
गाजीपुर। आज करगिल युद्ध की 21 वीं बरसी है। दिल्ली के ‘वार मेमोरियल’ सहित देश के विभिन्न हिस्सों में शहीदों के नाम कार्यक्रम आयोजित कर वीर सपूतों को श्रद्धासुमन अर्पित किया जा रहा है। जब देश में सेना के शौर्य का सत्कार होता है तो यूपी के गाजीपुर जिला का जिक्र जरूर होता है। आजादी के पहले भी, और उसके बाद चाहे 1962, 1965, 1971, 1999 का युद्ध हो या अन्य सैनिक अभियान जिले के जाबाजों की वीरता स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है। कारगिल युद्ध में गाजीपुर के छह जवान शहीद हुये थे।
एशिया का सबसे बड़ा गांव गहमर जिसकी आबादी सवा लाख के करीब है वह गाजीपुर में है। इस गांव के हर घर से लोग सेना में हैं। गहमर के अधिकांश घरों की तीन पीढियां सेना से जुङी है। ऐसे ही पूरे गाजीपुर के हर गांव से सेना में नौकरी करने की ललक है।
कारगिल युद्ध के दौरान ‘ऑपरेशन विजय’ को सफलतापूर्वक अंजाम देकर 26 जुलाई 1999 को युद्ध समाप्त करने की घोषणा कर दी गई। कारगिल में शहीद जवानों के साहस और शौर्य को पूरा देश कारगिल विजय दिवस के रूप में स्मरण कर नमन करता है।
मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर बिरनों ब्लाक के भैरोपुर गांव के रहने
वाले कैप्टन अजनाथ सिंह के चार बेटों में दूसरे नंबर के कमलेश सिंह थे। वह
31 जुलाई 1985 को बनारस रिक्रूटिंग आफिस से ई.एम.ई में भर्ती हुए। उनका
विवाह 13 मई 1986 को रंजना सिंह से हुआ था।
कमलेश सिंह ने पिता की विरासत को आगे बढ़ाने का जज्बा लेकर सेना में भर्ती हुए। उनकी प्रारंभिक शिक्षा सेंट्रल स्कूल जामनगर (गुजरात) मे हुई थी। उस समय उनके पिता सेना में सेवारत थे। मिडिल स्कूल अपने गांव के करीब बद्धपुर और हाई स्कूल शादियाबाद के नेहरू इंटर कालेज से प्राप्त की थी।
शहीद के पिता कैप्टन अजनाथ सिंह ने उनकी स्मृति को नम आंखों से याद करते
बताया कि वह अपने कार्य को लेकर बेहद कुशल और निपुण थे। उनकी अधिकतर ड्यूटी
वीआईपी के साथ होती थी। युद्ध से पहले उनकी पोस्टिंग 574 एफ आर आई में
भटिंडा में हो गयी। वहां से वह 7 जून को छुट्टी आने वाले थे लेकिन बीच में
‘ऑपरेशन विजय’ शुरू हो जाने की वजह से छुट्टी नहीं मिली। वह 5 गार्ड की
टुकड़ी के साथ कारगिल चले आये। वहां पर द्वितीय राज राइफल के साथ लड़ाई में
हिस्सा लिया।
15 जून 1999 को राज राइफल दुश्मनों पर मौत बनकर टूट पड़ी थी।
उसी समय बम का एक टुकड़ा शहीद कमलेश सिंह के शरीर से टकराया और उन्होंने
भारत माता के चरणों में अपने प्राण न्योछावर कर दिये। शहीद कमलेश के पिता का गला रुंध गया और उन्होंने बताया, उनका पार्थिव शरीर 19 जून 1999 को गाजीपुर मुख्यालय लाया गया और वहां से भैरोपुर गांव। पार्थिव शरीर की अंत्येष्टि गाजीपुर घाट पर पूरे सैनिक सम्मान के साथ हुआ।
शहीद के पिता कैप्टन अजनाथ ने बताया, जिस जगह उरी फ्रंट टाइगर हिल्स कारगिल में 1965 के भारत-पाक युद्ध में दुश्मनों के दांत खट्टे किये, उसी स्थान पर मेरे बेटे ने अपनी शहादत देकर जिले का नाम रोशन करते हुए अमर हो गये। उनकी वीरता का सम्मान यही नहीं रुका उनकी बहादुरी और अदम्य साहस के लिए भारत के तत्कलीन राष्ट्रपति ने उन को मरणोपरांत सेना मेडल से अलंकृत किया।
पिता अजनाथ सिंह और माता केशरी देवी आज भी बेटे के वियोग में दुखी हो जाते हैं, लेकिन उनकी शहादत पर गर्व भी करते हैं। करगिल के शहीद कमलेश के मां-बाप की पीड़ा इस बात की है कि सरकार ने उन्हें कुछ नहीं दिया। जो भी सुविधाएं मिली वह उनकी पत्नी को मिली जो शहादत के कुछ दिन बाद ही सभी रिश्ते नाते तोड़कर ससुराल से चली गयी। वह आजतक नहीं लौटी। खुद को सांत्वना देकर बुढ़ापा काट रहे कमलेश के परिजनों का कहना है, आज हम सबके बीच शहीद कमलेश सिंह तो नहीं है। लेकिन उनकी बहादुरी, अविस्मरणीय वीरता और कौशल ने आने वाली पीढ़ियों को देश के लिए मर मिटने का जज्बा प्रदान करती रहेगी।
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