क्या योगी सरकार से ब्राह्मण और दलित नाराज है? उपचुनाव के नतीजे तो ऐसा संकेत नहीं देते हैं। विधानसभा उप चुनाव में भाजपा ने छह सीटे जीती हैं। 37 फीसदी के आसपास उसको वोट मिले हैं। बसपा के खाते में बहुजन का बहुमत भी नहीं है। उसे महज 19 फीसदी वोट मिले हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो नाराजगी की बात सही नहीं लगती। यह कहा जा सकता है कि महज सात सीटों के परिणाम से ऐसा अनुमान लगाना ठीक नहीं होगा। बात एकदम दुरूस्त है। लेकिन जिन सात सीटों पर चुनाव हुआ है, अगर उनके भूगोल को देखा जाए तो कोई भी सच तक पहुंच सकता है।
वैसे भी किसी राजनीतिक दल और सरकार को मापने का आधार जनाधार ही होता है। उस हिसाब से देखे तो योगी सरकार को लेकर जिस तरह के असंतोष की चर्चा हो रही है, वह वोट में दिख नहीं रहा है। पहले बात दलित वोट की करते हैं। हाथरस की घटना के बाद, यह माना जाने लगा था कि दलित योगी सरकार से टूटेगा। लेकिन घाटमपुर और टुडंला के नतीजे तो कुछ और ही कहानी बयान कर रहे हैं। दोनों आरक्षित सीटे हैं।
घाटमपुर में तकरीबन एक लाख से ज्यादा दलित मतदाता है। संख्या के लिहाज से इनका मत ही इस सीट पर निर्णायक है। वही टुडंला में दलित मतदाता की संख्या 65000 के आसपास है। इनका रूख हार-जीत तय करता है। नतीजे बताते है कि दलितों का मोह योगी सरकार से भंग नहीं हुआ है। ऐसा कहने की वजह है। परिणाम से इतर यदि आरक्षित सीटों पर भाजपा को मिले मतों पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि मतदाताओं का एक बड़ा समूह भाजपा के साथ खड़ा है।
जैसे घाटमपुर में भाजपा को 39 फीसदी मत मिले है। यदि दलित समुदाय का वोट भाजपा के पक्ष में नहीं होता तो न तो भाजपा का मत प्रतिशत इतना होता और न ही यह सीट भाजपा के खाते में जाती। भाजपा का जीतना ही इस बात का संकेत है कि दलित समुदाय के वोट बैंक में भाजपा ने जो सेंधमारी की थी, वह कायम है।
अगर ऐसा नहीं होता तो दोनों आरक्षित सीटे भाजपा के पाले में नहीं जाती। लाख सोशल इंजनीयरिंग के बाद भी नाराजगी तो यह समुदाय जाहिर ही करता। इन सीटों पर जितना इनका संख्याबल है, उस हिसाब से नाराज होने पर भाजपा को ठौर नहीं मिलता। इसमें अगर ब्राह्मण को भी जोड़ दिया जाये तब तो भाजपा का सूपड़ा ही साफ हो जाता।
वह इसलिए क्योंकि इन आरक्षित सीटों पर ब्राह्मण की ठीक-ठाक संख्या है। दूसरी वजह ब्राह्मणों के अपने गुण-दोष है। इस समुदाय के लोग जिससे नाखुश होते हैं उसके खिलाफ माहौल बनाने लगते हैं। इसमें भारतीय समाज का जो तानाबाना है उससे इन्हें बड़ा सहयोग मिलता है। यही कारण है कि जितनी इनकी संख्या है उससे अधिक लोगों को प्रभावित करते हैं। इसीलिए सियासत में इनकी नाराजगी मायने रखती है।
अगर ये नाराज होते तो दिक्कत भाजपा को ही होती। इनके भी नाराजगी की चर्चा बहुत आम है। यदि वाकाई ऐसा जमीन पर होता तो आरक्षित सीटों के अलावा देवरिया की सीट जीतना भाजपा के लिए मुश्किल हो जाता। देवरिया ब्राह्मण बाहुल्य सीट है। विकास दुबे प्रकरण के बाद से यह कहा जाने लगा कि पंडित योगी सरकार से नाराज हो गया है। उसके बाद से ब्राह्मण के साथ होनी वाली घटनाओं को सरकार से जोड़कर देखा जाने लगा। उसे योगी आदित्यनाथ के जाति प्रेम के रूप मे बताया जाने लगा।
विपक्ष ने इसका प्रचार भी खूब किया। वह तो यहां तक कहने लगा कि योगी सरकार में ठाकुरों के अलावा हर बिरादरी नाराज है। लेकिन उपचुनाव के नतीजों ने सबको धराशाई कर दिया। हालांकि तब भी कोई इसे मानने को राजी नहीं है। हर किसी का अपना तर्क है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि नाराजगी तो लोगों में है। मगर वह उपचुनाव में इसलिए नहीं दिखी क्योंकि इससे सरकार नहीं बदल जाती। दूसरा किसी दूसरे दल को चुनने से विकास कार्य प्रभावित होता। इस वजह से नाराज होने के बाद जनता ने भाजपा को चुना।
हालांकि यह तर्क बहुत खोखला लगता है। वह इसलिए क्योंकि आम चुनाव के पहले तीन लोकसभा सीटों पर जो उपचुनाव हुआ था, उसमें जनता ने भाजपा को नकार दिया था। कायदे से उसे भाजपा को ही जीताना चाहिए था क्योंकि हराने से नुकसान तो आवाम का ही होता। केन्द्र और राज्य सरकार भाजपा की ही थी। इस वजह से दूसरे दल को चुनने का मतलब था क्षेत्र के विकास को बाधित करना। लेकिन जनता ने उसकी चिंता नहीं की। उसने भाजपा को बाहर का रास्ता दिखाया क्योंकि वह भाजपा से नाराज थी। मगर इस बार जिस तरह से उसने उपचुनाव में भाजपा को चुना है, उससे जाहिर है कि लोग योगी सरकार से नाराज नहीं है।