बाल दिवस विशेष : गांधी ने किसके लिए कहा था -वह हीरे की तरह निर्मल हैं


वे मार्क्सवादी नहीं थे, परंतु मार्क्सवाद से प्रभावित जरूर थे। गांधी जी के अनन्य प्रिय शिष्यों में एक होते हुए भी वे बापू की हर बात से सहमत हो, ऐसी बात न थी। तब भी महात्मा गांधी जी ने उनके बारे में कहा था वह हीरे की तरह निर्मल हैं। ऐसा नाम गांधी जी जैसा पारखी ही कह सकता था।


राम मोहन राय
मत-विमत Updated On :

पंडित जवाहर लाल नेहरू विश्व इतिहास के उन विलक्षण व्यक्तियों में से एक है जिनकी सोच तथा विचार ने अपनी समय के सभी घटना चक्रों तथा पहलुओं को जहां एक और प्रभावित किया है वहीं दूसरी ओर अपने विचार प्रकट करने का भी मौका दिया है। पंडित नेहरू की प्रासंगिकता पर यदि विचार करें तो निश्चित रूप से वे आज भी उतने ही प्रासंगिक है जितनी अपने समय में।

उनके विचार किन्हीं जड़वादी सिद्धांतों अथवा बेतहाशा क्रांतिकारिता पर न होकर विज्ञान सम्मत यथार्थ पर आधारित थे। यदि किसी रूप में उन पर किसी वाद का ठप्पा लगाए जाने का प्रयास किया जाए तो उनकी सर्वांगीणता को एक तंग नजरिए से देखना होगा। इसलिए तमाम प्रगतिशील विचारधाराएं तथा वाद उन्हें अपना जामा पहनाने के प्रयास करते हैं। परंतु नेहरू को वे अपने जामे से बाहर पाते हैं। वे मार्क्सवादी नहीं थे, परंतु मार्क्सवाद से प्रभावित जरूर थे। गांधी जी के अनन्य प्रिय शिष्यों में एक होते हुए भी वे बापू की हर बात से सहमत हो, ऐसी बात न थी। तब भी महात्मा गांधी जी ने उनके बारे में कहा था वह हीरे की तरह निर्मल हैं। ऐसा नाम गांधी जी जैसा पारखी ही कह सकता था।

अंतर्राष्ट्रीय संदर्भों तथा शब्दावली को भारतीय परिपेक्ष में जिस तरह से उन्होंने रखा तो ऐसा प्रतीत हुआ कि इन तमाम घटनाओं के चक्र की दूरी तो भारत ही है। फासिज्म की कितनी जटिल व्याख्या ज्यार्जी दिमिगोव ने संयुक्त मोर्चे में दी, शायद लेखक ही उसे समझ पाया हो और आज फासिस्ट,साम्राज्यवाद तथा समाजवाद के बीच की तमाम दीवारें बर्लिन वॉल के साथी खंड खंड हो गई, परंतु फासिज्म का भारतीय भाष्य, जो नेहरू ने दिया कि ‘भारत में सांप्रदायिकता का नाम ही फासिज्म है’ क्या कोई अप्रासंगिक कह सकता है?

राष्ट्रीय संदर्भों में लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता तथा समाजवाद के बारे में जितने स्पष्ट तथा विस्तृत विचार उन्होंने दिए उनके विपरीत जब भी कभी कोशिश हुई है तो स्थितियों ने विघटन, आतंक, दंगा तथा आपसी झगड़ों को ही बढ़ावा दिया है।

नेहरू के विचारों को या यूं कहिए नेहरू वाद पर हमला उनके जीवन काल के समय में ही होने लगा था। कोई उन्हें पाश्चात्य सोच का बताता था तो कोई उन्हें भारतीयता के विरोध में खड़ा व्यक्ति बताता था ।उनकी आलोचना वैसे तो पार्टी के भीतर भी थी। स्वयं महात्मा गांधी की बात से वे पूरी तरह सहमत न थे तो गांधीजी भी उनके विचारों को अपनी सहमति प्रदान न करते थे।

सरदार पटेल सरीखे कांग्रेस के उच्च नेताओं ने कभी उनके वर्चस्व को पूर्ण तरह स्वीकार नहीं किया। अनेकों ऐसे राजनीतिक तथा वैचारिक प्रश्न थे जिन पर दोनों के विचार समान न थे। दोनों में नेतृत्व के सवाल को भी गौण करके नहीं देखा जा सकता। भारत की आजादी के बाद जहां राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का प्रश्न था दोनों कंधे से कंधा मिलाकर निर्माण के काम में जुट गए। विस्थापितों को कैसे बचाया जाए ,कश्मीर समस्या नवोदित पाकिस्तान के प्रति व्यवहार पर दोनों में मतभेद अवश्य थे।

नेहरू जहां सर्व धर्म समभाव के आदर्शों पर खड़े भारत कश्मीर समस्या को मिलजुलकर हल करने तथा पड़ोसी देशों के साथ अच्छा मित्रता पूर्ण व्यवहार करने के हामी थे, वही सरदार पटेल के विचारों उनसे कुछ विपरीत थे। परंतु कभी ऐसा मौका नहीं आया कि विचारों की यह असमानता जगजाहिर बनी हो।

दुर्भाग्यवश सरदार पटेल का देहावसान सन 1952 में ही हो गया तथा देश उनके प्रशासकीय अनुभवों तथा दक्षता से वंचित रह गया। परंतु स्थितियों तथा अनुभवों ने यह सिद्ध किया कि भारत का निर्माण कैसा हो तथा कौन-कौन सी ताकतें इस में अग्रणी भूमिका अदा करें, इस पर नेहरू जी के विचार सुसंगत तथा सही थे।

प्रसिद्ध समाजवादी चिंतक व नेता डॉ राम मनोहर लोहिया ऐसे आलोचक थे जिनका दावा था कि उनके अतिरिक्त समाजवाद की परिभाषा तथा व्याख्या या तो पाश्चात्य चिंतन पर आधारित है अथवा काल्पनिक है। वे स्वयं को भारतीय परिपेक्ष में ही समाजवादी सिद्ध करने का प्रयास करते रहे। अपने अल्लाह परंतु गंभीर व्याख्यान के जरिए उन्हें अपनी सोच का इजहार किया। वास्तव में डॉक्टर लोहिया के बाद समाजवाद का ऐसा रूप बिगड़ा कि उसका भारतीयकरण के साथ साथ प्रांतीयकरण, धर्मकरण तथा जातीयकरण भी हो गया।

वैदिक समाजवाद ,गुरु गोविंद सिंह का समाजवाद, तेलुगु समाजवाद तथा इत्यादि इत्यादि समाजवाद के ऐसे ऐसे रूप सामने आए कि मानना पड़ा कि समाजवाद एक ऐसी टोपी है जिसे हर कोई पहन सकता है तथा वह हर एक के उतनी ही फिट उतरती है जैसे उसी की हो। इसके विपरीत नेहरू के समाजवाद के बारे में विचार ही स्पष्ट तथा भारतीय परिप्रेक्ष्य के अनुसार ही थे।

नेहरू के विचार काल्पनिक तथा कपोल कल्पित न होकर व्यवहारिक तथा वैज्ञानिक है। उनका कथन यदि किसी रेलगाड़ी के डिब्बों के आगे बैल बांध दिए जाए तो उसे रेलगाड़ी नहीं कहा जा सकता ,उसी प्रकार समाजवाद यदि वैज्ञानिक नहीं है तो उसे समाजवाद नहीं कहा जा सकता। उन्होंने किन्हीं जनवादी केंद्रीयता तथा अनुशासन के छद्म नाम पर तानाशाही प्रवृति को प्रोत्साहित करने वाले तत्वों की घोर निंदा की तथा’ प्रजातांत्रिक समाजवाद’ का सिद्धांत दिया, जिसमें सभी को समान अवसर ,आर्थिक स्वावलंबन तथा आर्थिक स्वतंत्रता की बात कही गई थी।

जो राष्ट्र ”यूरो कम्युनिज्म” का नारा देते थे तो कम्युनिस्ट उन्हें भटकाव वादी प्रवृत्ति कहते थे। भारतीय कम्युनिस्ट उसे यूरोपियन तथा भारत में नेहरू के विचारों को यूरो कम्युनिज्म के समकक्ष बताते थे। इतिहास ने यह साबित कर दिया है कि कौन सही था तथा कौन गलत। यूरो कम्युनिज्म को मानने वाले इटली, फ्रांस तथा युगोस्लाविया की कम्युनिस्ट पार्टियों से सोवियत संघ की पार्टी के सभी संबंध यह कहकर तोड़ लिए थे कि वे भटकाव के मार्ग पर अग्रसर हैं।

परंतु ग्लासनोसत तथा की बात कहने वाली सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वयं अपनी आलोचना की है तथा उसी रास्ते पर चलने का प्रयास किया है जिसे वे भटकाववादी प्रवृत्ति बताते थे। पंडित जवाहर नेहरू स्वयं महान अक्टूबर समाजवादी क्रांति जो सन 1917 में रूस में हुई थी, अभिनंदन करने सोवियत रूस गए थे तथा वहां से लौटकर मजदूर तथा किसान के सर्वप्रथम राज्य अभिषेक पर एक पूरी पुस्तक ही लिख डाली थी।

आजादी के बाद बागडोर संभालते ही योजनाबद्ध विकास ,स्वाबलंबन तथा सार्वजनिक निर्माण, समाजवादी देशों से मित्रता जैसे कदम उठाकर नेहरू ने भारत के लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना की ओर कदम बढ़ाए थे। तो पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट विरोधी देशो ने कहना शुरू कर दिया था कि नेहरू ने भारत को कम्यूनिज्म की आग में धकेल दिया है। परंतु पंडित जवाहर लाल नेहरू ने जो नीति अपनाई वह अपने आप में अनूठी थी।

‘प्रजातांत्रिक समाजवाद’ जहां वैज्ञानिक समाजवाद की भारतीय व्याख्या है ,वही वह भारत की परिस्थितियों के अनुकूल भी है। समाजवाद का विकास जनतांत्रिक प्रक्रिया पर आधारित होगा पूरे विश्व के तथा भारत के विभिन्न घटना चक्रों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पंडित नेहरू के समाजवाद विषयक विचार ही दुरुस्त हैं। समाजवादी क्रांति के विभिन्न पहलुओं पर अलग-अलग विचारको ने भिन्न भिन्न विचार दिए। कार्ल मार्क्स तथा लेनिन के विचारों पर आधारित भारतीय कम्युनिस्टों ने राष्ट्रीय जनवादी क्रांति तथा जनतांत्रिक क्रांति के अलग-अलग रूप प्रस्तुत किए तथा साम्राज्यवाद विरोधी, तथा सामंतवाद विरोधी शक्तियों को एकजुट करने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व के प्रश्न पर दोनों विभाजित हो गए तथा फिर कभी न मिलने की शपथ ले ली।

दोनों ने प्रमुखता ‘सर्वहारा की तानाशाही’ तथा ‘वर्ग संघर्ष’ को दिया। वर्ग संघर्ष को समाप्त कर सर्वहारा की तानाशाही स्थापित होने के बाद सोवियत रूस के सर्वोच्च नेता मिखाइल को कहना पड़ा कि सर्दी में लोगों को भूखे मरने न दिया जाएगा। वहीं डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा कि भारतीय स्थितियों का तकाजा है कि भारत में वर्ग संघर्ष पहले वर्ण संघर्ष होगा।

कम्युनिस्ट आंदोलन जब भारत में असफलता की ओर बढ़ने लगा तो भारत की कम्युनिस्टों ने आंदोलन की विफलता के कारण भारत की भारत की प्रतिकूल परिस्थितियां माओवाद वर्ण व्यवस्था तथा जातीयवाद बताया। कहना यह है कि लोहिया तथा मार्क्सवादी विचारक वर्ण व्यवस्था पर ही पहुंच गए और संघर्ष चाहे वर्ग को हो अथवा वर्ग का, समस्याओं के हल संघर्ष से खोजने शुरू हुए। यहां लेनिन के ये शब्द कहने बेहद प्रासंगिक है कि सत्ता चाहे वैधानिक ढंग से अथवा असंवैधानिक ढंग से हथियाई जाए, हिंसक अथवा अहिंसक ढंग से हथियाई जाए ,सभी जायज है। उन्हें मार्क्सवादियो ने एक दूसरे को संशोधनवादी कहना शुरू कर दिया तो स्वयं को क्रांतिकारी।

नक्सलवादी गुट पनपे तथा कई अन्य नामों से मार्क्सवादी ,लेनिनवादी स्टालिन वादियो ने अपने-अपने संगठनों की स्थापना की और शुरू हो गया अपने द्वारा ही भारत के तथाकथित संविधान, कानूनों तथा बल की स्थापना ,व्याख्या तथा उनका क्रियान्वयन। “लाल किले पर लाल निशान- मांग रहा मजदूर- किसान”। सैकड़ों बेगुनाह लोगों को इनकी क्रांतिकारियों ने प्रति क्रांतिकारी कहकर मौत के घाट उतार दिया। अपनी सरकार स्थापित कर ली गई तथा चीन तथा अन्य देशों से हथियार लेकर लोक युद्ध की घोषणा कर दी।

परंतु क्या हाल हुआ इन क्रांतिकारियों का। पश्चिम बंगाल व त्रिपुरा मार्क्सवादी सरकार केरल की वाम संयुक्त सरकार तथा अभी हाल ही में बिहार में सरकार भी शामिल होने की पेशकश में सभी उद्धरण है कि तथाकथित क्रांतिकारियों ने भी भारत में उसकी स्थितियों अनुसार क्रांति की रूपरेखा को स्वीकार कर लिया था। जो कहते थे कि सांसद व विधानमंडल तो मात्र अपनी बात कहने के ढंग है। अब उनकी शक्ति का प्रदर्शन उसी में होने लगा। किसकी जीत है यह अतिवादी क्रांतिकारियों की अथवा शांतिमय अहिंसक क्रांति के अग्रदूत पंडित नेहरू की।

डॉ राम मनोहर लोहिया के स्वप्न वर्ण संघर्ष को नेहरू के विचारों का विकल्प पेश करने का प्रयास किया। अगड़ा तथा पिछड़ा पर सभी समाजवादी चाहें संयुक्त हो अथवा प्रजा ,सभी ने इन्हीं वाक्यों को दोहराया। मोरारजी भाई की सरकार में जनसंघ तथा संगठन कांग्रेसियों की अच्छी खासी संख्या थी परंतु वी पी सिंह की अल्पमत सरकार में पुराने समाजवादियों का बहुमत था। उन्होंने टूल बनाया विश्वनाथ प्रताप सिंह को तथा नारा लगवाया कि समय आ गया है लोहिया के सपनों का भारत बनवाने का। वर्ण व्यवस्था तथा जातियवाद को अपने शत्रु मानने वाले कम्युनिस्ट भी इस मुहिम में शामिल हो गए।

मंडल आयोग रिपोर्ट को इस तरह पेश किया गया जैसा समूचे पिछड़े तथा दलित समुदायों को रोटी, कपड़ा और मकान की अपेक्षा इस रिपोर्ट की ज्यादा जरूरत थी और सरकार ने लोहिया के पिछड़ों को अगड़ों में लाने का यह नायाब ढंग खोज निकाला। परिणीति हुई करोड़ों रुपयों के जानमाल के नुकसान की तथा सैकड़ों युवकों द्वारा आत्मदाह के रूप। कोई भीआत्मदाह जैसे कायरता पूर्ण कार्यों का समर्थन नहीं कर सकता। परंतु नेहरू के समाजवाद के आदर्श के विकल्प के रूप में लोहिया वादियों द्वारा प्रस्तुत इस अगड़े – पिछड़े के खेल ने य़ह सब कुछ कर दिखलाया।

(लेखक राम मोहन राय गांधी ग्लोबल फैमिली के महासचिव और सुप्रीम कोर्ट में एडवोकेट हैं।)