इन दिनों सूबे में सैकड़ों ब्राह्मण संगठन सक्रिय हैं। सब बिरादरी के हित की बात करने में लगे हैं। पर उसकी रूपरेखा किसी के पास नहीं है। अगर कुछ है तो बस इतना कि कैसे इनके जरिए अपनी राजनीति चमकाई जाए।
कई ब्राह्मण संगठन तो राजनीतिक दलों के एजेंट बन गए हैं। वे उनके हित लाभ के मुताबिक काम कर रहे हैं। कुछ परशुराम को बेचने में लगे हैं तो कोई सबसे बड़ी मूर्ति लगा रहा है तो कोई ट्रस्ट बना रहा हैं।
कुछेक तो ऐसे भी है जो दर्जनभर गाड़ियों का काफिल लेकर ब्राह्मणों को लुभाने निकले हैं। चाय की दुकान पर फोटो खींचाते है और आलाकमान को बता देते हैं कि हम ब्राह्मण जागरण कर रहे हैं। आलाकमान भी खुश हो जाता है। वे तो कभी जमीन पर उतरे नहीं हैं। उड़नखटोले पर ही रहे हैं। इस कारण नवरत्न जो बता दे वही सही। यह उनकी मजबूरी भी है। क्योंकि सूबे की सियासत में ब्राह्मण अध्याय खुल गया है। 2014, 2017 और 2019 में जिस तरह इस बिरादरी ने लामबंद होकर भाजपा को कुर्सी बैठाया उसके बाद से जाति के आधार पर बने राजनीतिक दल भी ब्राह्मणों को लुभाने में जुट गए हैं।
पहले इस तरह की कवायद जाति आधारित दल नहीं करते थे। बिहार से जुड़े लोगों के पास ऐसे ढेरों संस्मरण है। हालांकि यूपी में ऐसा नहीं रहा है। लेकिन यह भी सही है कि जिन दलों की ब्राह्मणों ने सरकार बनवाई, उन्हीं दलों ने उनका तिरस्कार भी किया। इसमें अपवाद, बस सपा और कांग्रेस है। बसपा भी कुछ हद तक ही रही। जहां तक बात भाजपा की है तो उसे लेकर मंथन चल रहा है। ब्राह्मण महापंचायत उसका जरिया बनी है।
इन महापंचायतों से पता चलेगा कि यह समुदाय चाहता क्या है? लेकिन एक बात जो भाजपा के पक्ष में जाती दिखती है, वह है ब्राह्मणीकरण। भाजपा ब्राह्मणीकरण के एजेंडे पर ही आगे बढ़ती दिख रही हैं। फिर चाहे वह राम मंदिर का मसला हो या धारा 370। गो- संरक्षण का मामला भी इससे अलग नहीं है। अनुशासन और संस्कार का तानाबाना भी ब्राह्मणीकरण से जुड़ा है। खान-पान का अंकुश भी इसी के उदर से जन्मा है।
इस कारण यह सवाल बना हुआ है कि जो दल ब्राह्मणों के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा है, उसका दामन ब्राह्मण क्यों छोड़ेगे? यदि एकबारगी मान लिया जाए कि वे छोड़ देगे तो जाएगे कहां। विकल्प के तौर पर दो ही दल नजर आ रहे हैं। एक तो सपा ही है। मगर अब वहां मुलायम सिंह यादव नहीं है। उनका चेहरा सबको स्वीकार्य था। भले ब्राह्मण उनका साथ नहीं देते थे, मगर विरोध भी नहीं करते थे।
फिर एक दौर में जनेश्वर मिश्र, ब्रजभूषण तिवारी जैसा चेहरा भी सपा में था। माता प्रसाद पांडेय जैसा चेहरा तो आज भी है, मगर पीढ़ी परिवर्तन से बहुत कुछ बदल गया है। इसके बाद भी कई नेता ब्राह्मण जोड़ने में लगे हैं। पर उसका कोई खास असर नहीं दिख रहा है।
बसपा भी इस मामले में पीछे ही है। हां, खबरों में ब्राह्मण-दलित गठजोड़ की बात तो पार्टी कर रही है, लेकिन जमीन पर उस तरह की कोई हलचल नहीं है। पार्टी में जो ब्राह्मण चेहरा है, वह निस्तेज हो चला। युवा चेहरा है नहीं। जो हैं उन्हें आगे बढ़ाने की कोई योजना नहीं है। यदि है तो वह ठहरी है। उसकी वजह वंशवादी राजनीति है।
इसका एक नुकसान तो यही है कि परिवार से आया, हर नेता पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी नहीं हो सकता है। लेकिन जाति आधारित दलों में मौजूद ब्राह्मण चेहरा यह मानने को राजी नहीं है। वह मोह में फंसा है। कांग्रेस से अभी उसको कुछ अपेक्षा है नहीं। इस कारण जो ब्राह्मण हैं, वह नई संभावना की तलाश में है। खास कर युवा एक नई लकीर खींचने पर उतारू है।