वाजपेयी की आलोचना नहीं संघ से तकरार बलराज मधोक पर पड़ा था भारी


प्रो.बलराज मधोक जनसंघ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दखल से खफा थे। वे जनसंघ को स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी मानते थे न कि संघ का पिछलग्गू संगठन। विवाद का असली कारण यही था।1968 में जनसंघ अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय की मुग़लसराय में हुई रहस्यमय हत्या के बाद जब भारतीय जनसंघ ने उनकी जगह अटल बिहारी वाजपेयी को अपना अध्यक्ष चुना और बलराज मधोक का राजनीतिक हाशिए पर जाने का सिलसिला शुरू हो गया।



प्रदीप सिंह

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ (अब बीजेपी) के बारे में यह कहा जाता है कि जो नेता या कार्यकर्ता संघ-बीजेपी से बाहर होता है, उसके सामने अपनी राजनीतिक अस्तित्व बचाने का संकट खड़ा हो जाता है। संघ-बीजेपी से बाहर होने के बाद आमतौर पर यह देखा गया है कि कई नेता राजनीतिक बियाबान में खो गएं। लेकिन इसके अपवाद भी हैं। बीजेपी में एक और कहावत बहुत मशहूर है कि अटल बिहारी वाजपेयी से जो टकराया फिर उसका बीजेपी में रहना नामुमकिन हो गया। इसके लिए प्रो.बलराज मधोक, डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी, केएन गोविंदाचार्य और कल्याण सिंह का उदाहरण दिया जाता है। 

यह बात सही है कि सुब्रह्मण्यम स्वामी, गोविंदाचार्य और कल्याण सिंह को अटल बिहारी वाजपेयी से दुश्मनी महंगी पड़ी। लेकिन प्रो. बलराज मधोक के बारे में यह सही नहीं है। यदि सही होता तो आज उनके दिवंगत होने के चार साल बाद भारतीय मीडिया में उनकी चर्चा न होती। प्रो. बलराज मधोक के जनसंघ से निकाले जाने के बारे में यह कहा जाता है कि वाजपेयी के निजी जीवन की आलोचना करना उन्हें भारी पड़ा। लेकिन यह पूरा सच नहीं तस्वीर का एक पहलू है। सच तो यह है कि मधोक को अटल बिहारी वाजपेयी नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विरोध भारी पड़ा था। मधोक को संघ अधिकारियों के निर्देशों की अवहेलना का खामियाजा भुगतना पड़ा। 

बलराज मधोक एक परिचय 

प्रो.बलराज मधोक जनसंघ के चंद संस्थापकों में से एक थे। यही नहीं 1967 में बलराज मधोक के अध्यक्षकाल में ही भारतीय जनसंघ ने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करते हुए लोकसभा में 35 सीटें जीती थीं। और पंजाब में जनसंघ की संयुक्त सरकार बनी थी और उत्तर प्रदेश और राजस्थान सहित आठ प्रमुख राज्यों में जनसंघ मुख्य विपक्षी दल बनने में कामयाब हुआ था। उनका जन्म 25 फरवरी 1920 को गिलगित-बाल्टिस्तान के स्कार्दू में हुआ था। छात्र-जीवन में ही 18 वर्ष की उम्र में संघ के स्वयंसेवक बनने वाले मधोक की उच्च शिक्षा लाहौर में हुई। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक, जम्मू-कश्मीर प्रजा परिषद के संस्थापक और मन्त्री,अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संस्थापक, भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य और अध्यक्ष थे। साठ के दशक में वे देश के जाने-माने राजनेता थे। दिल्ली से वे दो बार लोकसभा का चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे।

बीजेपी आज जिन चंद मुद्दों पर राजनीति कर रही है,उसको वैचारिक आधार प्रदान करने वाले मधोक ही थे। मधोक 1947 से ही जम्मू-कश्मीर को तीन भांगों में बांटने की वकालत करते रहे। वे भारत विभाजन के विरोधी थे। और गौहत्या के खिलाफ देश भर में आंदोलन कर चुके थे। इसके साथ ही वह 1968 में ही बाबरी मस्जिद को हिंदुओं के हवाले करने की मांग कर चुके थे। दक्षिणपंथी विचारकों में मधोक का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। तीस से अधिक पुस्तकें लिखने वाले मधोक इतिहास के प्रोफेसर थे।

जनसंघ और संघ से दूरी की वजह

बलराज मधोक जनसंघ के संस्थापक सदस्य होने के साथ ही पार्टी के फायरब्रांड नेता थे। वे नेहरू के प्रबल विरोधी थे। उनकी छवि आक्रामक राष्ट्रवादी की थी। पार्टी में अटल बिहारी वाजपेयी उनके जूनियर थे तो लालकृष्ण आडवाणी को वे पार्टी में लाए थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ उन्होंने जनसंघ की स्थापना की थी। मुखर्जी के निधन के बाद उन्होंने पूरी पार्टी को संभाला और एक वैचारिक दिशा दिया। लेकिन संघ के कुछ नेताओं के साथ उनकी नहीं बनती थी। मधोक जनसंघ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दखल नहीं चाहते थे। वे जनसंघ को स्वतंत्र राजनीतिक पार्टी बनाना चाहते थे न कि संघ का पिछलग्गू संगठन। विवाद का असली कारण यही था। 1968 में जनसंघ अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय की मुग़लसराय में हुई रहस्यमय हत्या के बाद जब भारतीय जनसंघ ने उनकी जगह अटल बिहारी वाजपेयी को अपना अध्यक्ष चुना और बलराज मधोक का राजनीतिक हाशिए पर जाने का सिलसिला शुरू हो गया।   

बलराज मधोक दिल्ली में आरएसएस की शाखाएं खड़ी करने और भारतीय जनसंघ को एक राजनीतिक शक्ति बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन जब वरिष्ठ पद देने की बात आई तो पार्टी ने उनके बजाए वाजपेयी को चुनना पसंद किया। तर्क दिया गया कि वाजपेयी को इसलिए चुना गया, क्योंकि वो हिंदी में प्रभावशाली भाषण दे सकते थे। लेकिन मधोक अंग्रेजी में बहुत ही प्रभावशाली भाषण देते थे। मधोक संघ,नानाजी देशमुख और अटल बिहारी वाजपेयी की खुलेआम आलोचना करते थे। वे सर संघचालक एमएस गोलवलकर से वाजपेयी के चरित्र संबंधी शिकायत भी कर चुके थे। लेकिन संघ ने उनकी बात का बहुत तवज्जो नहीं दिया और वाजपेयी को ही आगे बढ़ाता रहा। 1973 आते-आते संघ मधोक से छुटकारा पाने का तरीका ढूढ़ने लगा।

1973 में कानपुर में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी

फरवरी, 1973 में कानपुर में जनसंघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सामने एक नोट पेश किया। उस नोट में मधोक ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार की आर्थिक नीति और बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर जनसंघ की राजनीतिक विचारधारा सहमत नहीं थे। इसके अलावा मधोक का कहा था कि जनसंघ पर आरएसएस का असर बढ़ता जा रहा है। मधोक ने संगठन मंत्रियों को हटाकर जनसंघ की कार्यप्रणाली को ज्यादा लोकतांत्रिक बनाने की मांग भी उठाई थी। लालकृष्ण आडवाणी उस समय जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। वे मधोक की इन बातों से इतने नाराज हो गए कि मधोक को पार्टी का अनुशासन तोड़ने और पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने की वजह से उन्हें तीन साल के लिये पार्टी से बाहर कर दिया गया। इस घटना से बलराज मधोक इतने आहत हुए थे कि फिर कभी नहीं लौटे। 

दरअसल, ये सब आडवाणी ने नहीं बल्कि संघ के इशारे पर किया गया था। राष्ट्रीय कार्यकारिणी के पहले ही मधोक को जनसंघ से निकालने की पटकथा लिखी जा चुकी थी। मधोक ने कांग्रेस सरकार की आर्थिक नीति और बैंकों के राष्ट्रीयकरण पर जनसंघ की विचारधारा के उलट बातें कह कर मौका दे दिया। 

मधोक जनसंघ के जनता पार्टी में विलय के खिलाफ थे। 1979 में उन्होंने ‘अखिल भारतीय जनसंघ’ को जनता पार्टी से अलग कर लिया। उन्होंने अपनी पार्टी को बढ़ाने की हर संभव कोशिश की, लेकिन सफलता हासिल नहीं हुई। 2 मई 2016 को 96 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई।
(लेखक दैनिक भास्कर के एसोसिएट एडिटर हैं।)