न्यूजविंग नामक हिन्दी की एक वेबसाइट का दावा है कि नक्सली अपने संगठन को दोबारा मजबूत करने के इरादे से झारखंड क्षेत्रों के अपने पुराने सहयोगियों से संपर्क करना शुरू कर दिए हैं। एक ओर पुलिस नक्सलियों के खिलाफ अभियान तेज करने और उन्हें आर्थिक क्षति पहुंचाने की कवायद कर रही है, वहीं माओवादी टूट चुके संगठन को फिर से संगठित करने के लिए लगातार वारदातों को अंजाम दे रहे हैं।

यही नहीं माओवादी नेतृत्व फिर से नए लड़ाकों की बहाल करने में जुट गए हैं। इसके साथ ही माओवादियों ने अपने कमजोर पड़ चुके राजनीतिक विंग को भी ज्यादा प्रभावशाली बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

जैसे ही झारखंड की सरकार बदली माओवादियों ने अपने नेतृत्व में भारी फेरबदल किया। भाकपा माओवादी ने ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो (ईआरबी) सह पोलित ब्यूरो सदस्य प्रशांत बोस उर्फ किशन उर्फ बूढ़ा को हटा कर उनके स्थान पर रंजीत बोस उर्फ कंचन को ईआरबी का प्रमुख बना दिया। रंजीत बोस पार्टी के सेंट्रल मेंबर कमेटी के सदस्य हैं।

बता दें सेंट्रल मेंबर कमेटी भाकपा माओवादी का सबसे प्रभावशाली समिति है। रंजीत बोस को झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में संगठन को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी दी गई है। 65 वर्ष के रंजीत बोस की तीनों राज्यों में अच्छी पकड़ है। वह झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल में कई पुलिस मुठभेड़ में संगठन का नेतृत्व कर चुके हैं। संगठन में इसी काम को देखते हुए रंजीत बोस को ईस्टर्न रीजनल ब्यूरो के प्रमुख की ज़िम्मेदारी उन्हें सौंपी है।

झारखंड माओवादियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण प्रांत माना जाता है। जानकारों की मानें तो भाकपा माओवादी सेंट्रल मेंबर कमेटी में फिलहाल 9 सदस्य हैं। इसमें से पांच सदस्यों का मुख्यालय झारखंड में ही है। प्रशांत बोस उर्फ किशन दा उर्फ मनीष उर्फ बुढ़ा, मिसिर बेसरा उर्फ भास्कर उर्फ सुनिर्मल जी उर्फ सागर, असीम मंडल उर्फ आकाश उर्फ तिमिर, अनल दा उर्फ तुफान उर्फ पतिराम मांझी उर्फ पतिराम मराण्डी उर्फ रमेश और प्रयाग मांझी उर्फ विवेक उर्फ फुचना उर्फ नागो मांझी उर्फ करण दा उर्फ लेतरा सक्रिय रूप से झारखंड में संगठन को मजबूत करने में लगे हैं।

इसके अलावा झारखंड में माओवादियों का दो बड़ा सेंटर है। एक बूढ़ा पहाड़ और दूसरा पारसनाथ। इन दोनों स्थानों पर लगातार माओवादी गतिविधियों संचालित होती रहती है। पूर्ववर्ती सरकार के दिनों में माओवादी सिमट कर इन्हीं दो क्षेत्रों में रह गए थे लेकिन अब माओवादी पहाड़ और जंगलों से निकल कर अपने आधार वाले गांव में बैठक और जन-संगठनात्मक गतिविधि संचालित करने लगे हैं। सरकारी आंकड़ों में राज्य के 24 में 19 जिले उग्रवाद प्रभावित हैं। इनमें 13 जिले अति उग्रवाद प्रभावित हैं। जानकार सूत्रों की मानें तो राज्य में अभी भी 550 अतिप्रशिक्षित माओवादी सक्रिय हैं।

झारखंड में माओवादी की समस्या पुरानी है। राज्य बनने से पहले से यहां बड़े पैमाने पर माओवादी सक्रिय रहे हैं। राज्य बनने से लेकर अब तक पुलिस कार्रवाई में 846 माओवादी मारे गए हैं। लैंड माइंस विस्फोट और माओवादियों का पुलिस के साथ मुठभेड़ की लंबी लिस्ट है। यही नहीं माओवादियों के साथ लड़ाई में अबतक 500 से अधिक जवान शहीद हो चुके हैं।

देश के कई राज्य माओवादी उग्रवाद की समस्या से जूझ रहे हैं। इन राज्यों में से झारखंड, छत्तीसगढ़, ओड़िशा बुरी तरह इस समस्या से परेशान है। माओवादियों को प्राप्त बड़े पैमाने पर आर्थिक स्रोतों का पता लगाने के लिए न्यायमूर्ति एमबी शाह के नेतृत्व में एक आयोग का गठन किया गया था। न्यायमूर्ति शाह आयोग ने साफ तौर पर माना कि इन राज्यों में गैर कानूनी तरीके से खनिजों के उत्खनन से मिलने वाले रकम का एक बड़ा हिस्सा माओवादियों को प्राप्त होता है। इसके साथ ही माओवादी तेदू के पत्ते और नासपाती के बागानों से भी बड़े पैमाने पर लेवी वसूलते हैं।

यही नहीं माओवादी मझोले और छोटे व्यापारियों एवं नौकरी पेशे वालों से भी बड़े पैमाने पर लेवी वसूलते हैं। इन्हीं पैसे से माओवादी अपनी गतिविधियों को अंजाम देते हैं। इसपर रोक के लिए राष्ट्रीय जांच अभिकरण कई व्यापारियों के खिलाफ मामला भी दर्ज कर रखा है बावजूद इसके माओवादियों को अभी भी बड़े पैमाने पर फंडिंग की बात सामने आयी है। इसपर रोक लगा पाने में न तो रघुबर सरकार सफल हो पायी और न ही हेमंत सरकार को सफलता मिल पा रही है।

माओवादी समस्या का आगे क्या होगा कहना कठिन है लेकिन फिलहाल माओवादी समस्या पर हेमंत सरकार का नरम रवैया राज्य की जनता पर भारी पड़ने लगा है। इस समस्या को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। यदि अभी इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो यह राज्य की शांति और विकास में बाधक साबित होगा।

 

 



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