“बेटा मिल सके तो कहीं से एक अनार लेते आना’’, हस्पताल में दाख़िल सत्तर बरस के डोकरे ने दरवज्जे पर खड़े अपने पैंतिस बरस के बेटे से कहा। पाँच मिनिट की मुलाक़ात में यह बात वो तीसरी दफ़ा दोहरा रहा था।
’’हाँ पापा कोशिश करुँगा कि कल कहीं से एक अनार मिल जाए’’, लड़के ने भी वादा दोहराया। इस मर्तबा उसका गला भर्राया था। दिल ही दिल में व अपने झूठ का भेद जानता था। मालूम था उसे कि जिस काल और जिस शहर में वह खड़ा है उसमें अनार हासिल करना नामुमकिन से भी ज़्यादा असम्भव ठहरा।
बता दूँ कि उपर्युक्त सम्वाद कपोल कल्पित नहीं। कि डोकरा चटोरा नहीं, संयमित जीवन जीने का कायल है। और यह भी कि रोगी निर्धन नहीं, बड़ा आसामी है- दो- दो फेक्ट्रियों का मालिक। फिर एक मामूली से अनार की आपूर्ति में ऐसे कैसी अड़चन? कि क्यों पुत्र का कंठ भर आया? इन सवालातों का हल हासिल होगा मुआमले में गहरे पैठने से।
यह क़िस्सा है दो हज़ार बीस के उतरते अप्रैल का। बोले तो तब का, जब कोरोना अपने नापाक पंजे भारत में फैला चुका था। ख़बरकाग़ज़, टीवी पर नज़र पड़ते के साथ हिया में ऐसा डबका होता कि अब रुका कि रुका। दिल घिरता जाता अधिक से भी अधिक गहन तम से। मन रहने लगा था डूबा-डूबा। ऐसे में अपने डोकरे मियाँ की तबीयत बिगड़ी। ज्वर व अपच संग पेट चल पड़ा। उनके परिवार में हलचल मची कि कहीं बाबूजी पर कोविड की छाया तो नहीं ? संशय वाले बादल घिरे। ऊहापोह कि छुप कर बैठें या हस्पताल जाएं ? मेधा ने भय पर विजय पायी। शुरू हुई निदान हेतु हस्पताल दर हस्पताल भटकन। ख़ूब मग़जपच्ची के बाद और सरकारी अफ़सरान पर दबाव डलवाने उपरान्त, जाँचे हुईं। डोकरे मियाँ के फेफड़े संक्रमित मिले। अब मियाँ जी हस्पताल में एकले पड़े-पड़े आरटी पी.सी.आर. रिपोर्ट नमूदार होने का इंतजार कर रहे हैं।
सवाल उठता है कि रोगी को निदान हेतु भटकना क्यों पड़ा? भरे पूरे परिवार वाला डोकरा हस्पताल में एकला क्यों? और क्यों तरस रहा है एक सर्वसम्पन्न मानुष अदना से अनार के लिए? मुआमला ठीक से समझने वास्ते हमें करना होगी लम्बी बात। बतफ़सील औ’ तरतीब बताना होगा मुझे वो सारा जो मेडिकल शोधकर्ता, मेडिकल शिक्षक तथा एक मनुष्य की हैसियत से मैंने देखा। भुगता। समझा। कोरोना महामारी काल में। चुनाँचे रखता हूँ आपके सामने उस दौर के चुनिंदा नुक़्ते जो मेरे मन को उद्वेलित किये हैं।
कहा चुका कि यह वाक़िया है दो हज़ार बीस के चौथे मास का। वैसे तो कोरोना विषाणु की आहटें दिसम्बर दो हज़ार उन्नीस से सुनायी पड़ रहीं थीं। परन्तु चीन के एक छोटे इलाके़ से उठती कराहों पर किसी ने कान न धरे। नतीज़न इस बेख़ौफ़ विषाणु ने तकनीक-प्रबल अमेरीका सहित अन्य कई देशों के सत्ताधीशों को ऊँघते में धर दबोचा। अपनी-अपनी विचार-गुहाओं में कै़द आत्मविमुग्ध सत्ताधीश सोते में पकड़े जाना स्वीकारते भी तो कैसे? कि श्रेष्ठता बोध से बाधित मनक खुद के गिरेबां में नहीं झाँकते। झाँक सकते ही नहीं। अलबत्ता वे दूसरे के गिरेबां थामते बरामद होते हैं। यही इस बार भी देखने मिला। अमेरीका, इंग्लैंड हो या ब्राजील या कि भारत सभी दूर के साहिब-ए-मसनद लोगों का हाल हुआ कक्षा में सोते पकड़े गये मास्टरों का सा। हड़बड़ाहट में आँय बाँय शाँय, जो मुँह में आये वो लने लग पड़े ऊँनींदे राजनेता।
कोई एन्टीसेप्टीक पीने की सलाह देने लगा, कोई हाईड्रोक्लोरोक्वीन खाने की। किसी ने इसे चीन का षड़यंत्र बताया, किसी ने वैज्ञानिकों-दवा कारोबारियों का फ़रेब। कोई कोरोना-विषाणु के अस्तीत्व को ही नकारने में मशगूल दिखा, तो कोई मामूली रोग साबित करने की ग़रज़ से कोरोना-रोगियों से हाथ मिलाते हुए तस्वीरें खींचवाने में। भारत के प्रधानमंत्री भी पीछे नहीं रहे। उनने भी लपक कर तस्वीरें शाए करवायीं। कभी मुँह पर दुपट्टा लपेटने की तरक़ीब बताते, कभी सैनिक अस्पताल में तन के बैठे सिपाहियों से बतियाते तो कभी अपने घर-आँगन में मोरों को दाना चुगाते हुए उनकी छवियाँ दुनिया को दिखलायी गयीं।
ख़ुदपसंदी में मुब्तला हज़रात उन इलाकों में भी घुस पड़े जिनके बारे में इनको क़तई भी मालूमात न थी। गोया माँ के पेट से ही सब सीख आए हों। इनमें सरेफे़हरिस्त हैं सियासी लोग। जो रातों-रात कोरोना विशेषज्ञ बन बैठे। उनने अपनी अवधारणा से साबिका रखने वाले वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, अफ़सरों, को साथ लिया। इतर सोच वालों की खिल्ली उड़ायी, परोक्ष में धकेल दिया। नज़र रखने वाले नज़रें बिछाते बरामद हुए। जी हुज़ूरी के इस अनुष्ठान में विज्ञान, विमर्श, विचार, विरोध नामक जीव जिबह किये गये।
बात मध्यप्रदेश या इंदौर की करुँ, जहाँ के हस्पताल में हमारे डोकरे मियाँ भर्ती हैं, तो देखने मिलेगा कि एक विचारधारा विशेष से जुड़े अफ़सर और चिकित्सक ही मुख्यमंत्री से लेकर जिलाधीशों के सलाहकार नियुक्त थे। ज्ञातव्य है कि इन शुरुआती दिनों में भी कोरोना का संक्रमण-रोग होना जगजाहिर था। साफ़ था कोरोना संक्रमित से संसर्ग रोके बिन यह महामारी नियंत्रित होने की नहीं। मालूम था कि संक्रमित की श्वास का आरोहण कर, विषाणु क़रीब मौज़ूद लोगों (तथा वस्तुओं) तक पहुँचता है। अलबत्ता साँस के जरिये यह कितनी दूर जाता है इस पर बहसें चल रही थीं। किन वस्तुओं पर यह ठहरता है, कितनी देर जीवित रहता है, इस मुतअल्लिक़ मुसलसल पड़ताल जारी थी।
मतलब साफ़ है कि रोज़ आती जानकारियों को संज्ञान में ले रोग के फैलाव पर शिकंजा कसने का काम संक्रमण-रोग नियंत्रण में निष्णान्त विशेषज्ञों के अलावा किसी पर नहीं छोड़ा जा सकता। इस पर भी, अकेले इंदौर में ही तीन मेडिकल कॉलेज होने के बावज़ूद सलाहकार समिति में न तो मेडिकल कॉलेज के डीन थे न प्रिवेन्टीव मेडिसिन के प्रोफेसर ही। समिति में शुमार थे ’संघ’ से साबिका रखने वाले प्रायवेट डॉक्टर व चिकित्सासंघ के नेतागण। इनके संग एक पूरा तबका जुड़ा था वाट्सएप-वीरों और ट्वीटर-योद्धाओं का। इन सबों की प्रवृत्ति थी ध्वनि विस्तारक यंत्र की सी। इमान था साहिबे-मसनद के कहे को, फिर चाहे उसका कोई वैज्ञानिक आधार हो न हो, आवाम तक पुरजोश पहुँचाना। उनके हर निर्णय को सुपर से भी ऊपर वाला बतलाना।
उदाहरण के लिये 22 मार्च 2020 को शाम पाँच बजे पाँच मिनिट के लिये ताली-थाली पीटने का मसला ले या पाँच अप्रेल की रात नौ बजे घर की लाईटें बन्द रख दीपक बालने या टॉर्च चमकाने की घटना याद करे लें। दोनों आयोजनों पर आखा देश बौराया दिखा। सामूहिक वातोन्माद (हिस्टीरिया) का विरल नमूना! शिक्षित-अशिक्षित, सभ्रान्त इलाक़े-पिछड़ी बस्तियाँ, अफसर-चपरासी, सेना-पुलिस, व्यापारी-भिखारी कोई अछूता न रहा। सबको मुगालता कि ताली-थाली-शंख नाद से उत्सर्जित ऊर्जा कोरोना विषाणु को मार देगी। या कि अँधेरे में जलते दीपों से दैदीप्तमान धरती देख कोरोना की घिग्घी बँध जावेगी। व¨ पलायन कर लेगा। भाग कर जाएगा कहाँ, यह किसी ने नहीं सोचा।
यह मतिभ्रम औचक नहीं पैदा हुआ। सोची-समझी तकनीक से पैदा किया गया। चमत्कारों में अटूट भरोसा रखने वाली रियाया को गुनिये में लाने की तरक़ीब भिड़ा। इस ग़रज़ से प्रधानमंत्री के गोलमोल शब्दों में किये आह्वान को ’ध्वनिविस्तारक गुट’ ने सोशल मिडिया-ठंडाई में भाँग की तरह घोला और हर कंठ में ऊँड़ेल दिया। बाद में अपनी बात को वज़न देने के लिये भाई लोगों ने ’शटरस्टॉक’ से एक तस्वीर उठा पाँच अप्रेल की रात 8.59 पर नासा-सेटेलाइट द्वारा खेंची भारत भूमि की छवि के रूप में चरितार्थ कर दी। रही सही कसर पूरी की ज्योतिषाचार्यों ने।
कबिलायी मानस वाले भयज़दा आवाम में भ्राँन्तियाँ दावानल से भी द्रुत गति से फैलती हैं। चुनाँचे भयभीत भारतीयों में भी फैलीं। घर-घर, गली-गली पहुँचीं। जनता को लगा कि महान् मोदी जी ने उनके हाथ रामबाण नुस्ख़ा पकड़ा दिया। कोरोना मुक्ति-ताबीज़! नतीज़ा यह कि आते कई हफ़्तों तक लोग हर शाम शंख-थाली पीटते रहे, दीप जलाते रहे। इसके बाद भी जब कोरोना थल्ले नहीं आया और लोग कसमसाने लगे तो नेतागण निर्मम निर्लज्जता से सामने आये। भाजपा के बड़े नेता, कैलाश विजयवर्गी, ने तो इसका ज़िम्मेवार उनको ठहरा दिया जिनने ताली नहीं बजायी, अपने घर की बत्ती नहीं बुझायी। परिणामतः हम सरीखे हो गये स्वःघोषित मोदी विरोधी, देशद्रोही। हमारा महल्ले में निकलना मुहाल हो गया। रोज़ दुआ-सलाम करने वाले आँखें तरेरने लगे। फब्तियाँ कसने लगे।
मेरा मानना है, इन आयोजनों का प्रयोजन वह नहीं था जो करवाने वाले ने बतलाया। कहना मैं यह चाहूँ कि देशबन्दी का निर्णय लेना अगले के लिये आसान थोड़े ही रहा हो गा। शाहीनबाग़ झेल रही हुकुमत को डबका होगा कि कोरोना वास्ते लिये कड़े निर्णय कहीं नया बवाल खड़ा न कर दें। चाहती होगी वह जानना कि नागरिकता कानून विरोधी लहर के बीच कितने लोग आँख मूँद उसके साथ हैं। कालान्तर में, देशबन्दी के तरीके व असर को लेकर जब आक्षेप लगने लगे तब भी इसी तर्ज़ की मालूमात वह चाहती होगी। जनमानस की चाशनी कैसे लें, यह था तब का यक्ष प्रश्न। लक्ष्य करें कि ताली बजवायी गई देशबन्दी घोषणा के दो दिन पहले, दीपक बाले गये घोषणा के तेरह दिन पश्चात। रियाया को एकजुटता दिखाने को कहा गया। कोरोना के विरुद्ध। वाट्सएप-बहेलिये, जमीनी नियोजक सन्नद्ध हुए अपने-अपने तरीकों से। फैलाया भ्रान्तियों का जाल। गोरैया फँस गयी। दिगभ्रमित जनता का किया सबके सामने है। नतीज़ा? विरोध बन्द, विरोधी सन्न! जुड़ा कूटनीति शास्त्र् में नूतन प्रसंग! बहरहाल इन दीगर नुक़्तों को छोड़ पकड़ता हूँ बातों का वो सिरा जो जाने कब छूट गया।
जैसा कि सर्वज्ञात है दीपक-काण्ड से कुछ दिन पूर्व, 24 मार्च, 2020 को, देशबन्दी घोषित हो चुकी थी। हमें मुगालता दिया गया कि तब हमने अठारह दिनों में कौरव सेना को पस्त किया अब इक्कीस दिनों में हम कोरोना को हरा देंगे। इस वक्तव्य ने मुझे भीतर तक झकझोर डाला। अव्वल तो युद्ध-बिगुल फूँकने के साथ विजय-दिवस की घोषणा बड़ा बचकाना ख़याल है। और जो न भी हो तो भी महामारी से जूझने को युद्ध कहना ही भूल है। यूँ कि अनचिन्हे रोगों से लड़ने के लिये दरकार होती है ठंडे दिमाग़ सोचने की। गहन बहुस्तरीय शोधों की। इसके मुख़्तलिफ युद्ध के औज़ार हैं क्रोध, जुगुप्सा, तड़ातड़ी, हिंसा व असला। और यूँ भी कि जंग में विजयी कोई नहीं होता। मार दुतर्फा पड़ती है। हार भी। इतिहास इस बात की भी गवाही देगा कि युद्ध रियाया नहीं सत्ताएं लड़ती हैं। अपनी स्वार्थपूर्ति, अहंतुष्टि हेतु। युद्ध– इस शब्द में अंतर्भूक्त है लोगों की सोच कुंद कर उन्हें भावुकता के बवंडर में ठेलने की अशेष क्षमता। युद्ध– शब्द कान में पड़ते ही लोग उपान्तरित हो जाते हैं चूहों में। अपने त्रास भूल, निज स्पृहा तज, चल देते हैं युद्ध-बिगुल फूंकते नेता के पीछे।
देखा जावे तो बिदकते, मनानुसार कारज करते लोगों को काबू करने का कारगर उपाय है ’एलान-ए-जंग’। वही किया गया 24 मार्च को। देशबन्दी के निर्णय को जंग का जामा पहनाने वास्ते युद्ध-शब्दावलियों का जम कर प्रयोग हुआ। जैसे कि ‘कोरानावीर’, ’कोरोनायोद्धा’, ’फ्रन्टलाइन वॉरियर’, ’कोरोना शहीद’….। जब जंग छिड़ी हो तो जो नेता-अनुगामी वो देशभक्त। जो लीडर के कहे में नहीं, उसकी खामियाँ बताये वो एवं जो कोरोना के चपेट में आ जावे वो भी ठहरा गद्दार! ऐसों का सामाजिक बहिष्कार लाज़िमी। ग़रजे़ कि उस सारगर्भित भाषण में जनमानस के साथ-साथ भविष्य में उठने वाले विरोधों (तथा विरोधियों) को साधने के सारे सामान समाहित थे!
ख़ैर, जब यह बात कही गयी तब दुनिया के वैज्ञानिक इस नव विषाणु की संरचना, चाल-चलन ठीक-ठीक बूझने में दिन रात एक किये थे। आदमी तब आदमी से भयज़दा था। मुँह पर मास्क बाँध, आदमी से दूर रहने के सिवा कोई हथियार नहीं था उसके कने। ऐसे में देश का प्रधानमंत्री मात्र तीन सप्ताह में कोरोना को परास्त करने का दम भर जनता को कैसे गुमराह कर सकता है, यह सोच मैं शर्म से गड़े जा रहा था!
इस युद्ध-घोष में मानव के दूध-धुले होने की, हर सम्भव और हर बखत धर्म सम्मत कारज करने वाला होने की अनुगूँज सुन पड़ी मुझे। सोचने लगा कि क्या यही ध्रुव सत्य है? मन नहीं माना। कि कुदरत की नज़र से देखें तो क्या उसकी सर्वोत्कृष्ट सृजना ने अपना धर्म निभाया? कि नित नूतन औज़ार गढ़ सृष्टि की अन्यान्य सृजनाओं पर पिल पड़ने वाला मानव चाहे जितनी आत्मस्तुति कर ले परन्तु कुदरत क्या उसे एक आततायी न समझती होगी? क्या उसकी निगाह में मनुष्य एक दुष्ट हिंसक पशु नहीं होगा जो धरती ही नहीं आकाश पर भी काबिज़ होने पर आमादा है। जो आमादा है कुदरत के कारोबारों को हथियाने को |
बहरहाल, बात चल रही थी तीन सप्ताह में कोरोना पर विजय पाने वाले दावे की। सो वहीं लौटता हूँ । खुर्दबीन से ताज (क्राउन) की तरह दिखने वाले कोरोना वायरस से चिकित्सा विज्ञानी नावाकिफ नहीं। वे 1968 से इस नाम से परिचित हैं। दरअस्ल यह आर.एन.ए. विषाणुओं के एक विशिष्ट परिवार का नाम है, जिसके अंतर्गत रोज़मर्रा के नज़ला जुकाम से लेकर विगत दशकों में कहर बरपा चुके अनेक बीमारियाँ हैं। यथा बर्ड-फ्लू, स्वाईन फ्लू, मिडिल ईस्ट सिवियर रेस्पिरेटरी डिस्ट्रेस सिन्ड्रोम आदि। आर.एन.ए. विषाणुओं में महामारक इंफ्लूएन्जा वायरस भी है जिसने कभी पाँच से दस करोड़ लोगों के प्राण हरे थे। जी हाँ मेरा इशारा 1918 के तथाकथित ’स्पेनिश फ्लू’ की ओर है। बीमारी जिसने महाकवि ’निराला’ के परिवार को लीला। और जिसके ग़िर्द स्टीफन स्वाइग ने ’लेटर फ्रॉम एन अननोन वूमन’ नामक कहानी गूँथी।
यद्यपि इस फ्लू का विषाणु कोरोना-परिवार में शुमार नहीं तथापि इसका ज़िक्र निकाला क्योंकि इन दोनों के व्यवहार में बहुत साम्य है। ताजा शोध बताते हैं कि कोरोना के मानिंद ही ’स्पेनिश फ्लू’ विषाणु भी अन्यान्य जीवों से मानव के यहाँ आया। जैसे कोविड-19 चमगादड़ से मानव में प्रविष्ट हुआ उसी तरह ’स्पेनिश फ्लू’ विषाणु पक्षी से निकल किसी स्तनधारी से गुज़र मनुष्य तक पहुँचा था। जानकार कहते हैं कि अभी भी वनीय जीवों व जलचरों पर आश्रित कितने ही जीवाणु/विषाणु हैं जो मानव-संज्ञान में नहीं। मनुष्य जब तक इनके हलकों से दूर है, महफूज़ है। इनसे छेड़खानी करते ही, इनके संसर्ग में आते ही आदमी पर क़हर बरपा हो जाता है।
माना जा रहा है कि चीन के वुहान में जंगली जानवरों का बाज़ार सज़ाने का नतीज़ा आज समूचा विश्व भुगत रहा है। चमगादड़ से मानव तक बीमारी पहुँचने का अग़रचे यह पहला मामला होता तो मैं इस उड़न्तु स्तनधारी के अँधेरे गलियारे में आपको नहीं खेंचता। परन्तु यह वाहिद मुआमला नहीं। यह प्राणी पूर्व में भी हमारे यहाँ सेंध मार चुका। रोना है कि आदमी इतिहास को नजरअंदाज कर फक़त वक़्ती मसलहात में मशगूल रहता है। ऐसे में जो बिगड़ैल समय औचक आ घेरे तो उसे बचने के उपाय नहीं सूझते। बौराया आदमी तब फड़बाजों के से दाँव खेलने लग पड़ता है। धत् तेरे की! मैं बात करते हुए दूसरी तरफ़ निकल आया। लिहाज़ा लौटता हूँ पुनः चमगादड़-गली में।
विगत काल में निपाह विषाणु की दस्तक हम एकाधिक बार सुन चुके। पहले 1998-99 में मलेशिया व सिंगापुर में फिर 2004 में बंगलादेश तथा 2018 में भारत के केरल प्रदेश में इस रोग ने कई जानें ली। विश्व स्वास्थ संगठन के अनुसार इस रोग का वास्ता वनों के क्षरण से है। वनों की अन्धाधुन्ध कटाई के चलते वहाँ निवासरत चमगादड़ (फ्लाईंग फॉक्स यानी फ्रूट बेट) भूखमरी का शिकार हो कमजोर हो गये। उनके शरीर में पहले से मौजूद निपाह वायरस उन्हीं पर हावी हो गया। भोजन तलाशते ये चिमगादड़ मानव बस्तियों में घुस आये, वहीं मरे भी। उन जीवों के तथा उनके मल-मूत्र के सम्पर्क में आने से मानव में तेजी से निपाह रोग फैला। तब भी दुनिया भर के विशेषज्ञों ने वनीय चिमगादडों के शिकार से बाज़ आने की नसीहत की थी। क्या किसी ने मानी? नहीं! तब भी पर्यावरणविदों ने वनों की कटाई रोकने हेतु गुहारा था। क्या किसी ने अमल किया? नहीं। क्यों अमल नहीं हुआ?
दरअस्ल दुनिया पर लागू है ‘पसे आईना कोई और सरे आईना कोई और’ वाला जुमला। वो यूँ कि असल में मानव जगत् की बागडोर राजनेताओं के बनिस्बद स्वार्थान्ध-व्यापारियों के हाथ में है। ऐसा व्यापारी आज में जीता है, कल में नहीं। उसका वास्ता धन से होता है, धरा से नहीं। सत्यनिष्ठ, तथ्यपरक बातों को वो प्रलाप करार दे झुठला देता है, चुटकियों में। सच है कि स्वार्थान्ध तथा अपने पर विमुग्ध मनुष्य के कर्णरिन्ध्र सुनते हैं छान कर, उसके चक्षु देखते हैं छाँट कर। अपने कहे व अपने सोचे के सिवा उसके यहाँ सब बेमानी। ऐसे मानस वाला मनक जो सत्तारूढ़ हो तो चढ़ जाता है करेले पर नीम। फिलवक़्त जारी कोरोना-काल में सत्ताधीशों का बर्ताव मेरे इस कथन को गाढ़े रंग से रेखान्कित कर रहा है।
ग़ौर किया जाये कि कोरोना प्रजाति के मुतअल्लिक अपने पूर्वानुभवों के चलते और ’स्पेनिशफ्लू’ विषाणु के चरित्राध्ययन के मद्देनज़र मेरे जैसे शोधकर्मी तब भी जान रहे थे कि कोरोना-19 कहीं जाने का नहीं। कि दीगर आर.एन.ए. विषाणुओं की तरह यह भी समय के साथ अपनी मारक शक्ति बदलेगा। कि ख़लाई-कायदे में फ़र्क़ की फाँक नहीं। कुदरत ने तक़सीम किया है सब में जीने का हक़ बराबरी से। विषाणुओं से मनुष्य तक। हर शै को ठीक मानव प्रजाति जित्ता। किसी को न राई बराबर अधिक, न रत्ती जित्ता कम। हर एक को हासिल बचे रहने के अपने-अपने औज़ार। जैसे विषाणुओं को उसने अता फ़रमाई है ऐसी ताक़त जो आदमी के यहाँ नहीं। कैसी ताक़त? इस मुद्दे पर मुझे इतमीनान से बात की इजाज़त दी जाए।
कोरोना कुनबे वाले ठहरे अधूरे गुणसूत्र वाले विषाणु। मानी इसमें होता है फ़क़त आर.एन.ए, डी.एन.ए. क़तई नहीं। ख़ुद को बचाये रखने के लिए इसे चाहिये होती है एक मेजबान (होस्ट) देह। मेजबान के डी.एन.ए. को हथियाकर ही यह अपना कुल बढ़ा सकता है, बचा रह सकता है। इसमें है ताकत चुप से किसी देह में घुस अपने को बनाये रखने की। किन्तु यहाँ कहानी में एक पेंच है। वो यह कि मेजबान, विशेषतः मानव, कोई माटी का माधव नहीं। न तो उसकी देह चुप बैठती है न दिमाग़ ही। दोनों गढ़ते हैं अपने-अपने आयुध, कोरोना मुक्ति की ग़रज़ से। आदम देह पैदा करती है एन्टीबॉडी| दवा आविष्कारित होती है दिमाग़ से । परन्तु कोरोना अपनी दैहिक संरचना बार-बार बदल मानव सिरजित आयुधों से बच निकलता है। कहे का सार यह कि जन्तु-जगत् से मानव-देस में प्रविष्ट हुआ यह विषाणु अपनी भौतिक संरचना को बार बार बदल इस नव-देस में बना रहेगा। इस सिलसिले में ग़र आदमज़ाद लाखों की संख्या में भी फ़ौत होता है तो इसका जिम्मा सिर्फ़ विषाणु पर ही नहीं, काफ़ी हद तक, आदमी पर भी होगा। कैसे?
यहाँ और भी तफ़सील से बात करने की दरकार है। इसके लिये मुझे लौटना हो गा 1918-20 ई. में, जब दुनिया ’स्पेनिश फ्लू’ की गिरफ़्त में थी। आगे बढ़ने से पहले मुझे वह दोहराने दिया जाए जो दरअस्ल सर्वविदित है। वो यह कि कोरोना-रोग कितना और कैसा विकट असर डालेगा यह रोगाणु/विषाणु की मारक शक्ति के साथ-साथ काया की रोगप्रतिरोधक क्षमता पर भी निर्भर करता है। इस तथ्य की रौशनी में ’स्पेनिश फ्लू’ महामारी को देखने से समझ पड़ता है इससे करोड़ों के हताहत होने का कारण। वाज़ेह हो, वो काल प्रथम विश्वयुद्ध से सटा काल था। दुनिया भर में विपन्नता, भूखमरी पसरी थी। छोटे देशों में, खास कर एशिया में, मलेरिया एवं तपेदिक का बोलबाला था। इन देशों से ट्रेन भर-भर के सैनिक सीमाओं पर आ जा रहे थे। काम की तलाश में लोग जत्थों में एक से दूसरी जगह भटक रहे थे। कई स्थानों पर सैनिक तथा सामान्यजन भी हफ़्तों -महिनों से खंदकों में दुबका बैठा था। आधा पेट भोजन करके और बाज़ दफ़ा हफ़्तों-हफ़्तों बिना वर्जिश किये। कसरत-भोजन की कमी, भीड़ भरी बोगियों में आवाजाही, सँकरी खन्दकों में कै़द, ऊपर से काया को खोखला करने वाले रोग। लुब्बेलुबाब यह कि तब करोड़ों जर्जर शरीर तैयार थे फ्लू विषाणु द्वारा लील लिये जाने के लिये। हुआ भी यही। अकेले भारत में (जिसमें आज के पाकिस्तान तथा बँगलादेश भी शुमार हैं) तब एक करोड़ अस्सी लाख लोगों की मौत का बायस बना यह रोग।
उस काल की तुलना 2020 से करें तो मन में चिन्ता व्यापती है। गो कि भूखमरी, कुपोषण आज भी मौजूद हैं। काम के लिये देश-विदेश भटकना अब भी बदस्तूर जारी है। अलबत्ता उच्चकोटि चिकित्सा के चलते मलेरिया, तपेदिक अब उतने नहीं। परन्तु आलातरीन इलाज़ पद्धति, बेहतर आमदनी तथा बेक़दर आरामतलबी के बायस आज हमारे (भारत) पास दूसरे क़िस्म के रोगी भरपल्ले हैं। रोगी जिन पर कोरोना के बेजा असर सर्वाधिक हो रहे हैं। बतौर नमूना कुछ आँकड़े पेश हैं- मधुमेह (7.25 करोड़), उच्चरक्तचाप (23 करोड़), मोटापा (34.3 करोड़)। इनमें जीवन में साठ बसन्त देख चुके 10.4 करोड़ जनों को और जोड़ लें तो गिनती पहुँचती है तक़रीबन 75 करोड़! मान लिया कि कई लोगों को एकाधिक रोग हो सकते हैं। इसे संज्ञान में लेने पर भी यह गिनती लाखों के दायरे में सिमटने की नहीं। ऐसे में देशबन्दी लागू कर, कर्फ़्यू लगा या लाठियाँ चमका आवाम को रोजी-रोटी कमाने से रोक उसे कुपोषण की ओर ठेलना, उसे व्यायाम से विमुख करना क्या उचित था?
ज्ञातव्य है कि तत्कालीन वैज्ञानिक, ख़ासकर ’स्वतंत्र’ वैज्ञानिक, इसके पक्षधर नहीं थे। विश्व स्वास्थ संगठन ने भी ’लॉकडाउन’ कारगर नहीं होने की बात एकाधिक बार की थी। उसी दौरान बहुप्रतिष्ठित मेडिकल पत्रिका ‘दी लेन्सेट’ में प्रकाशित लेख में देशबन्दी को आज की होनी को कल पर टालने वाला क़दम बताया गया। पर क्या राजनेताओं ने सुना? नहीं। जब देश में मात्र पाँच सौ कोरोना रोगी थे तब भारत में दुनिया का सबसे लम्बा व कठोरतम ’लॉकडाउन’ लागू किया गया। लेन्सेट-लेख में प्रतिबन्ध हटते ही रोगियों की संख्या में धड़नतख़्ता इजाफ़े का क़यास लगाया गया था। जो तहरीर दर तहरीर सच साबित हुआ। आज, जब ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ, भारत में कोरोना रोगियों की गिनती सवा करोड़ पार है। डेढ़ लाख जानें जा चुकी हैं, और पिक्चर अभी शेष नहीं हुई है। सनद रहे कि ये सरकारी आँकड़े हैं। झोलदार। लम्बी चर्चा के हक़दार।
जारी…..
(पेशे से चिकित्सक अजय सोडानी इंदौर के श्री अरबिंदो इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज में न्यूरोलॉजी विभाग में प्रोफेसर हैं।)