पंजाब के नवांशहर का खटकड़कला भगत सिंह का गांव है। आधुनिक परिभाषा में यह गांव पूरी तरह सुख-सुविधओं से परिपूर्ण है। कहने को तो यह गांव देश के कई शहरों को भी संपन्नता में मात दे सकता है पर यहां शहीद-ए-आजम की शानदार राजनीतिक विरासत को अपनाने वाला कोई नहीं दिखता है। गांव में सब कुछ है। हरे-भरे खेत, पक्की सड़कें, आलीशान इमारते जो अप्रवासी ग्रामीणीं के पैसों से बनी है। अगर नहीं है तो उनकी विचारधारा और उसको अपनाने वाले लोग। अपने जीवनकाल भगत सिंह युवाओं के बीच काफी लोकप्रिय रहे, शहादत के बाद भी उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आई। लेकिन आजादी के बाद भगत सिंह के विचारों के साथ ही उनके योगदान को भुलाने का षडयंत्र होता रहा है।
गांव के ज्यादातर परिवारों का कोई न कोई सदस्य विदेशों में रहता है। गांव में कच्चे मकान नहीं दिखाई देते। भव्य इमारतों ने बेशक भगत सिंह के घर को ढक लिया है। पर अपने इस महान पूर्वज के याद में ग्रामीणों की तरफ से कुछ भी नहीं बना है। गांव के कुछ पहले ही एक प्रवेश द्वार है जो शहीद-ए-आजम भगत सिंह द्वार कहलाता है। जैसा कि पंजाब के अन्य गांवों में भी प्रवेश द्वार है। इसको पंजाब सरकार ने बनवाया है। मुख्यद्वार के पास ही पंजाब सरकार ने स्मारक बनवाया है। मुख्यद्वार की मुख्य सड़क रेलवे लाइन पार करके भगत सिंह के घर के बगल से निकल जाती है। चार कमरे का यह मकान पीले रंग से पुता है। घर के पास एक पुस्तकालय है यह पिछली सरकार ने चुनाव के समय बनवा दिया था। बाहर पंजाब सरकार के सांस्कृतिक और पुरातत्व विभाग की नोटिस चस्पा है।
भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को लायलपुर जिले के बंगा, चकनंबर 105 (अब पाकिस्तान) में हुआ था। 23 मार्च 1931 को इन्हें लाहौर में फांसी दी गई। यह अजीब संयोग है कि आजादी के बाद उनका जन्म स्थान और शहादत स्थल पाकिस्तान के खाते में चला गया। इनका जन्म बेशक वर्तमान पाकिस्तान के लायलपुर जिले में हुआ लेकिन पंजाब के नवांशहर के खटकड़कलां में भगत सिंह का पुश्तैनी गांव है। भगत सिंह का जन्म तो यहां नहीं हुआ था। पर एक पुश्तैनी घर को छोड़कर कुछ भी भगत सिंह से जुड़ी हुई नहीं दिखती है।
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के प्रयास से घर के बाहर एक पार्क बनाया गया है। उसके पहले गांव भर का कचरा और गंदा पानी वहां जमा होता था। वैसे गांव और आस-पास की महिलाएं भगत सिंह की प्रतिमा पर मत्था टेकती है। दीवाली के दिन प्रतिमा पर दीप भी जलाये जाते है। भगत सिंह को याद करने के सवाल पर स्मारक की सुरक्षा व्यवस्था में तैनात रंजीत सिंह कहते है कि ऐसा नहीं है कि हम लोग भगत सिंह को याद नहीं करते है। भगत सिंह को क्यों याद करते हो ? पर तपाक से उत्तर देते है कि आज जब लोग सिर्फ अपने लिए ही सोचते है तब हमारे यहां का एक नौजवान ने पूरे देश के बारे में सोचा और फांसी पर चढ़ गया।
युवा पीढ़ी के दिलों में भगत सिंह आज भी धड़कते है। तभी तो बगल के कस्बे गुनाचैर के सरकारी हाई स्कूल के दसवीं में पढ़ने वाले बीरेंदर सिंह और रोहित कुमार भगत सिंह जैसा बनाना चाहते है। इस उम्र में शायद उन नौजवानों को पता नहीं है कि भगत सिंह बनने पर सरकार से कितना दमन और समाज से कितना अपमान मिलता है। छात्र बलजीत कुमार, बुद्धदेव और दीपक कहते है कि भगत सिंह ने लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया था। फिलहाल इससे ज्यादा भगतसिंह के बारे में सरकारी और गैर सरकारी स्कूलों में कुछ नहीं पढ़ाया जाता है। भगत सिंह पार्क में माली का काम करने वाले चूर सिंह कहते है कि जलियांवाला बाग में हजारों किसानों की हत्या हुई। भगत सिंह ने बदला लिया और फांसी पर चढ़ गए। उसके बाद गांव के ही कुछ लोग भगत सिंह के परिवार के खिलाफ पुलिस को भड़काने लगे। जिससे पूरा परिवार गांव छोड़कर यूपी के सहारनपुर में बस गया। अब भगत सिंह के यादों को छोड़ कर गांव में कुछ नहीं है। चूर सिंह रामदासी सिख है। कहते है कि आज भी जमीन सिर्फ जाटों के पास है।
भगत सिंह का सपना और उस दौर के सवाल आज भी उनके गांव में मौजूद है। कमोवेश यही हाल सारे हिंदुस्तान और पाकिस्तान का है। भगत सिंह के जन्म के 113 वर्ष और भारत की आजादी के 73 साल हो चुके हैं। इस दौरान पूरे देश में बदलाव की बयार बही। इस गांव में भी बदलाव है। गांव में हर जाति के लोग है। जाट सिख, सवर्ण हिंदू,दलित, खत्री और बनिया। रामदासी सिख आज भी पहले की तरह ही मेहनत मजदूरी कर रहे है। मजदूरी कुछ बढ़ गयी है। गांव में दो गुरुद्वारे हैं। एक सिंह सभा का दूसरा रविदास का जिसमें दलित सिख जाते है। वैसे किसी गुरुद्वारे में किसी के जाने की रोक नहीं है। लेकिन तकनीकी रुप में ही सही दलितों को आज भी दूसरा पूजा स्थल बनाना पड़ रहा है। जाट सिख उनके साथ असहज महसूस करते है। भगत सिंह आजीवन जाति पांत,सांप्रदायिकता और छुआ-छूत का विरोध करते रहे। अपने निजी जीवन में वे नास्तिक और समानता के पक्षधर थे।
पिछले कुछ दिनों से गांव में भगत सिंह के जन्म दिन 28 सितंबर और शहादत दिवस 23 मार्च को एक मेला लगता है। शहादत दिवस का मेला सरकारी होता है। सरकार के नुमाइ्रदे और मुख्यमंत्री तक इसमें शरीक होते है। मेले में हर राजनीतिक दलों के लोग अपने लाव-लश्कर के साथ आते है। मंच पर खड़े होकर वे अपने को भगत सिंह के विचारों का असली वारिश बताते है। फिलहाल इसमें शहीदों को श्रद्धांजलि कम राजनीति ज्यादा होती है। मंत्री और अधिकारी आते है। बच्चों के लिए सैर सपाटा से ज्यादा कुछ नहीं है।
क्रांतिकारी धारा के इस नायक ने पूंजीवाद बनाम समानता का जो बहस छेड़ा था, वह आज भी चल रही है। भगत सिंह के विचारों की प्रासंगिकता आज है। अकाली दल चुनाव के ऐन वक्त भले ही उनके विरासत का दावा करे पर वह सिर्फ रस्मी तौर पर ही भगत सिंह को देखती है। भगत सिंह के सपने और राजनीति पर न तो उनके गांव के सामंतो की सहमति है न देश के सरकार की। भगत सिंह का गांव भी पंजाब और भारत के आम गांवों जैसा ही है। भगत सिंह ने फांसी के फंदे पर झूलते हुए कहा था कि हमारी लड़ाई तब तक चलती रहेगी जब तक मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण होता रहेगा। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कुर्सी पर गोरे साहब बैठे हैं या भूरे अथवा जान की जगह गोबिंद आ गए है। उनकी आंखों में सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन का जो सपना था वह आज गायब दिखता है।