
जयंत सिंह तोमर
बुन्देलखण्ड के नायक महाराजा छत्रसाल का वह कौन सा गुण है जो आज के जनप्रतिनिधियों में बड़ी मुश्किल से ढूंढे मिलता है? हम कहेंगे कवि और गुणीजनों के प्रति उनका गहरा श्रद्धाभाव। वीर रस के कवि भूषण पहले छत्रसाल के दरबार में ही थे।
कविवर ने इच्छा जताई कि वे अब छत्रपति शिवाजी के पास जाकर रहना चाहते है। छत्रसाल ने बहुत भारी मन से उन्हें विदा किया। राजमहल से नगर के परकोटे तक भूषण की पालकी उन्होंने खुद कंधे पर ढोई। इतिहास में किसी सरस्वती पुत्र के सम्मान का इससे बड़ा प्रतीक दूसरा नहीं मिलता।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ एक बार राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के साथ किसी राजा के दरबार में गये थे। राजा जब तक आते तब तक आसपास कोई और आसन न देख निराला राजा के सिंहासन पर ही बैठ गये। मंत्री ने जब दूसरे आसन पर बैठने का अनुरोध किया तो निराला ने कहा- ‘मंत्रीजी कवि के रुप में हम भूषण के वंशज हैं जिनकी पालकी एक राजा ने ही ढोई थी। इसलिए आप परेशान न हों’।
महाराजा छत्रसाल ने विद्वानों के आदर का प्रतिमान स्थापित करके गुणीजनों का मान बढ़ाया। छत्रसाल के राज्य की सीमा के विषय में यह दोहा प्रचलित है- ‘इत यमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस छत्रसाल सो लड़न की पड़ी न काहू हौंस।’
लेकिन इतने बड़े राज्य में छत्रसाल ने अपनी छोटी सी राजधानी घने जंगलों में पहाड़ की तलहटी में पन्ना में बसाई। महामति प्राणनाथ को छत्रसाल ही अपनी राजधानी पन्ना में लेकर आये। साहित्य अकादमी में उप सचिव रहे विद्वान डॉ रणजीत साहा ने महामति प्राणनाथ और उनके साहित्यिक योगदान पर बड़ी आकर्षक एक पुस्तक लिखी है।
अलग अलग शैली के मंदिरों के कारण भी महाराजा छत्रसाल का नगर पन्ना बड़ा मनोहारी लगता है। एक छोटे से नगर में स्थापत्य की दृष्टि से मनोरम इतने देवालय और कहीं शायद ही हों। छत्रसाल एक बड़े योद्धा तो थे, लेकिन उनका विद्वानों के प्रति आदरभाव ही था जिसके कारण कवि भूषण अंत तक उन्हें याद करते हुए कहते रहे- ‘शिवा को सराहौं कि सराहौं छत्रसाल कौं।’
आज के हमारे कर्णधार छत्रसाल को उनकी जयंती पर उन्हें याद करते हुए उनसे कुछ सीखेंगे, या चुनाव जीतने तक सारी लिखा पढ़ी और बुद्धि का काम भर उनसे कराते रहेंगे?
( प्रो. जयंत सिंह तोमर ग्वालियर के आईटीएम यूनिवर्सिटी में पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष हैं।)