
समरेन्द्र सिंह
सरकार में बैठा शख्स जब यह दलील देता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों में ठीक कामकाज नहीं हो रहा है लिहाजा उनका निजीकरण जरूरी है तो दरअसल वह पाखंड रच रहा होता है। उसका मूल मकसद निजीकरण के पक्ष में झूठी दलील तैयार करना होता है। झूठी इसलिए क्योंकि तर्क की इसी कसौटी पर सरकार को कस दिया जाए तो फिर उसके बने रहने का कोई नैतिक आधार ही नहीं बचेगा।
अगर दक्षता का यही नियम सत्य है तो इसे हर उस क्षेत्र पर लागू करना चाहिए जो सरकारी है। प्रशासनिक व्यवस्था भी सरकारी है और हम सभी का यह अनुभव है कि ये सरकारी व्यवस्था दक्ष नहीं है तो फिर क्यों नहीं इसका भी निजीकरण कर दिया जाए? आईएएस और आईपीएस भर्ती की प्रक्रिया रद्द कर दी जाए और गवर्नेंस के समूचे तंत्र का निजीकरण कर दिया जाए? हमारी न्यायपालिका भी न्याय देने में नाकाम है। सिर्फ सभी हाईकोर्ट में लंबित मामलों को जोड़ दिया जाए तो उनकी संख्या करीब 44 लाख है। तो क्यों नहीं न्यायपालिका का भी निजीकरण कर दिया जाए?
मेरी यह बात आपको बेतुकी लग सकती है। आप कह सकते हैं कि सरकार, प्रशासन और न्यायपालिका का निजीकरण कैसे हो सकता है? इससे तो देश का औचित्य ही क्या रहेगा? लेकिन जब किसी देश को सिर्फ बाजार बना दिया जाए और नागरिक असुरक्षित श्रमिक और उपभोक्ता बन जाएं, तो फिर उस देश के होने का औचित्य ही क्या बचता है? जब कोई देश मुनाफा कमाने की होड़ में अपने नागरिकों को श्रमिक सुरक्षा के अधिकारों से वंचित कर दे, उनके लिए स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया नहीं करा सके, उनकी यातायात का बंदोबस्त नहीं कर सके, उनके बच्चों को शिक्षा मुहैया नहीं करा सके तो फिर उस देश का ही क्या औचित्य रह जाता है? किसी देश का मतलब बाजार और गुलाम तंत्र तो नहीं होता!
यह हमेशा ध्यान रखिएगा कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां देश की सुरक्षा की गारंटी होती हैं। उनको अच्छे तरीके से मैनेज करके आप निजी कंपनियों पर नकेल कस सकते हैं। उन्हें कार्टल बना कर ब्लैकमेल करने से रोक सकते हैं। बाजार को अपने नागरिकों के हक में मैनिपुलेट कर सकते हैं। नियंत्रित कर सकते हैं। लेकिन हमारे यहां के भ्रष्ट नेताओं और अफसरों की इच्छा सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को सही तरीके से चलाने की नहीं रही है। उसकी इच्छा निजी क्षेत्र के साथ सांठ-गांठ करके, सरकारी कंपनियों को औने-पौने दाम में बेच कर अनैतिक धन कमाने की रही है। और ये सारे भ्रष्ट मिल कर भ्रष्टाचार के लिए ऐसी दलीलें गढ़ते और प्रचारित करते हैं।
मुझे आज भी याद है कि बाल्को को वाजपेयी सरकार ने उसकी संपत्ति से बहुत ही कम दाम पर बेच दिया था। वाजपेयी सरकार के दौरान ही विनिवेश मंत्रालय बना था। अपने दौर का एक सामंती संपादक विनिवेश मंत्री बना था। ये और बात है कि वही संपादक इन दिनों लिबरल लोगों का चहेता बना हुआ है। वाजपेयी सरकार के दौरान ही सार्वजनिक क्षेत्र की तीन-तीन टेलीकॉम कंपनियों के होते हुए भी देश के टेलीकॉम मंत्री और प्रधानमंत्री ने एक निजी क्षेत्र की टेलीकॉम कंपनी का प्रोडक्ट लॉन्च किया था और उसका प्रसारण सरकारी चैनल पर किया गया था।
दरअसल यह भ्रष्ट तंत्र है। यहां एक से बढ़ कर एक भ्रष्ट नेता हैं। ये सबकुछ बेचने पर तुले हैं। लेकिन आप तो एक नागरिक हैं। आप उनकी दलीलों को कैसे स्वीकार कर सकते हैं? क्या आपको अपना और अपने बच्चों का भविष्य संकट में फंसता दिखाई नहीं दे रहा है? क्या अब भी आप खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो आप सच में बहुत महान हैं!
(समरेन्द्र सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)