
आज ही के दिन 21 मई 1991 को तमिलनाडु के श्रीपेरम्बदूर में एक चुनावी सभा में लिट्टे समर्थक आतंकवादियों ने मानव बम से पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी थी। देश को 21वीं सदी में ले जाने का सपना देखने वाले राजीव गांधी राजनीति में आने के इच्छुक नहीं थे। छोटे भाई संजय गांधी की असामयिक मृत्यु के बाद प्रधानमंत्री मां इंदिरा गांधी के दबाव में वे राजनीति में आए। अल्प समय ही में वे दुनिया से चले गए। लेकिन पांच वर्षों का उनका प्रधानमंत्रित्व काल भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने और देश को आधुनिक बनाने के रूप में याद किया जाता है। राजनीति और टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में उनके द्वारा किए गए सुधारों के सुखद परिणामों का लाभ आज पूरे देश को मिल रहा है। राजनीति में उनकी प्रभावी उपस्थिति, मजबूत नेतृत्व क्षमता के साथ ही उनका सुदर्शन व्यक्तित्व का भी देश-विदेश में एक आकर्षण रहा है। सुदर्शन के साथ-साथ उनका संकोची स्वभाव और हंसमुख चेहरा आज भी बरबश लोगों के जेहन में कौंध जाता है।
राजीव गांधी राजनीति में आने के पहले प्रोफेशनल पायलट थे। उनके तेज-तर्रार छोटे भाई संजय गांधी की विमान दुर्घटना में असामयिक निधन नहीं हुआ होता वे पायलट ही बने रहते। संजय गांधी की मौत के बाद इंदिरा गाधी की इच्छा का सम्मान करते हुए वे अनमने से राजनीति के मैदान में उतरे थे। पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बनाए गए औऱ अमेठी से लोकसभा उपचुनाव लड़े और विजयी हुए। अमेठी से चुनाव जीतने के बाद उन्होंने विरासत की राजनीति में विधिवत प्रवेश किया। लेकिन विरासत की इस राजनीति का 21 मई 1991 में बहुत दुखद अंत हुआ। राजनीति में रहते हुए राजीव गांधी ने अपने कार्य प्रणाली की स्पष्ट छाप छोड़ी। वे कई मायने में अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों से अलग थे। उनके द्वारा किए गए कार्यों को आज भी याद किया जाता है।
राजीव गांधी यह बार-बार दोहराते थे कि हम भारत को 21 वीं सदी में ले जाएंगे। वे देश में युवा नेतृत्व को उभारना चाहते थे। सरकारी कामों में भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहते थे और देश को जातिवादी एवं सांप्रदायिक राजनीति से मुक्त करके आधुनिक राष्ट्र बनाने का सपना देख रहे थे। 25 दिसंबर 1985 को मुंबई में हुए कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्होंने कहा था कि गांव के विकास के लिए दिल्ली से जो एक रुपये भेजा जाता है वह गांव पहुंचते-पहुंचते 15 पैसे ही रह जाता है। उनके उस भाषण से कांग्रेस में खलबली मच गई थी।
राजीव गांधी वास्तविक अर्थों में देश का आधुनिकीकरण करना चाहते थे। वे देश के राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जड़ता को तोड़ना चाहते थे। राजीव ने उस समय देश में कंप्यूटरीकरण की बात की थी। भाजपा के नेता उस समय कंप्यूटरीकरण का विरोध करते हुए राजीव की खिल्ली उड़ाते थे। और उन्हें कंप्यूटर बाबा कहना शुरू कर दिए थे। जैसे आज राहुल गांधी को पप्पू कहते हैं। विडंबना देखिए आज उस कंप्यूटरीकरण का सबसे ज्यादा राजनीतिक लाभ वही लोग ले रहे हैं जो उसका विरोध कर रहे थे। आज वे डिजिटल इंडिया की बात कर रहे हैं।
राजीव गांधी ने देश के लोकतंत्रीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वयस्क मताधिकार को 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष किया। पंचायती राज अधिनियम को लाकर ग्राम पंचायतों को सशक्त किया। राजीव गांधी बहुत बड़े एवं खुले मन के थे। वह लोकतंत्र को मजबूत करने में लगे रहे। यह अलग बात है कि लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में युवाओं को मताधिकार देना उन पर भारी पड़ा और 1989 में कांग्रेस आम चुनाव में हार गई।
कांग्रेस विभिन्न विचारधाराओं का संगम है। इसमें दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों विचारों के मानने वाले लोग शामिल हैं। उनके सलाहकारों ने उनको अंधेरे में ऱखकर शाहबानो, राम मंदिर का ताला खुलवाने जैसे कई ऐसे काम करवाए जिससे उनको राजनीतिक रूप से काफी नुकसान हुआ। उनके मंत्रिमंडल के जिस सहयोगी आरिफ मोहम्मद खान ने शाहबानो प्रकरण को लेकर इस्तीफा दिया था आज वे भाजपा में हैं।
बोफोर्स तोप सौदे में 60 करोड़ रुपये की तथाकथित रिश्वत मामले ने उनकी छवि को तोड़ कर रख दिया। उनके कैबिनेट के सहयोगी विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस से इस्तीफा देकर बोफोर्स मामले पर राजीव गांधी की घेरेबंदी शुरू की थी। वीपी सिंह चुनावी सभाओं में कहते थे कि सत्ता में आने के तीन महीने के अंदर बोफोर्स तोप में रिश्वत खाने वालों का नाम सामने ला देंगे। लेकिन आज तक उसका कुछ पता नहीं चला।
प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने खाड़ी युद्ध के समय जब अमेरिकी विमानों को तेल देना स्वीकार किया तो राजीव गांधी ने सरकार के इस कदम का विरोध किया था। वे इसे देश के स्वाभिमान के साथ समझौता मान रहे थे। देश की आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान को बचाकर ही वे कुछ करने को पैरोकार थे। निर्गुट आंदोलन को पुनर्जीवित करने का उन्होंने बहुत प्रयास किया। सार्क-दक्षेस की शुरुआत उन्होंने की। भारत और श्रीलंका के संबंधों को सुधारने की बड़ी कोशिश की और इसी में उनकों अपनी जान भी गंवानी पड़ी।
राजीव गांधी का सपना भारत को आधुनिक, गौरवपूर्ण और समृद्ध राष्ट्र बनाने का था। वे देश में लोकतंत्र को मजबूत करने, जनता को लोकतंत्र में भागीदार बनाने और सत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना चाहते थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने ‘जनता संवाद’ कार्यक्रम शुरू किया था। हर हफ्ते वे अपने आवास पर जनता से मिला करते थे। उस संवाद में कोई भी पहुंच कर अपनी समस्या को बता सकता था। समस्याओं को सुनने के बाद प्रधानमंत्री उसके समाधान के लिए निर्देश देते थे। आम जनता से मिलने और समस्याओं को सुनने के कारण देश की नब्ज पर उनकी पकड़ बन रही थी।
यह तो जगजाहिर है कि राजनीति में वे अनिच्छा से आए थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद वे राजनीतिक रूप से परिपक्व नहीं थे। लेकिन व्यक्ति के रूप में वे बहुत ही संवेदनशील थे। यदि वे आज जिंदा होते तो देश को एक संवेदनशील इंसान के साथ ही परिपक्व राजनेता भी मिलता। स्वार्थी तत्वों ने उनको गलत सलाह देकर गुमराह किया,जिसका खामियाजा उनको अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। यह कहा जा सकता है कि वे भारतीय राजनीति के अभिमन्यु थे, विरासत के कारण राजनीति के चक्रव्यूह में तो वे आसानी से घुस गए, लेकिन निकलने का हुनर सीखने के पहले ही बहेलियों के शिकार बन गए।
(लेखक दैनिक भास्कर के एसोसिएट एडिटर हैं।)