आजादी की दास्तां: महुआ डाबर के मुकदमें पर संवाद


मजिस्ट्रेट पेपे विलियम्स और गोपालपुर राजा की घुड़सवार फौजें महुआ डाबर कस्बे को घेरकर तहस-नहस करने के बाद गैरचिरागी घोषित कर देती हैं। बाद में महुआ डाबर के कुछ निवासियों के पलायन कर अन्य जगह शरण लेने की बात भी लिखी है। गवाहों के बयानों में 6 ब्रिटिश सैन्य अफसरों को मारने वाले आस-पास के गांवों के विद्रोहियों-क्रांतिकारियों के नामों का उल्लेख आया है।



बस्ती। महुआ डाबर जनविद्रोह दिवस पर इस ऐतिहासिक घटना के क्रांतियोद्धाओं को मनोरमा तट पर याद किया गया। अब से 166 वर्ष पूर्व हुए महुआ डाबर एक्शन पर मुख्य वक्ता के तौर पर बोलते हुए क्रांतिकारी योगदानों के दस्तावेजी लेखक और चंबल संग्रहालय के संस्थापक डॉ. शाह आलम राना ने मेहरबान खां ( Mehurban Khan) पर चले मुकदमें के ट्रायल की प्रति दिखाते हुए कहा कि इसमें तीन चरण हैं पहला- घटना की पृष्ठभूमि, दूसरा- गवाहों एवं जासूसों के बयानात, तीसरा- इस पर फैसला।

महुआ डाबर बस्ती जिले का एक संपन्न कस्बा था। 10 जून 1857 को क्रांतिवीरों ने अंग्रेज सैन्य अधिकारियों पर हमला बोल दिया गया। इसमें 6 अंग्रेज सैन्य अधिकारी मारे गए थे। शाह आलम राना ने बताया कि इस घटना के मुकदमें के मुताबिक सात यूरोपियन अधिकारी कप्तानगंज के तहसीलदार से संपर्क करते हैं। तहसीलदार उन्हें पानी पिलाता है और उन्हें आगे सुरक्षित पहुंचाने के लिए थानेदार को बुलाता है। थानेदार कहता है कि यह हमारे साहब नहीं हैं और तहसीलदार का आदेश मानने से इंकार कर देता है। तब तहसीलदार अपने अधीनस्थ अन्य कर्मचारियों को बुलाता है।

बहरहाल महुआ डाबर वाया गायघाट छोड़ने के लिए 4 कर्मचारी तैयार होतें हैं। इसमें से दो कर्मचारी महुआ डाबर इलाके में पहले से नौकरी करते थे। एक कर्मचारी का पिता महुआ डाबर में नौकरी कर चुका होता है और यह भी बीस वर्षों से अधिक समय से महुआ डाबर में नौकरी कर रहा होता है। इसे इलाके की भौगोलिक स्थिति का ज्ञान है। कप्तानगंज तहसीलदार के पास घोड़े नहीं हैं तो वह चार-पांच खच्चर और राजस्व से पचास रुपये निकालकर यूरोपियन अधिकारियों को अपने सहयोगियों के साथ 10 जून 1857 की दोपहर को रवाना करता है।

रास्ते में मेहरबान खां कहते हैं कि साहब लोग थक गए होंगे, इनके नाश्ते के इंतजाम करने के लिए अपने साथ चल रहे एक व्यक्ति को शार्टकट रास्ते से महुआ डाबर भेजता है और यूरोपिन अधिकारियों को मनोरमा नदी इधर से उधर दो बार पार कराकर कई घंटों तक उलझाए रखता है। अचानक आस-पास के गांवों के रहने वाले विद्रोहियों की एक टुकड़ी तलवार के साथ खड़ी मिलती है और घेरकर 6 अधिकारियों का वध करने के साथ उनकी बंदूकें और सामान हथिया लेती है।

सार्जेंट बुशर भागकर पास ही गन्नें की मिल तक पहुंचता है। वहां बुंदन पाण्डेय, बुशर को गुड़ और दही देने के बाद गन्नें की पत्तियों के नीचे छुपा देता है। जब मेहरबान खां और रामजीत पाण्डेय तलवार लिए बुशर को तलाशते हुए जाते हैं तो शंकर पाण्डेय छिपने का स्थान बता देता है। विद्रोही जैसे ही सार्जेंट बुशर को खींचकर बाहर लाते हैं तो सामने स्थानीय जमींदार बुल्ली सिंह उसे बचा लेता है और बुशर उच्च अधिकारियों को सूचना देता है।

इस मुकदमें में यह भी लिखा है कि तत्कालीन मजिस्ट्रेट पेपे विलियम्स और गोपालपुर राजा की घुड़सवार फौजें महुआ डाबर कस्बे को घेरकर तहस-नहस करने के बाद गैरचिरागी घोषित कर देती हैं। बाद में महुआ डाबर के कुछ निवासियों के पलायन कर अन्य जगह शरण लेने की बात भी लिखी है। गवाहों के बयानों में 6 ब्रिटिश सैन्य अफसरों को मारने वाले आस-पास के गांवों के विद्रोहियों-क्रांतिकारियों के नामों का उल्लेख आया है।

हम गहराई से देखते हैं कि लार्ड मैकाले द्वारा ड्राफ्ट आईपीसी में विश्व प्रसिद्ध महुआ डाबर घटना के बाद इसमें कई धाराएं जोड़ी गई हैं। यह मुकदमा भी बाद में कई बार रुक-रुककर चला है। गवर्नर ने 6 जून 1860 को पेंडिग इस केस को फिर से चालू करने को कहा है। गौरतलब है कि इस मुकदमें में मेहरबान खां की दो बार गवाही होती है और बाद में मेहबान खां को ही इस घटना का मास्टर माइंड बताते हुए 13 फरवरी 1860 को बंदी बना लिया जाता है।

इस मुकदमें के पैरा-8 में मेहरबान खां को कालापानी की सजा दी गई है जो कि मृत्युदंड से बढ़कर सजा मानी जाती है और जिसमें विद्रोही हर दिन मरता है। हालांकि असिस्टेंट मजिस्ट्रेट विल्सन ने 19 जुलाई 1860 को 17 लोगों के खिलाफ साक्ष्य न होने पर रिहा कर दिया था।

इस अवसर पर महुआ डाबर एक्शन के महानायक पिरई खां के वंशज असलम खां, शहीद गुलजार खां के वंशज मतीउल हक, रामकेश, समाज सेवी नासिर आदि ने विचार व्यक्त किया।



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