
नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने एक बार फिर चुनावी प्रक्रिया की प्रमाणिकता पर सवाल उठाए हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़े अनेक ग़ैर-दलीय संगठनों और व्यक्तियों ने फिर उनके स्वर में अपना स्वर जोड़ा है। बीजेपी के नेताओं ने एक बार फिर जवाबी हमला बोला है। गेंद चुनाव आयोग के पाले में हैं। लेकिन इस मामले को पारदर्शी तरीके के निपटाने की बजाय चुनाव आयोग एक बार फिर खानापूर्ति कर रहा है। यह लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं है।
चुनाव की प्रमाणिकता का सवाल नाजुक है और अहम भी। इसलिए इससे जुड़े सभी पक्षों को फूंक-फूंक कर कदम रखना होगा। चुनाव हारने पर चुनावी प्रक्रिया को दोष देना सबसे आसान काम है। इसलिए सिर्फ शक खड़ा करने या एकाध अनियमितता दिखाने से काम नहीं चलेगा।
चुनावी धांधली के किसी भी आरोप को साबित करने के लिए पुख्ता प्रमाण पेश करने होंगे। उधर चुनाव प्रक्रिया को सही बताने के लिए सिर्फ यह दावा कर देना काफ़ी नहीं है। चुनाव निष्पक्ष होने चाहिए, और निष्पक्ष दिखने चाहिए। चुनाव आयोग को पारदर्शिता और निष्पक्षता की हर कसौटी पर खरा उतरना होगा।
राहुल गांधी के नए लेख में कोई नया खुलासा नहीं है। उन्होंने महाराष्ट्र चुनाव को लेकर वही सवाल उठाए हैं जो वे पहले एक प्रेस कांफ्रेंस में उठा चुके हैं। मुख्य सवाल लोकसभा और विधान सभा चुनाव के बीच छह महीने से अंतराल में महाराष्ट्र की वोटर लिस्ट में कुल 40 लाख की वृद्धि (48 लाख से अधिक वोटर जुड़े और 8 लाख वोटरों के नाम कटे) को लेकर है।
राहुल गांधी का सवाल है कि अगर पिछले पाँच साल में (2019 के विधान सभा से 2024 लोक सभा चुनाव तक) महाराष्ट्र में सिर्फ़ 32 लाख वोटर बढ़े तो सिर्फ़ छह महीने ने 40 लाख का इजाफा कैसे हो गया? उन्होंने प्रमाण दिया है कि इस तरह का अंतर पहले कभी नहीं हुआ। हैरानी की बात यह है कि इस चुनाव में महाराष्ट्र के वोटरों की संख्या प्रदेश की अनुमानित वयस्क जनसंख्या से भी ज़्यादा थी।
उन्होंने दूसरा सवाल यह भी उठाया है कि मतदान वाले दिन शाम 5 बजे घोषित 58 प्रतिशत मतदान अप्रत्याशित तरीके से बढ़कर अगले दिन तक 66 प्रतिशत कैसे हो गया? उनका आरोप है कि यह सारा गड़बड़झाला उन 12,000 बूथों पर हुआ जहां बीजेपी लोक सभा चुनाव में हारी थी और जिसे पलटकर उसकी जीत सुनिश्चित की जा सकती थी।
राहुल गांधी द्वारा पेश किए प्रमाण अंतिम और अकाट्य नहीं हैं, लेकिन गंभीर शक पैदा करने के लिए काफ़ी हैं। चुनाव आयोग ने दिसंबर 2024 में कांग्रेस को भेजे एक पत्र में इनमें से कुछ बातों का जवाब दिया भी था। दिक्कत यह है कि इस सारे मामले में चुनाव आयोग ने एक जवाबी हमले की भूमिका अपनायी है।
संदेह का निवारण करने की बजाय संदेह करने वालों पर उंगली उठाई है। सवाल का जवाब देने की बजाय कानूनी औपचारिकताओं की आड़ ली है। मसलन वोटर लिस्ट में बढ़ोतरी के मुद्दे पर चुनाव आयोग कहता है कि वोटर लिस्ट में संशोधन की हमारी प्रक्रिया दोषरहित है। हर कदम पर हम हर पार्टी को ऐतराज करने का अधिकार था, आपने उस वक्त ऐतराज नहीं किया।
मान लीजिए की यह बात सही हो और विपक्षी दलों ने वोटर लिस्ट संशोधन के समय कोताही बरती हो। तब भी क्या चुनाव आयोग की जिम्मेवारी नहीं बनती कि वो ख़ुद वोटर लिस्ट की जाँच करे? कागज पर इतनी दोषरहित प्रक्रिया होने के बाद भी छह महीने में कुल 56 लाख बदलाव कैसे हुए, 48 लाख से अधिक नए नाम कैसे जुड़े और 8 लाख वोटरों के नाम कैसे कटे? संभव है की इन सवालों के वाजिब जवाब हों, लेकिन जब सवाल चुनाव आयोग से पूछे जायें और जवाब बीजेपी के नेता दें तो शक और भी गहरा हो जाता है।
असली सवाल यह है कि राहुल गांधी या और कोई भी व्यक्ति चुनावी धांधली के पुख्ता प्रमाण पेश करे तो कैसे करे? चुनाव आयोग पूरी सूचना को सार्वजनिक करने से बचता रहा है। अगर राहुल गांधी के बाक़ी सवाल सही ना भी हों, तब भी उनके इस सवाल से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि चुनाव आयोग सूचना सार्वजनिक क्यों नहीं करता। अगर आपको वोटर लिस्ट में हुए बदलाव में गड़बड़ी के प्रमाण देने हैं तो आपको लोकसभा और विधानसभा चुनाव की बूथवार लिस्ट की सॉफ्ट कॉपी चाहिए, ताकि दोनों लिस्टों की तुलना की जा सके।
चुनाव आयोग ने नवीनतम लिस्ट वेबसाइट पर डाली हुई है, लेकिन पुरानी को डिलीट कर दिया है। अगर आपको साबित करना है की शाम 5 बजे के बाद किसी बूथ पर उतने वोट नहीं पड़े जितना चुनाव आयोग कह रहा है तो आपको उस बूथ की वीडियो चाहिए। चुनाव आयोग ने यह देने से इनकार कर दिया। यही नहीं, सरकार ने वो नियम ही बदल दिया जिसके तहत यह सूचना मांगी जा सकती थी।
लोकसभा चुनाव के समय से तमाम पार्टियां और संगठन यह माँग कर रहे हैं कि फॉर्म 17C को सार्वजनिक किया जाय जिसमे यह दर्ज होता है कि किस बूथ पर कितने वोट पड़े हैं। लेकिन चुनाव आयोग कोई ना कोई बहाना लगाकर इस सूचना को देने से इनकार कर रहा है। नतीजतन, सबको लगता है की दाल में कुछ काला है।
यही सबसे बड़ा सवाल है। आज से बीस साल पहले अगर चुनाव हारी हुई कोई पार्टी ऐसे सवाल उठाती (जैसे एक बार ममता बनर्जी ने किया था) तो कोई भी उसे गंभीरता से ना लेता। उस जमाने में चुनाव आयोग की एक साख थी, उसकी कड़ाई का डंका बजता था।
चुनाव के दिनों में सत्ताधारी दल चुनाव आयोग से डरता था। लेकिन पिछले दस वर्ष में चुनाव आयोग ने अपनी वो साख खो दी है। चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्था की बजाय सरकारी अफसर की तरह काम करते दिखते हैं। चुनाव से जुड़े हर बड़े निर्णय में चुनाव आयोग और बीजेपी की जुगलबंदी नज़र आती है।
सुप्रीम कोर्ट ने एक कोशिश की थी कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति एक निष्पक्ष तरीके से हो। इस सरकार ने उसे भी नाकाम कर दिया और चयन समिति में मुख्य न्यायाधीश की बजाय गृह मंत्री को बैठा दिया। जाहिर है ऐसे में चुनाव आयोग अंपायर कम और खिलाड़ी ज़्यादा नज़र आता है। बाक़ी सवालों के साथ राहुल गांधी ने इस चयन प्रक्रिया के बुनियादी खोट पर उंगली उठाई है। भारतीय लोकतंत्र का हर शुभचिंतक इस बात पर उनसे सहमत होगा।
( योगेन्द्र यादव राजनीतिक विश्लेषक हैं)