नेपाल की नाराज़गी भारत की कूटनीति की विफलता है


भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से खासे नजदीक होने के बावजूद नेपाल ने भारत को खुली चुनौती दी है। नेपाल ने नया राजनीतिक नक्शा जारी कर दिया है। इस नक्शे में कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया है। जबकि भारत के नक्शे में ये भारत का हिस्सा है।



संजीव पांडेय

भारत-नेपाल द्विपक्षीय संबंध सबसे बुरे दौर में पहुंच गया है। भारत-नेपाल संबंधों की वर्तमान स्थिति की तुलना पाकिस्तान-अफगानिस्तान संबंधों से की जा सकती है। पाकिस्तान और अफगानिस्तान दोनों इस्लामिक देश हैं। दोनों मुल्कों की सीमाओं के दोनों तरफ पश्तून जनजाति की आबादी भी मौजूद है। लेकिन पिछले 70 सालों से पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संबंध बहुत खराब है। आज भारत-नेपाल संबंधों को इसी चश्मे से देखा जा सकता है। भारत हिंदू बहुल देश है। नेपाल भी हिंदू बहुल देश है। दोनों मुल्कों की सीमाओं के दोनों तरफ सांस्कृतिक और जातीय तौर पर रिश्ते रखने वालों की आबादी बड़ी संख्या में है। भारत-नेपाल सीमा पर रहने वाली आबादी का सीमा पार रोटी-बेटी का रिश्ता है। नेपाल में इन्हें मधेसी कहा जाता है। मधेसियों की रोटी-बेटी का रिश्ता बिहार और यूपी के सीमावर्ती जिलों में है। यही नहीं नेपाल के मधेश इलाके से अलग पहाड़ की राजनीति को ब्राहमण और क्षत्रिय नियंत्रित करते है। इसके बावजूद हालात बदल गए है। 

भौगोलिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से खासे नजदीक होने के बावजूद नेपाल ने भारत को खुली चुनौती दी है। नेपाल ने नया राजनीतिक नक्शा जारी कर दिया है। इस नक्शे में कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा को नेपाल का हिस्सा दिखाया गया है। जबकि भारत के नक्शे में ये भारत का हिस्सा है। हालांकि नेपाल इस इलाके पर लंबे समय से दावा जताता रहा है। नेपाल वैसे तो पहले भी कई बार इस मामले को दबी जुबान में उठाता रहा है। लेकिन इस बार नेपाल का रवैया क़ड़क है, सख्त है। नेपाल के इस कदम के बाद आशंका यह है कि भारत के खिलाफ भारत के पड़ोस में चीन-पाकिस्तान-नेपाल का त्रिकोण बन सकता है।

नया राजनीतिक मानचित्र जारी करने की घटना को एकाएक घटित नहीं माना जा सकता है। इस घटना के पीछे सोची समझी रणनीति है। यह सच्चाई है कि नेपाल में इस समय भारतीय दूतावास का महत्व काफी घट गया है। भारतीय दूतावास की जगह अब चीनी दूतावास ने ले ली है। अभी जब नेपाल में केपी शर्मा ओली का विरोध प्रचंड समेत कुछ औऱ नेपाली नेताओं ने किया तो उनके बीच आपसी समझौता करवाने में चीनी दूतावास की अहम भूमिका रही। जबकि किसी जमाने में भारतीय दूतावास नेपाली नेताओं के आपसी विवाद को समझाने में अहम भूमिका निभाता था। नेपाल की राजनीति में कौन प्रभावशाली होगा, किसका महत्व घटेगा यह भारतीय दूतावास तय करता था। लेकिन समय बदला है। नई सदी में चीन ने हिमालय पार के इलाके में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना तय किया था। 

बीते दशक से ही नेपाल के अंदर चीनी घुसपैठ की योजना पर अमल शुरू हो गया था। नेपाल के अंदर चीन का आर्थिक निवेश खासा बढ़ गया है। आज नेपाल में चीन रेल लाइन से लेकर एयरपोर्ट विकास की योजना को कार्यरूप दे रहा है। चीन ने नेपाल को बेल्ट एंड रोड पहल में शामिल कर लिया। नेपाल में कई प्रोजेक्टों को शुरू करने पर सहमति बन गई। चीन नेपाल में बिजली प्लांटों का निर्माण कार्य कर रहा है। नेपाल को चीन ने यह अहसास करा दिया है कि नेपाल के आर्थिक विकास के लिए अब चीन का सहयोग जरूरी है। नेपाल के स्कूलों में चीनी भाषा मंदारिन की पढ़ाई शुरू हो गई है। इसमें रखे गए स्कूली शिक्षकों का खर्च चीन उठा रहा है। चीन नेपाल को यह समझाने में कामयाब हो गया है कि मंदारिन सीखने के बाद नेपाली युवकों को रोजगार के अच्छे अवसर मिलेंगे। गौरतलब है कि अबतक नेपाल की बड़ी आबादी रोजगार से व्यापार तक के लिए भारत पर निर्भर रही है। उधर एक तरफ चीन नेपाल में आर्थिक और राजनीतिक घुसपैठ की योजना को कार्यरूप दे रहा है, इधर भारत ने 2015 में नेपाल की नाकेबंदी कर नेपाल की बड़ी आबादी को भारत के खिलाफ कर दिया।   

जिस वक्त नेपाल ने नया राजनीतिक मानचित्र जारी कर भारत को चुनौती दी है, लगभग उसी वक्त मे चीन भारतीय सीमा पर कई जगह शरारत कर रहा है। लद्दाख सेक्टर में चीनी सैनिकों और भारतीय सैनिकों के बीच झड़प हुई है। हिमाचल प्रदेश में चीनी हेलिकाप्टर की घुसपैठ की खबर आयी है। सिक्किम में भी चीनी सैनिकों ने घुसपैठ की कोशिश की। वहीं भारत के आपत्तियों को नजरअंदाज करते हुए चीन और पाकिस्तान के बीच गिलगित बलतिस्तान में बिजली प्लांट लगाने पर सहमति बन गई है। गिलगित-बलतिस्तान में डायमर भाषा डैम का निर्माण चाइना पावर और पाकिस्तान सेना की कंपनी मिलकर करेगी। ये सारी घटनाएं लगभग एक पखवाड़े में ही घटी है। मतलब नेपाल ने भारतीय इलाके को अपने राजनीतिक मानचित्र में शामिल कर जो नया विवाद ख़ड़ा किया है, उसके पीछे चीन का दिमाग है। 

भारत को गंभीरता से विचार करना होगा। क्योंकि नेपाल के साथ सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से सदियों पुराना संबंध है। लेकिन आज नेपाल चीन के साथ है। पुरानी संधियों और दस्तावेजों के आधार पर नेपाल भारत को चुनौती दे रहा है। नेपाल ने जो नया राजनीतिक नक्शा जारी किया है उसके पक्ष में ऐतिहासिक दस्तावेज भी लोगों के सामने रखने की कोशिश कर रहा है। इस तरह के कदम नेपाल ने पहले कभी नहीं उठाए थे। नेपाल 1816 की सुगौली की संधि, 1857 का मानचित्र, 1860 की संधि, 1875 का मानचित्र, स्थानीय लोगों की भू-राजस्व संबंधी रसीदों, 1958 के चुनाव की मतदाता सूची का हवाला दे रहा है। कहीं न कही भारतीय कूटनीति के लिए यह गंभीर चुनौती है। भारतीय कूटनीति को यह विचार करना चाहिए कि आखिर भूल कहां हुई? हालांकि नेपाल के नए राजनीतिक मानचित्र में शामिल भारतीय इलाका नेपाल का हो जाएगा यह संभव नहीं है। लेकिन मनोवैज्ञानिक तौर पर भारत को गंभीर चुनौती नेपाल ने दी है। इससे निश्चित तौर चीन का दबदबा भारत के उतरी इलाके में बढ़ा है। इसका गलत संदेश भारत के दूसरे पड़ोसी मुल्कों के बीच गया है। आज नेपाल ने भारत को चुनौती दी है। कल को बांग्लादेश, भूटान, म्यामांर, श्रीलंका खुलकर भारत को चुनौती देंगे।

नेपाल में भारतीय डिप्लोमेसी फेल होने के कई कारण है। भारतीय डिप्लोमेसी पूरी तरह से विदेश मंत्रालय, नेपाल में स्थित भारतीय दूतावास केंद्रित है। जबकि फॉरन डिप्लोमेसी में अपने मुल्क के विरोधी दलों को भी साथ लेना चाहिए। बेशक राजनीतिक विरोध घरेलू मोर्चे पर हो। विरोधी दलों के पड़ोस के देशों में मौजूद राजनीतिक दलों और नेताओं से अच्छे संबंधों का इस्तेमाल भारत सरकार को करना चाहिए। केंद्र सरकार को यह पता है कि नेपाल के राजनीतिक दलों का एक बड़ा गुट भारत के राजनीतिक दलों के करीब रहा है। क्योंकि भारतीय राजनीतिक दलों ने नेपाल में राजशाही के खिलाफ चलाए गए आंदोलन में नेपाली दलों को खासी मदद की थी। नेपाल में राजशाही के खिलाफ चले लोकतांत्रिक आंदोलन को इंडियन नेशनल कांग्रेस से लेकर भारत के तमाम राजनीतिक दलों का समर्थन था। इसमें कम्युनिस्ट से लेकर चंद्रशेखर जैसे नेता शामिल थे। दिलचस्प बात यह है कि नेपाल के लोकतांत्रिक पार्टियों का एक बड़ा धड़ा जो कभी भारत के साथ था, अब चीन के साथ है। जिन्होंने लोकतांत्रिक आंदोलन के दौरान भारत का समर्थन लिया, वे अब चीन के साथ है। भारत सरकार समझदार होती तो नेपाल की कम्युनिस्ट गुटों से संबंध को ठीक करने के लिए भारत के कम्युनिस्ट पार्टियों का सहयोग लेती। लेकिन सरकार ने यह भी नहीं किया।

कोविड-19 एक बेहतरीन मौका था। भारत कोविड-19 की आपदा के दौर में पड़ोसी मुल्कों में अपना प्रभाव बढ़ा सकता था। लेकिन भारत मौका चूक गया। जबकि चीन ने कोविड-19 के मौके का पूरा लाभ उठाया है। चीन ने एशिया के गरीब मुल्कों में कोविड-19 से मुकाबले के लिए हेल्थ डिप्लोमेसी को तेज कर दिया है। चीन की हेल्थ डिप्लोमेसी भारत के पड़ोसी पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश से लेकर पश्चिम एशिया के इस्लामिक मुल्कों तक पहुंच गई है। जबकि भारत ने कोविड-19 को लेकर सार्क देशों के साथ एक वीडियो कांफ्रेंसिंग कर अपनी हेल्थ डिप्लोमेसी की जिम्मेवारी निभा दी। सच्चाई तो यही है कि नेपाल समेत भारत के दूसरे पड़ोसियों को यह समझ में आ गया है कि भविष्य मे चीन ही एशियाई देशों को मदद कर सकता है। कोविड-19 के दौरान भारत में लॉकडाउन के बाद जिस तरह से लाखों मजदूर सड़कों पर भटकते दिखे है, इससे भारत की अंतराष्ट्रीय छवि काफी खराब हुई है। नेपाल जैसे देशों को यह महसूस होने लगा है कि भारत जब खुद ही कोविड-19 के दुष्प्रभावों से लड़ने में सक्षम नहीं है, तो पड़ोसियों की क्या मदद करेगा? भारत नेपाल जेसे देशों को क्या मदद देगा? नेपाली प्रधानमत्री केपी शर्मा ओली का ब्यान कि भारतीय कोरोना वायरस चीन के कोरोना वायरस से ज्यादा खतरनाक है, इंडियन डिप्लोमेसी के लिए अच्छा संदेश नहीं है।

(संजीव पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं और चंडीगढ़ में रहते हैं।)