जिनके लिए यूपी में बिछा रेड कारपेट


संभव है कि सूबे के शीर्ष नेतृत्व को वाम षड़यंत्र  की जानकारी न हो। शायद इसलिए उन लोगों की मेहमान नवाजी लखनऊ के लोक कल्याण मार्ग में हुई।इसका संदेश ठीक नहीं गया। होना भी यही था क्योंकि जो  लोग 26 जनवरी को वहां थे, उनकी अलग छवि है। वह संघ विरोधी है। वे भाजपा के खिलाफ अभियान चलाने के लिए जाने जाते हैं। 



जो लोग दिल्ली में बैठकर संघ, भाजपा और नरेन्द्र मोदी  सरकार के खिलाफ अभियान चलाते हैं, उनके लिए यूपी में रेड कारपेट बिछाया जाता है। एकबारगी सुनने में यह अजीब लगेगा। मामला ही ऐसा है कि माथे पर बल पड़ेगा ही। वह इसलिए क्योंकि दोनों ही जगह भगवा परचम लहरा रहा है। फिर ऐसा कैसे हो सकता?  यह सवाल उठना स्वभाविक है। सवाल वे लोग उठा रहे हैं जो संघ-भाजपा से जुड़े हैं।

उनमें गजब की नाराजगी है। उसका असल कारण विचारधारा और उससे जुड़े लोगों की उपेक्षा है। कहा जा रहा रहा कि जिनका विचारधारा से कोई सरोकार नहीं है, उनको रेवडियां बांटी जा रही है। सरकारी खर्चे पर उनको सूबे का दर्शन कराया जा रहा है। ये वही लोग है तो संघ को साम्प्रदायिक बता करके कन्नी काटा करते थे। उनसे जुड़े लोगों से परहेज करते थे।

मगर आजकल सत्ता की मलाई काटने के लिए यूपी प्रवास कर रहे हैं। कोई डेढ़-दो साल से वह समूह, यहां के सियासी गलियारों में डेरा जमाए बैठा है।  कहने-सुनने के लिए तो इसके पास ब्राडिंग का जिम्मा है। हां, ये अलग बात है, उसके बजाए समूह के लोग खुद की इमेज बना रहे हैं।

संभव है कि सूबे के शीर्ष नेतृत्व को  वाम षड़यंत्र  की जानकारी न हो। शायद इसलिए  उन लोगों की मेहमान नवाजी लखनऊ के लोक कल्याण मार्ग में हुई। इसका संदेश ठीक नहीं गया। होना भी यही था क्योंकि जो  लोग 26 जनवरी को वहां थे, उनकी अलग छवि है। वह संघ विरोधी है। वे भाजपा के खिलाफ अभियान चलाने के लिए जाने जाते हैं। चलाया भी खूब है। तभी वे लोग उस क्लब की शान बन पाए जहां वाम का बोलबला है।

नहीं तो किसी दक्षिणीपंथी की क्या मजाल कि वहां पर बैठ पाए। अगर किसी दक्षिणीपंथी ने कोशिश भी की तो उसकी जमकर खिलाफत होती है। हालात यह रहे हैं कि उस क्लब में सदस्य होने के लिए खास विचारधारा का होना होता है। यह वही विचारधारा है जो पश्चिम बंगाल में अवशेष रूप में पाई जाती है। उसके लोगों का ही क्लब पर कब्जा है।

हालांकि वह क्लब, पत्रकारों का ठीहा कम मयखाना अधिक है। वहां पर एजेंडा सेट किया जाता है। वे लोग इन दिनों लखनऊ की गलियों में घूम रहे हैं। उनको बाकायदा न्यौता देकर बुलाया गया है। इसमें कोई हर्ज नहीं है। जो सूबे में हुआ, उसे तो सबको पता ही चलाना चाहिए। यह ठीक तरीका भी है कि विकासगाथा लोगों तक पहुंचाई जाए। लेकिन वह पहुंचाने के लिए चुनाव भी सही लोग का होना चाहिए।

शायद जो लोग चुनाव करने में लगे थे उन्हें 2017 की घटना मालूम नहीं। ठंड का महीना था। क्लब में चुनाव था। तब एक वरिष्ठ पत्रकार, जिनकी विश्वसनीयता देशभर में असंदिग्ध है, उनके लिए  इन लोगों ने मोर्चा खोल दिया था। कई दिनों क्लब में हुंकार भरते रहे। सोशल मीडिया और आन लाइन पोर्टल पर खूब लिखा गया।

हालांकि वह ज्यादा देर चल नहीं पाया क्योंकि उनसे इंदिरा जी भी परहेज करती थी तो ये क्लब वाले क्या ही करते, उन्हें तो मैदान से भागना ही था। वे भागे भी। ऐसे बहुत उदाहरण है, जब इन खास प्रजाति के लोगों ने वैचारिक आधार पर विरोध का झंडा बुलंद किया। संभवत इसी कारण उनके आवागमन से अवध के लोग हलकान है।

यह तो वहां चले रहे घटनाक्रम का बस एक नमूना भर है। पूरा किस्सा तो बड़ा है। उसमें मामला बस ब्राडिंग करने वालों तक सीमित नहीं है। उनमें तो वे नौकरशाह भी शामिल है जो कई दशकों से सबकी आंखों के तारे बने हैं। उनकी अपनी अलग कथा है और जो समर्पित रहे हैं, उनकी अपनी व्यथा है।



Related