भारत आखिर ट्रंप के झूठे दावों का जोरदार विरोध क्यों नही करता?

सवाल यही है कि भारत आखिर ट्रंप के झूठे दावों का जोरदार विरोध क्यों नही करता? आखिर भारत की क्या मजबूरी है? दरअसल वर्तमान वैश्विक परिस्थितियां भारतीय डिप्लोमेसी को अमेरिकी दबाव में आने को मजबूर करती है। हालांकि इसके लिए जिम्मेवार पिछली सरकारें भी है। 1990 के दशक में भारत का झुकाव अमेरिका की तरफ खुलकर हो गया। इसके बाद भारत लगातार अमेरिका परस्त बनता गया।

संजीव पांडेय

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पहली बार नहीं, बल्कि दूसरी बार भारत सरकार की परेशानी बढ़ायी है। दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मूड को लेकर एक टिप्पणी से ट्रंप ने भारत सरकार की स्थिति खराब कर दी। ताजा मामला भारत और चीन के बीच सीमा विवाद को लेकर है। ट्रंप ने प्रेस कांफ्रेस में बोला कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से चीन सीमा पर तनाव को लेकर बात की थी, उनका मूड अच्छा नहीं था। ट्रंप के इस बयान से भारत सरकार परेशान हो गई। 

हालांकि भारत सरकार ने खुले तौर पर तो नहीं लेकर अंदरखाते इस बात से इंकार किया कि दोनों नेताओं के बीच हाल में कोई संपर्क ही नहीं हुआ है। दिलचस्प बात है कि इस तरह का झूठा क्लेम ट्रंप ने पहली बार नहीं किया है। इससे पहले पिछले साल जुलाई में ट्रंप ने दावा किया था कि मोदी ने उनसे जम्मू कश्मीर मामले में मध्यस्थता का आग्रह किया था। लेकिन ट्रंप के दावे का खंडन विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने आधिकारिक तौर पर किया था। हालांकि इस बार ट्रंप के दावे का खंडन आधिकारिक प्रवक्ता ने नहीं किया है।  

सवाल यही है कि भारत आखिर ट्रंप के झूठे दावों का जोरदार विरोध क्यों नही करता? आखिर भारत की क्या मजबूरी है? दरअसल वर्तमान वैश्विक परिस्थितियां भारतीय डिप्लोमेसी को अमेरिकी दबाव में आने को मजबूर करती है। हालांकि इसके लिए जिम्मेवार पिछली सरकारें भी है। क्योंकि पिछले चालीस सालों में भारत ने एक स्वतंत्र विदेश नीति बनाने की कोशिश ही नहीं की। 1990 के दशक में भारत का झुकाव अमेरिका की तरफ खुलकर हो गया। इसके बाद भारत लगातार अमेरिका परस्त बनता गया। 

सोवियत संघ का विघटन इसका एक बड़ा कारण था। हालांकि सोवियत संघ के विघटन के बाद भी भारत विश्व में अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना सकता था। क्योंकि भारत शुरू से ही अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश में था। भारत गुटनिरपेक्ष आंदोलन का मुख्य कर्ता-धर्ता भी रहा था। लेकिन भारत ने 1990 के दशक में अमेरिका के पीछे चलने की कूटनीति को अपनाया। भारत ने गुटनिरपेक्ष आंदोलन से दूरी बना ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भारत ने गुटनिरपेक्ष देशों के सम्मेलन में भाग तक नहीं लिया। लेकिन अभी हाल ही में प्रधानमंत्री को गुटनिरपेक्ष आदोंलन के महत्व का अहसास हुआ। उन्होंने वीडियो कांफ्रेंसिंग से सम्मेलन को संबोधित किया। 

लेकिन भारत की सबसे बड़ी भूल क्षेत्रीए सहयोग को मजबूत करने से पीछे हटना रहा। सार्क देशों का संगठन लगभग कमजोर हो रहा है। भारत ने पाकिस्तान को सबक सिखाने के डिप्लोमेसी में सार्क संगठन के महत्व को घटा दिया। इससे भारत के पुराने सहयोगी दूर होते गए। भारत ने इसकी जगह बिम्सटेक को मजबूत करने का फैसला लिया। लेकिन साउथ एशिया में भारत की सबसे बडी चुनौती चीन का आर्थिक विस्तार है। सार्क औऱ बिम्सटेक सदस्य देश चीन के प्रभाव से अब बाहर नही है। वैसे में भारत की मजबूरी है कि अमेरिका के पीछे चले।

डोनाल्ड ट्रंप अपने फिजूल, झूठे और फालतू बयानों के लिए अमेरिका के अंदर ही नहीं अमेरिका से बाहर भी काफी लोकप्रिय हैं। लेकिन ट्रंप को यह सोचना होगा कि भारत ने ट्रंप को उम्मीद से ज्यादा इज्जत दी है। ट्रंप शायद इतनी इज्जत के लायक नहीं जितना भारत ने उन्हें दे दी। हूस्टन से लेकर अहमदाबाद में उनकी इज्जत की गई। इतनी इज्जत तो भारत ने पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा, जार्ज बुश और बिल क्लिंटन को नहीं दी थी। लेकिन ट्रंप ने भारत को कई बार परेशानी में डाला। उनसे भारत को जो सहयोग की अपेक्षा थी वो नहीं मिली। एक तो ट्रंप अपने कार्यकाल के अंतिम वर्ष में भारत पहुंचे। उनका अहमदाबाद में शानदार स्वागत किया गया। उसके बावजूद उन्होंने चीन और भारत के बीच सीमा पर विवादास्पद ब्यान दे दिया।

कुछ और आर्थिक सच्चाइयां है। भारत को अब अमेरिका के पीछे चलना ही होगा। यही कारण है कि ट्रंप ने प्रधानमंत्री मोदी के मूड को लेकर फिजूल टिप्पणी की। लेकिन भारत को बरदाश्त करना पड़ा। क्योंकि ट्रंप अप्रत्याशित फैसले लेने में माहिर है। अगर वे नार्थ कोरिया के शासक से बातचीत कर सकते है तो किसी शासक के साथ बातचीत तोड़ भी सकते है। वैसे में भारत ट्रंप को नाराज नहीं करना चाहता। भारत नही चाहता कि ट्रंप नाराज होकर भारत को आर्थिक नुकसान पहुंचाने वाला कोई फैसला ले ले। भारत को बहुत उम्मीद है कि कोरोना संकट के दौरान चीन को छोड़ने वाली अमेरिकी कंपनियां भारत का रूख करेंगी। अमेरिका ने यह आश्वासन भी दिया है। हालांकि जमीन पर ये संभावना कब उतरेंगी यह समय बताएगा। क्योंकि अभी तक जिन कंपनियों ने चीन को छोड़ना तय किया है, उसमें से आधे ने वियतनाम की तरफ जाने का फैसला लिया है। कई कंपनियों की पसंद ताइवान है। कई कंपनियों की पसंद थाईलैंड है।

एक और कडवी आर्थिक सच्चाई है। डोनाल्ड ट्रंप ने अप्रत्याशित रुप से चीन से ट्रेड वार शुरू कर दिया था। इससे चीन के निर्यात को नुकसान होना शुरू हो गया था। दरअसल चीन और अमेरिका के बीच दिपक्षीय व्यापार संतुलन चीन के पक्ष में अभी तक है। अमेरिका इसी व्यापार संतुलन को अमेरिका के  पक्ष मे करना चाहता है। अमेरिका ने चीनी उत्पादों पर टैरिफ बढ़ा दिए। मजबूरी में चीन को अमेरिका से बातचीत करना पड़ा है। चीन अमेरिकी दबाव में अतिरिक्त अमेरिकी उत्पादों को आयात करने के लिए राजी हो गया। 

दरअसल भारत और अमेरिका के बीच दिपक्षीय व्यापार संतुलन 17 से 18 अरब डालर भारत के पक्ष में है। दोनों पक्ष के दिपक्षीय व्यापार बढ़ भी रहा है। 2018-19 भारत औऱ अमेरिकी के बीच दिपक्षीय व्यापार लगभग 88 अरब डालर का था। इन परिस्थितियों में अमेरिका अगर नाराज होगा तो भारत को नुकसान होगा। अमेरिका भारत के साथ चीन की तरह आर्थिक मोर्चे पर व्यवहार कर सकता है। इन परिस्थितियों में भारत चाहकर भी ट्रंप के झूठे ब्यानों का विरोध नहीं कर सकते है।

कोरोना आपदा ने भी भारत के हाथ बांध दिए है। आने वाले समय में भारत को वैक्सीन की जरूरत प़डेगी। इस मामले में भारत चीन पर भरोसा नहीं कर सकता है। हाल ही में चीन से मंगायी गई कोरोना जांच किटों पर तमाम सवाल  भारत  में उठे। वैसे में भारत की निर्भऱता भविष्य में अमेरिकी कंपनियों पर होंगी। कोरोना वैक्सीन को विकसित करने को लेकर अमेरिकी कंपनियां काफी काम कर रही है। भारत की बड़ी आबादी का कोरोना से प्रभावित होने की आशंका है। वैसे में भारत चाहकर भी नहीं अमेरिका का विरोध नहीं करेगा। क्योंकि भविष्य में भारत को अमेरिकी वैक्सीन की जरूरत पड़ सकती है।

(संजीव पांडेय वरिष्ठ पत्रकार हैं और चंडीगढ़ में रहते हैं।)

First Published on: May 31, 2020 9:45 AM
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