डॉ. अवधेश कुमार पाण्डेय
ख़ानजादा मिर्जा खान अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना (7 दिसंबर 1556 – 1 अक्टूबर 1627) के व्यक्तित्व के कई पक्ष हैं। हिंदी साहित्य में रहीम के नाम से प्रसिद्ध अब्दुर्रहीम ख़ान-ए-ख़ाना मुगल सेनापति और अकबर के संरक्षक बैरम खां के पुत्र थे। वे कलम और तलवार दोनों के धनी थे। उन्होंने बादशाह अकबर और जहांगीर दोनों का दौर देखा था। रहीम के दोहे आज भी लोगों की जुबां पर हैं। उनके काव्य में नीति, भक्ति और श्रृंगार का अद्भुत समन्वय मिलता है।
रहीम को संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, तुर्की और हिंदवी का ज्ञान था। उन्होंने युद्ध की तकनीकों में भी कुशलता हासिल की और कुशल सेनापति बने। सेनापति के रूप में इन्होंने गुजरात, कुम्भलनेर, उदयपुर आदि युद्धों में भाग लिया। अकबर के समय में इन्हें मुस्तकिल मीर अर्ज का पद मिला। यह पद बादशाह और जनता के बीच की कड़ी होता था। इसलिए राज दरबार के तामझाम के साथ-साथ रहीम आम जनता की नब्ज़ भी ठीक से पहचानने लगे।
रहीम मुगल काल के पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने अपनी बेगम के लिए मकबरा बनवाया। प्रेम का प्रतीक माना जाने वाला ताजमहल वर्ष 1653 में बनकर तैयार हुआ लेकिन उसके 55 साल पहले ही 1598 ई. में रहीम के प्यार की यह सौगात मिशाल बन चुकी थी। इसे मुगल काल में किसी महिला की याद में बनी पहली ईमारत का गौरव हासिल है। रहीम ने निजामुद्दीन के पूर्वी भाग में हुमायूं के मकबरे से कुछ ही दूरी पर अपनी बेगम माह बानू के लिए मकबरा बनवाया था। रहीम की मृत्यु सन् 1627 में लाहौर में हुई लेकिन उन्हें भी इसी मकबरे में दफनाया गया। कहा जाता है कि बड़े-बड़े छतनार वट वृक्षों के नीचे पौधों की छोटी-छोटी नस्लें नहीं पनपती। ताजमहल की संगमरमरी चमक ने इस मकबरे के कद को दबा दिया। रहीम कोई बादशाह नहीं थे लेकिन उनकी यह पहल उनकी भावना को समझने के लिए काफी है।
यह मकबरा प्रारम्भिक मुगल वास्तुकला का बेजोड़ नगीना है। यह एक कृत्रिम बाग के बीचो-बीच ऊंचे चबूतरे पर लाल बलुआ पत्थर से बना है। इसकी बनावट हुमायूं के मकबरे से मिलती-जुलती है। यह एक द्विमंजिला मकबरा है जिसके बुर्ज पर संगमरमर का प्रयोग किया गया था। इस मकबरे के अंदर एक बड़ा और घनाकार पत्थर है जिसके नीचे रहीम और उनकी बेगम चिर निद्रा में लीन हैं।
माना जाता है कि इस मकबरे के कीमती पत्थरों और संगमरमर को वर्ष 1753 में अवध के नबाब और मुगल वजीर अब्दुल मंसूर सफदरजंग के मकबरे के निर्माण के लिए निकाल लिया गया था। तब से यह मकबरा उपेक्षा का शिकार बना हुआ है। आज रहीम जैसे शख्सियत के मकबरे पर गिने चुने लोग ही आते हैं। इस मकबरे को देखने का शुल्क वर्तमान में 25 रुपए है। मकबरे के टिकट काउंटर के कर्मचारी सुभाष ने बताया कि लगभग 10 से 15 लोग इसे देखने प्रतिदिन आते हैं। मकबरे की जर्जर हालत को दुरूस्त करने के लिए भारतीय पुरात्तव सर्वेक्षण विभाग द्वारा 1923, 1978 और 2003 में प्रयास किए जा चुके हैं। आज भी इसके संरक्षण का कार्य आगा खां ट्रस्ट, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग की मदद से कर रहा है।