कोरोना ने बदल दिए शारदेय नवरात्रि के तौर-तरीके


एक साल में यह दूसरा मौका है जब कोरोना की वजह से नवरात्रि के नौ दिनों का पर्व उस उत्साह से नहीं मनाया जा सकेगा जिस उत्साह से हर साल मनाया जाता है। गौरतलब है की विगत शनिवार,17 अक्टूबर 2020, आश्विन 25 शक संवत 1942, शुक्ल पक्ष प्रथमा (पडवा) और विक्रम संवत 207, अंग्रेजी ग्रेगोरियन कैलेंडर की तारीख और भारतीय पंचांगों की तिथि के मुताबिक़ इस दिन से इस साल के शारदेय नवरात्र का नौ दिनी पर्व की शुरुआत हो चुकी है।

धार्मिक विधान के मुताबिक़ नौ दिन के इस पर्व के दौरान देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है और दसवें दिन विधि- विधान से देवी की प्रतिमाओं का विसर्जन कर दिया जाता है। इसी दौरान उतरा भारत में विशेष रूप से नौ दिन राम के जन्म से लेकर रावण के वध तक की पौराणिक मिथकीय घटनाओं का रामलीला के रूप में मचान करने की भी परंपरा है और दसवें दिन रावन का पुतला जला कर विजया दशमी का पर्व मनाया जाता है। इस बार कोरोना की वजह से रामलीला से लेकर दुर्गा पूजा तक सभी धार्मिक कारू कलाप बदले हुए अंदाज में मनाये जा रहेराहे हैं।

धार्मिक और पौराणिक आख्यानाकों की दृष्टि से देखें तो नवरात्र का यह पर्व शक्ति की उपासना का प्रतीक है हमारे देश की धार्मिक मान्यता के अनुसार देवी को शक्ति का प्रतीक माना जाता है और शक्ति को धारण करने के लिए शिव की तपस्या की जाती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि शिव और पार्वती शक्ति के संयुक्त पुंज हैं और शक्ति का आशीर्वाद हासिल करने के लिए शिव की साधना बहुत जरूरी है। इसी सन्दर्भ में राम कथा को भी इसी मान्यता से जोड़ कर देखा जाता है।

यही कारण है की राम कथा में रावण का वध करने से पहले राम द्वारा शक्ति की पूजा करने का उल्लेख भी है। राम ने समुद्र रामेश्वरम के समुद्र तट पर मिट्टी के शिवलिंग स्थापित कर शक्ति पूजा की थी। महाकवि निराला ने तो राम की शक्ति की पूजा शीर्षक से एक लम्बी कविता भी लिखी थी। राम कथा के इसी शिव शक्ति वाले भाव की अभिव्यक्ति गोस्वामी तुलसीदास ने अपने महाकाव्य रामचरित मानस में एक स्थान पर इस रूप में की है, “लिंग थापि विधिवत करि पूजा, शिव सामान मोहि कोऊ न दूजा” मान्यता यह भी है की विजय दशमी पर्व यानी आश्विन शुक्ल पक्ष की दशवीं तिथि के 20 दिन बाद कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावास्या तिथि को राम अपने 14 साल के वनवास की अवधि को पूरा करने और लंका में रावण का वध कर विजयश्री हासिल करने के बाद अयोध्या वापस आये थी।

इसी खुशी में दीप प्रज्वल्लित कर उनका स्वागत किया गया था इसीलिए उस दिन को दीपावली के रूप में मनाया जाता है दीपावली के साथ ही लक्ष्मी पूजा के सन्दर्भ देवी के नौ रूपों में से एक रूप का उल्लेख है इसलिए यह पर्व भी शक्ति के साथ ही जुड़ गया है। शारदेय नवरात्रि नाम के अनुरूप मौसम चक्र के बदलने का संकेत भी देता है। इस पर्व के साथ ही ठण्ड का मौसम शुरू होने लगता है। भारतीय परंपरा के अनुसार साल में दो बार नवरात्र पर्व का आयोजन होता है। और दोनों ही नवरात्र पर्व 6- 6 महीने के अंतराल में आयोजित किये जाते हैं।

साल में पहला नवरात्र पर्व चैत्र माह में और दूसरा आश्विन माह में आयोजित किया जाता है। चैत्र माह से वर्ष का शुभारम्भ होने के साथ ही गर्मी के मौसम की भी शुरुआत होती है। मौसम के साथ ही ये दोनों नवरात्र पर्व अलग-अलग फसल चक्र के भी प्रतीक हैं। आश्विन नवरात्र से ठण्ड के मौसम की शुरुआत के साथ ही नयी फसल के रूप में धान की पैदावार भी घरों में आती है इसलिए इस मौके पर धान से बने तरह-तरह के पकवानों की भरमार होती है और इसी फसल से बनी खील का बहुतायत में उपयोग होता है।

दूसरी तरफ चैत्र माह से शुरू होने वाले नवरात्र पर्व से गर्मी के मौसम की शुरुआत होने के साथ ही गेहूं की फसल का आगमन होता है और उस पर्व में गेहूं से बने पकवान ही पर्व की खुशियाँ बांटने का आधार बनते हैं। वैसे चैत्र माह के नवरात्र से पहले होली के त्यौहार से ही गेहूं के पकवानों का सिलसिला शुरू हो जाता है। बहरहाल नवरात्र चाहे किसी मौसम का हो, धार्मिक सन्दर्भ दोनों के एक ही हैं।

देवी और शक्ति की उपासना के प्रतीक समझे जाने वाले इस पर्व में देवी के नौ रूपों की पूजा करने के सन्दर्भ दुर्गा सप्तसती का यह श्लोक बहुत लोकप्रिय भी है, “प्रथमम शैल पुत्री च। द्वितीयं ब्रह्मचारिणी, तृतीयं चन्द्घंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम , पंचमं स्कन्दमातेति, षष्टम कात्यानीति च सप्तम कालरात्रिति महागौरिति चास्टतंनवां सिद्धिदात्री च, नव दुर्गाप्रकीर्तिता” देवी के नौ रूपों की पूजा करने के क्रम में ही विधान के मुताबिक़ आठ से दस-बारह साल की कन्याओं के पूजन की भी हमारे यहाँ परंपरा है।

माना जाता है की इस उम्र तक के बच्चे निश्च्स्ल निष्पाप होते हैं इसलिए नौ दिन के अनुष्ठान और उपवास के बाद कन्या पूजन कर इस अनुष्ठान का समापन करने की व्यवस्था भी हमारे समाज में है। इस तरह साल में दो बार हम और हमारा समाज देवी के नौ रूपों के बहाने शक्ति के रूप में प्रकृति का पूजन कर लेता है।

इस साल परिस्थितियाँ बदली हुई हैं कोरोना की वजह सी चैत्र के नवरात्र में भी लॉकडाउन का साया घेरे रहा जिस वजह सी नवरात्र में उस तरीके से पूजन नहीं हो सका जिस तरह से होना चाहिए था और शारदेय नवरात्र के इस मौके पर भी कोरोना के हालात पहले जैसे ही हैं। अनलॉक की प्रक्रिया ने थोड़ी राहत तो दी है लेकिन यह राहत त्यौहार मनाने की आजादी एक सीमा तक ही दे पाती है।

इसलिए इस बार भी पहले की तरह नवरात्र पर्व का आयोजन नहीं हो पायेगा लेकिन बदलाव के साथ शक्ति की पूजा करने के मौके अवश्य मिलेंगे। इसी कड़ी में यह जानकारी भी महत्त्वपूर्ण है की बंगाल में इस बार एक पूजा पंडाल में देवी की एक ऐसी प्रतिमा स्थापित की गयी है जिमें एक प्रवासी महिला मजदूर को उसके पति और बच्चों के साथ चित्रित किया गया गया है।

गौरतलब है की कोरोना से बचाव के लिए 25 मार्च से पूरे देश में लागू किये गए लॉकडाउन के चलते जब सब कुछ बंद हो गया था तब बड़ी तादाद में प्रवासी मजदूर काम छूटने की वजह से अपने घरों को लौट गए थे। हजारों किलोमीटर की यात्रा के दौरान कई मजदूर तो रास्ते में ही मर भी गए थे जो अपने घर भी पहुंचे तो बहुत अच्छी हालत में नहीं थे। यह प्रतिमा प्रतीकात्मक तो है लेकिन दुर्गा पूजा के बहाने बहुत बड़ा सन्देश भी देती है। इसका सन्देश यही है की जब ईश्वर का बनाया हुआ इंसान ही दर-दर की ठोकरें खाकर एक अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर हो जाए तो फिर किसी भी तरह की पूजा या पूजा करने के ढोंग का वास्तविक जीवन में महत्व ही क्या रह जाता है।