ज़ायनवादी इज़रायल और साम्राज्यवादी अमेरिका द्वारा फ़िलिस्तीनी अवाम का क़त्लेआम बदस्तूर जारी है। लेख लिखे जाने तक तक़रीबन 37,296 लोग मारे जा चुके हैं जिसमें 15 हज़ार से अधिक बच्चे हैं। यह महज़ कोई भी संख्या नहीं है बल्कि यह फ़िलिस्तीनी बच्चों, बूढ़ों, नौजवानों, स्त्रियों की संख्या है जिनका पिछले 9 महीनों में ज़ायनवादियों और इज़रायली उपनिवेशवादियों द्वारा कत्लेआम किया जा चुका है।
पिछले 9 महीनों से जारी ज़ायनवादियों द्वारा हमलों की वजह से फ़िलिस्तीनी जनता की स्थिति की कल्पना कर पाना भी हमारे लिये मुश्किल है। उपनिवेशवादियों द्वारा जारी इस नरसंहार की भयावहता को हम कुछ आँकड़ों के ज़रिये देख सकते हैं।
पैलेसटीनियन सेन्टर फ़ॉर पॉलिसी एण्ड सर्वे रिसर्च द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार गाज़ा में रहने वाले 60 फ़ीसदी लोगों ने बीते 9 महीनों में अपने परिवार के किसी न किसी सदस्य को खोया है और 80 फ़ीसदी लोग ऐसे हैं जिनके घर से कोई न कोई इज़रायली हमले में मारा गया है या फ़िर घायल हुआ है। 7 अक्टूबर 2023 से जारी इस क़त्लेआम में गाज़ा शहर मलबे और लाशों के ढेर में तब्दील हो चुका है। रिहायशी इलाक़ों के 60 फ़ीसदी घर नष्ट किये जा चुके हैं। कुल 35 अस्पतालों में से 12 या 13 बमुश्किल काम कर पा रहे हैं। वहीं स्कूलों की कुल संख्या का 88 फ़ीसद बमवर्षा की चपेट में आ चुका है। बाज़ार को पूरी तरह ख़त्म कर दिया गया है।
दवाइयाँ और भोजन-पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं को भी लोगों तक पहुँचने से रोका जा रहा है। बौखलाये ज़ायनवादी एम्बुलेंस पर हमले कर रहें हैं, अस्पतालों-स्कूलों पर, शरणार्थी कैम्पों पर हमले कर रहे हैं। “सबसे सुरक्षित” घोषित किये गये स्थानों पर बमों की बारिश करके साम्राज्यवादियों ने इसी बौखलाहट का परिचय दिया है। रफ़ा में किया गया हमला, नूसरत रिफ्यूजी कैम्प से लेकर 11 जून को एक स्कूल पर किया गया हमला इसी के उदाहरण हैं। अक्टूबर से लेकर अबतक गाज़ा पर इज़रायली ज़ायनवादियों ने 70,000 टन बम बरसाया है जो अबतक के युद्धों में इस्तेमाल किये गये विस्फोटकों से कहीं ज़्यादा है।
पहले ही फ़िलिस्तीनी अवाम को उनकी जगह-ज़मीन से दर-बदर करके वेस्ट बैंक और गाज़ा में समेट दिया गया था। अक्टूबर से लेकर अबतक हुए हमलों में गाज़ा में भी कोई सुरक्षित जगह नहीं बची है। दस लाख से भी ज़्यादा लोग यानी गाज़ा की आधी से अधिक आबादी रफ़ा के एक हिस्से में रहने के लिये मज़बूर है। वहाँ भी हमलों के बाद स्थिति बदतर हो चुकी है। इज़रायली सेना द्वारा सभी रास्तों को बन्द करने और पूरे इलाक़े की घेरेबन्दी की वजह से लोगों को बुनियादी सुविधाएँ भी मयस्सर नहीं हैं। हवाई हमलों और गोलाबारी में मौत के अलावा हर रोज़ लोग भूख से दम तोड़ रहे हैं। दवा-इलाज़ की कमी से मरने को मजबूर हैं।
दुनिया के एक हिस्से में जारी इस बर्बरता के पीछे क्या कारण है? इसकी जड़े कहाँ हैं? क्यों इज़रायल और अमेरिका पूरी फ़िलिस्तीनी क़ौम को तबाह–बर्बाद करने पर तुले हैं?
इसको समझने के लिए हमें फ़िलिस्तीन और इज़रायल के इतिहास से परिचित होना होगा। इज़रायल नाम का कोई देश दुनिया के नक्शे पर 1948 से पहले नहीं था। जिस देश को आज इज़रायल का नाम दिया जा रहा है वह वास्तव में फ़िलिस्तीन ही है। फ़िलिस्तीन की जगह-ज़मीन पर इज़रायल को इसलिए बसाया गया क्योंकि 1908 में मध्य-पूर्व में तेल के खदान मिले जो कुछ ही वर्षों के भीतर पश्चिमी साम्राज्यवाद के लिए सबसे रणनीतिक माल बन गया और इसपर ही अपना क़ब्ज़ा जमाने के लिये ज़ायनवादी उपनिवेशवादी व नस्ली श्रेष्ठतावादी राज्य की स्थापना फ़िलिस्तीन की जनता को उनकी ज़मीन से बेदखल करके करने की शुरुआत हुई। इसके लिए ब्रिटेन ने ज़ायनवादी हत्यारे गिरोहों को फ़िलिस्तीन ले जाकर बसाना शुरू किया, उन्हें हथियारों से लैस किया और फिर 1917 से 1948 के बीच हज़ारों फ़िलिस्तीनियों का इन ज़ायनवादी धुर-दक्षिणपन्थी गुण्डा गिरोहों द्वारा क़त्लेआम किया गया और लाखों फ़िलिस्तीनियों को उनके ही वतन से बेदखल करने का काम शुरू हुआ। बाद में अमेरिकी साम्राज्यवाद की सरपरस्ती में इज़रायली ज़ायनवादियों द्वारा यह काम अंजाम दिया गया। यह प्रक्रिया आज भी अपने सबसे बर्बर रूप में जारी है।
यही कारण है कि इज़रायल कोई वास्तविक देश नहीं है बल्कि यह एक सेटलर उपनिवेशवादी राज्य है जो मध्य-पूर्व में पश्चिमी साम्राज्यवाद के हितों, विशेषकर तेल से जुड़े रणनीतिक हितों और उनके मुनाफ़े की हिफ़ाज़त के लिए खड़ा किया गया है।
इसलिए, ज़ायनवादी इज़रायल और साम्राज्यवादी अमेरिका द्वारा अंजाम दी जा रही इस बर्बरता के पीछे कारण सिर्फ़ यह नहीं है कि वे बर्बर और क्रूर हैं बल्कि इसके पीछे मुनाफ़े के वे सौदे हैं जिनके बिना इस क़िस्म और पैमाने की बर्बरता और नरसंहार को अंजाम दे पाना मुश्किल हैं। जर्मन नाटककार व कवि ब्रेख्त के शब्दों में कहें तो “बर्बरता बर्बरता से पैदा नहीं होती बल्कि उन व्यापारिक समझौतों से पैदा होती है जिन्हें बर्बरता के बिना अंजाम दे पाना सम्भव नहीं होता।”
हमारे देश के हुक्मरानों के हाथ भी इस क़त्लेआम में शामिल हैं! इस नरसंहार में फ़ासीवादी मोदी सरकार भी भागीदार है! हमारे देश में पूँजीपति वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टी कांग्रेस और उनके नुमाइन्दे महात्मा गाँधी से लेकर नेहरू और इन्दिरा गाँधी तक ने फ़िलिस्तीन की मुक्ति का समर्थन किया था मगर फ़ासीवादी भाजपा सरकार ने इस मसले पर भी अपना दोमुँहा रवैया दिखाया है। भारतीय फ़ासिस्ट एक तरफ़ तो दुनिया को दिखाने के लिये गाज़ा में राहत सामग्री भेजने की नौटंकी कर रहे थे तो दूसरी तरफ़ इज़रायल में भारतीय मज़दूर भेजे जा रहे थे ताकि वहाँ युद्ध में आपूर्ति के लिये ज़रूरी सामानों के पैदावार में कमी न आये। मोदी सरकार लगातार इज़रायली हत्यारों की माँग पर विस्फोटक और हथियार की सप्लाई कर रही थी।
‘द वायर’ न्यूज़ पोर्टल में आयी एक रिपोर्ट के अनुसार हैदराबाद स्थित अडानी डिफेंस एण्ड एयरोस्पेस और इज़रायल की एलबिट सिस्टम्स के बीच हुए सौदे में 2019 से 2023 के दौरान इज़रायल को 900 यूएवी/ड्रोन विशेष रूप से सैन्य इस्तेमाल के लिए भेजे गये और भारत द्वारा निर्मित गोला-बारूद का निर्यात किया गया।
फ़रवरी 2024 के पहले सप्ताह में, इसी अडानी-एलबिट एडवांस्ड सिस्टम्स इंडिया लिमिटेड ने इज़रायल को 20 से अधिक भारत निर्मित (जिसे ‘दृष्टि 10’ नाम दिया गया है) यूएवी/ड्रोन निर्यात किये हैं।
मालूम हो कि रक्षा मन्त्रालय के अन्तर्गत आने वाली पब्लिक सेक्टर की एक कम्पनी म्युनिशन इण्डिया लिमिटेड (एमआईएल) को भी जनवरी 2024 तक अपने उत्पादों को इज़रायल भेजने को कहा गया था। 18 अप्रैल 2024 को, कम्पनी ने इज़रायल से एक रिपीट ऑर्डर के तहत उन्हीं उत्पादों के निर्यात के लिए फिर से आवेदन किया है। इसी तरह, एक निजी भारतीय कम्पनी, प्रीमियर एक्सप्लोसिव्स लिमिटेड (पीईएल) (जो कम से कम 2021 से डायरेकटोरेट जनरल ऑफ फॉरिन ट्रेड से मिलने वाले लाइसेंस के तहत इज़रायल को विस्फोटक और सम्बद्ध सामान निर्यात कर रही है) को पिछले साल गाज़ा पर इज़रायल के युद्ध शुरू होने के बाद से दो बार 20 नवम्बर, 2023 और 01 जनवरी, 2024 को विस्फोटक पदार्थों का निर्यात करने की अनुमति दी गयी है ।
मालूम हो कि नरेन्द्र मोदी सरकार ने 12 दिसम्बर 2023 को गाज़ा में तत्काल युद्धविराम के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था लेकिन चार महीने बाद मोदी सरकार ने अपने दिसम्बर 2023 के रुख के विपरीत जाकर मतदान से परहेज़ किया यानी 5 अप्रैल को भारत उन 13 देशों में से एक था, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूएनएचआरसी) द्वारा पारित प्रस्ताव, जिसमें गाज़ा में तत्काल युद्धविराम और इज़रायल को हथियार भेजने पर प्रतिबन्ध लगाने का आह्वान किया गया था, के पक्ष में मतदान नहीं किया। यह साफ़ था कि भारत सरकार, जो इज़रायल को हथियार बेच रही थी, वह इस नरसंहार के बावजूद इज़रायल को हथियार भेजना जारी रखना चाहती थी।
मोदी सरकार के सत्तासीन होने के बाद से इज़रायली ज़ायनवादी हत्यारी औपनिवेशिक सत्ता के साथ भारत की करीबी बढ़ी है। हमारे देश में इन्साफ़ और जनवाद के लिये लड़ रहे लोगों को कुचलने के तौर–तरीक़े यहाँ की पुलिस और सेना को सिखाने के लिये इज़रायल की पुलिस व खुफ़िया एजेंसी मोसाद के लोग नियमित तौर पर भारत बुलाये जाते हैं। खुफ़िया पेगासस ऐप भी भारतीय सरकार को इज़रायली ज़ायनवादियों से ही मिला है। इसलिए मोदी सरकार ने गाज़ा में इज़रायली ज़ायनवादियों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों द्वारा अंजाम दिये जा रहे नरसंहार के खिलाफ़ भारत में हो रहे तमाम प्रदर्शनों को कुचलने का काम किया। गाज़ा की मुक्ति के पक्ष में खड़े हो रहे लोगों को बलपूर्वक हिरासत में लेने और उन्हें चुप कराने के सारे तौर-तरीक़े अपनाये।
यह साफ़ है कि गाज़ा में जारी नरसंहार को जारी रखने के लिये इज़रायली हत्यारों के साथ मोदी सरकार भी इसमें भागीदारी कर रही है। फ़ासीवादी ताक़तें और ज़ायनवादी-उपनिवेशवादी न सिर्फ़ अपने देश की जनता के दुश्मन है बल्कि यह पूरी दुनिया की मेहनतकश आबादी के दुश्मन हैं।
लेकिन इन सबके बावजूद फ़िलिस्तीन की जनता ने पिछले 9 महीनों के अपने संघर्ष के दौरान साम्राज्यवादी ताक़तों को यह दिखला दिया है कि उनके बड़े से बड़े हथियारों के जखीरों, गोला-बारूदों, टैंकरों और तमाम यातनाओं के बावजूद भी वह फ़िलिस्तीन के मुक्तिस्वप्न को तोड़ नहीं पाये हैं। फ़िलिस्तीनी अवाम आज भी इस बर्बरता और विभीषिका को झेलते हुए डटकर लड़ रही है और दुनियाभर में इन्साफ़पसन्द लोग फ़िलिस्तीनी मुक्ति के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं और यह लड़ाई फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना और ज़ायनवादियों के विनाश के साथ ही ख़त्म होगी।
(मजदूर बिगुल में प्रकाशित प्रियम्वदा का लेख; साभार लिया गया है)